हैदराबाद में महिला पशु चिकित्सक से बलात्कार के बाद जलाकर हत्या का अपराध करने के चार आरोपियों की एक मुठभेड़ में जब वे पुलिस अभिरक्षा से भागने की कोशिश कर रहे थे तो पुलिस की गोली से मार डाले गए। इस मुठभेड़ पर जनता की व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। लोग खुश भी हैं और पुलिस की भूरी भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। इस आनंदोन्माद मे वे यह भूल रहे हैं कि वे एक विधिनुकूल राज्य के नागरिक है न कि विधिविहीन, मात्स्यन्याय के मध्ययुगीन राज्य के निवासी हैं। बलात्कार एक जघन्य अपराध है। पर उसकी सजा कानून ही कानूनी तरीके से दे सकता है न कि कोई और।
हैदराबाद की मुठभेड़ को ' फर्जी' बताते हुए जांच की मांग को लेकर दो याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं। यह मुठभेड़ अभी जैसी है उसे वैसी ही रहने दे। साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर का बयान आ गया है। अब जब इस मुठभेड़ की जांच हो तो सभी तथ्य सामने आएंगे। फिलहाल तो यह मामला जांच की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुका है।
इस मामले में दो वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। जी एस मणि और प्रदीप कुमार यादव ने अपनी याचिका में मांग की है कि इस मुठभेड़ पर पुलिस टीम के मुखिया समेत सभी अफसरों पर एफआईआर दर्ज कर जांच कराई जानी चाहिए। याचिका में कहा गया है कि ये जांच सीबीआई, एसआईटी गठित कर के या क्राइम ब्रान्च या अन्य निष्पक्ष जांच एजेंसी से कराई जाए जो तेलंगाना राज्य के अंतर्गत ना हो। साथ ही जांच टीम की अगुवाई साइबराबाद के पुलिस आयुक्त वीसी सजनार से उच्च पद के अफसर से कराई जाए।इस याचिका में कहा गया है कि यह भी जांच हो कि क्या मुठभेड़ को लेकर पीयूसीएल व अन्य बनाम भारत संघ मामले में 2014 में दी गई सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का पालन किया गया है या नहीं। इसके साथ ही तेलंगाना सरकार और राज्य के पुलिस महानिदेशक से घटना संबंधी सारा रिकॉर्ड तलब करने का अनुरोध किया गया है।
अब देखते हैं, पीयूसीएल व अन्य बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश क्या हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2014 में पीयूसीएल व अन्य बनाम भारत संघ के एक बहुचर्चित मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों एवं गम्भीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जांच के लिए 16 दिशानिर्देश जारी किये थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इन दिशानिर्देशों का पालन सम्पूर्ण, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए मानक प्रक्रिया के तौर पर किया जायेगा। दिशानिर्देशों में मुठभेड़ में हुई मौतों के मामले में अनिवार्य रूप से मजिस्ट्रेट जांच कराना और बगैर किसी विलंब के पीड़ितों के निकटतम परिजनों को इसकी जानकारी देना शामिल है। दिशानिर्देश इस प्रकार हैं।
● पुलिस मुठभेड़ के तुरंत बाद, घटना की एफआईआर, या प्रथम सूचना रिपोर्ट, संबंधित थाने में दर्ज़ कराायी जानी चाहिए और दर्ज़ अपराध की जांच क्राइम ब्रांच (सीआईडी) अथवा किसी अन्य पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा घटना/मुठभेड़ की स्वतंत्र जांच की जानी चाहिए।
● यह जांच मुठभेड़ में शामिल पुलिस टीम के मुखिया से कम से कम एक पद ऊपर के वरिष्ठ अधिकारी की निगरानी में होनी चाहिए।
● यदि पीड़ित के परिजनों को ऐसा लगता है कि पुलिस सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय प्रक्रिया का अनुसरण करने में असफल रही है, तो वे संबंधित इलाके के सत्र न्यायाधीश के यहां शिकायत कर सकते हैं।
● मुठभेड़ की घटना के तुरंत बाद ऐसे अधिकारियों को बारी के बगैर (आउट ऑफ टर्न) पदोन्नति या वीरता पुरस्कार दिये जाने से प्रतिबंधित कर दिया था।
इस मामले की सुनवाई करते हुये, सीजेआई जस्टिस आरएम लोढ़ा और जस्टिस आरएफ नारीमन यह व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान से जीने का अधिकार निहित है। अदालत ने, यह भी व्यवस्था दी थी कि पुलिस मुठभेड़ में किसी के मारे जाने से कानून के शासन तथा आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता आहत होती है। न्यायमूर्ति लोढा ने अपने उस फैसले में कहा था, "अनुच्छेद 21 में निहित गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है और यहां तक कि सरकार भी इस अधिकार का हनन नहीं कर सकती। अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार एवं संविधान के अन्य प्रावधानों के समान ही कई और संवैधानिक प्रावधान भी निजी स्वतंत्रता, सम्मान और मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं। नागरिकों के जीवन एवं निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ में मौत की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं।"
अनुच्छेद 21 में अंकित है,
" किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। "
संविधान में दिये गए मौलिक अधिकारों के आलोक में, निम्नांकित दिशानिर्देश सुप्रीम कोर्ट ने जारी किये हैं, --
1. जब कभी पुलिस को आपराधिक गतिविधियों के बारे में कोई खुफिया जानकारी या सुराग मिलता है तो इसे (केस डायरी के रूप में) लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में संक्षिप्त तौर पर रखा जाना चाहिए, लेकिन उसमें संदिग्ध के ब्योरे अथवा उसकी संभावित गतिविधियों के ठिकाने का जिक्र नहीं किया जाना चाहिए।
यदि इसी प्रकार की खुफिया जानकारी अथवा सुराग वरिष्ठ अधिकारी को प्राप्त होती है तो उसे भी इस प्रकार रखा जाना चाहिए कि संदिग्ध की गतिविधि या उसके लोकेशन के बारे में भी किसी को नहीं बताया जाना चाहिए।
2. किसी खुफिया जानकारी या सुराग मिलने के बाद यदि मुठभेड़ होती है और आग्नेयाशस्त्र का इस्तेमाल पुलिस करती है तथा उसमें किसी की जान जाती है तो एक प्राथमिकी दर्ज करायी जानी चाहिए। इसे दंड प्रक्रिया संहिता ( सीआरपीसी ) की धारा 157 के तहत अदालत को अग्रसारित किया जाना चाहिए और इस क्रम संहिता की धारा 158 में वर्णित प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए।
3.अपराध जांच विभाग (सीआईडी) अथवा दूसरे पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा घटना/ मुठभेड़ की स्वतंत्र जांच करायी जायेगी। यह जांच मुठभेड़ में शामिल पुलिस टीम के प्रमुख से कम से कम एक पद ऊपर के वरिष्ठ अधिकारी की निगरानी में होनी चाहिए।
उपरोक्त गाइडलाइंस के बाद, अदालत ने यह महत्वपूर्ण आदेश भी दिए हैं।
जांच टीम कम से कम ये कदम जरूर उठायेगी:-
● पीड़ित की पहचान के लिए उसकी रंगीन तस्वीर ली जानी चाहिए,
● खून से सनी मिट्टी, बाल, रेशों और धागों सहित साक्ष्य संबंधी सामग्रियों को बरामद करना एवं उन्हें संरक्षित रखना,
● चश्मदीद गवाहों की पहचान करना एवं उनके पूरे नाम, पते और टेलीफोन नंबर दर्ज करना, मौत से संबंधित उनके बयान दर्ज करना (इनमें मुठभेड़ से जुड़े पुलिसकर्मियों के बयान भी शामिल हैं।),
● मौत का कारण, तरीका, जगह और समय का निर्धारण करना, साथ ही उस खास तरीके का पता करना, जिसके कारण मौत हुई हो सकती है। इसके साथ ही घटनास्थल की भौगोलिक परिस्थितियों का एक रफ स्केच तैयार करना तथा संभव हो तो घटनास्थल का फोटो/वीडियो एवं भौतिक साक्ष्य जुटाना,
● यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मृतक के सम्पूर्ण फिंगरप्रिंट्स रसायनिक विश्लेषण के लिए भेजे गये हों।
● पोस्टमार्टम दो चिकित्सकों द्वारा जिला अस्पताल में कराया जाना चाहिए, जिनमें से एक डॉक्टर उस जिला अस्पताल का प्रभारी/प्रमुख हो। पोस्टमार्टम की वीडियोग्राफी की जायेगी और उसे संरक्षित रखा जायेगा।● आग्नेयास्त्रों, जैसे-बंदूक, प्रक्षेपास्त्र, गोलियों और कारतूस के खाखे आदि के साक्ष्य हासिल करना एवं संरक्षित रखना चाहिए।
● मौत के कारणों का पता लगाया जाना चाहिए, कि क्या यह प्राकृतिक मौत थी, या दुर्घटनात्मक मौत, आत्महत्या अथवा नरसंहार।
4. पुलिस फायरिंग के कारण होने वाली सभी मौतों के मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 176 के तहत निरपवाद रूप से मजिस्ट्रेट जांच करायी जानी चाहिए और उसके बाद एक रिपोर्ट उस न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए, जो सीआरपीसी की धारा 190 के तहत अधिकृत हों।
5. जब तक स्वतंत्र एवं निष्कर्ष जांच को लेकर गम्भीर संदेह न हो, तब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को इन मामलों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि घटना की सूचना, परिस्थिति अनुसार, एनएचआरसी या राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) को बिना किसी विलंब के दे दी जानी चाहिए।
6. घायल अपराधी/पीड़ित को चिकित्सा सहायता और मजिस्ट्रेट या मेडिकल ऑफिसर के समक्ष दर्ज उसका बयान फिटनेस सर्टिफिकेट के साथ उसे उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
7. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्राथमिकी, डायरी इंट्री, पंचनामा, स्केच आदि को संबंधित अदालत को भेजने में विलम्ब न हो।
8. घटना की पूरी जांच के बाद, रिपोर्ट सीआरपीसी की धारा 173 के तहत सक्षम अदालत के पास भेजी जानी चाहिए। जांच अधिकारी द्वारा पेश आरोप पत्र के मुताबिक मुकदमे का निपटारा त्वरित किया जाना चाहिए।
9. मौत की स्थिति में, कथित अपराधी/पीड़़ित के निकटस्थ परिजन को यथाशीघ्र सूचित किया जाना चाहिए।
10. पुलिस फायरिंग में मौतों की स्थिति में सभी मामलों का छमाही ब्योरा पुलिस महानिदेशक द्वारा एनएचआरसी को भेजा जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि छमाही ब्योरा हर साल क्रमश: जनवरी और जुलाई की 15 तारीख तक एनएचआरसी को मिल जाये।
ब्योरा निम्नलिखित प्रारूप में होना चाहिए, जिसमें पोस्टमार्टम, तहकीकात और अनुसंधान रिपोर्ट शामिल हो:-
● घटना की तारीख एवं स्थान
● पुलिस स्टेशन, जिला मौत के लिए जिम्मेदार परिस्थितियां-
● मुठभेड़ में स्वयं की रक्षा
● गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा भीड़ को हटाने के क्रम में।
● गिरफ्तारी प्रभावित करने के क्रम में
● घटना का संक्षिप्त कारक
● आपराधिक मुकदमा नंबर
● जांच एजेंसी
● मजिस्ट्रेट जांच/ वरिष्ठ अधिकाररियों की जांच के निष्कर्ष
● मौत के लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के नाम एवं पदों का खुलासा करना
● क्या बल प्रयोग न्यायोचित था और की गयी कार्रवाई कानून-सम्मत थी?
11. जांच पूरी होने के बाद यदि ऐसा साक्ष्य प्राप्त होता है जिससे यह प्रतीत होता है कि जिस आग्नेयास्त्र से मृत्यु हुई वह आईपीसी की धारा के तहत अपराध की श्रेणी में आता है, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई तुरंत शीघ्र की जानी चाहिए और उसे निलंबित कर दिया जाना चाहिए।
12. पुलिस मुठभेड़ में मारे गये व्यक्ति के आश्रितों को मुआवजा देने की जहां तक बात है तो इसके लिए आईपीसी की धारा 357-ए पर अमल किया जाना चाहिए।
13. संबंधित अधिकारी को अपने हथियार एवं अन्य सामग्रियों की जांच एजेंसी द्वारा आवश्यकतानुसार फॉरेंसिक और बैलिस्टिक विश्लेषण के लिए अपने हथियार एवं अन्य सामग्रियों को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। यह संविधान के अनुच्छेद 20 के तहत प्रदत्त अधिकारों के अनुरूप हो।
14. घटना की जानकारी पुलिस अधिकारी के परिवार को भी दी जानी चाहिए तथा यदि उसे वकील एवं परामर्शदाता की सेवा की जरूरत हो तो इसका भी प्रस्ताव दिया जाना चाहिए।
15. घटना के तुरंत बाद संबंधित अधिकारियों को न तो बिना बारी के पदोन्नति दी जानी चाहिए, न ही कोई वीरता पुरस्कार दिया जाना चाहिए। हर हाल में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ये पुरस्कार तभी दिया जाए या इसकी सिफारिश तभी की जाए जब संबंधित अधिकारियों की वीरता पर कोई संदेह न हो।
16. यदि पीड़ित का परिजन यह महसूस करता है कि उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया या स्वतंत्र जांच में किसी तरह की गड़बड़ी की आशंका हो या उपरोक्त वर्णित किसी भी अधिकारी की निष्पक्षता पर संदेह पैदा होता है, तो वह अधिकार क्षेत्र वाले सत्र न्यायाधीश से शिकायत कर सकते हैं। इस प्रकार की शिकायत के बाद संबंधित सत्र न्यायाधीश शिकायत के गुणदोष की निर्णय करेगा और शिकायत का निपटारा करेगा।
न्यायालय ने आदेश दिया था कि पुलिस मुठभेड में मारे गये और गंभीर रूप से घायलों से जुड़े सभी मामलों में संविधान के अनुच्छेद 141 के प्रावधानों के तहत उपरोक्त मानकों का सख्ती से अनुपालन किया जाना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित प्रत्येक कानून देश की सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी होगा।
कल ही भारत के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई का यह बयान आया है कि, न्याय तुरत फुरत नहीं हो सकता है। उनका कहना सही है। न्याय और प्रतिशोध दोनों ही अलग अलग चीजें हैं। न्याय कानून के अनुसार और कानूनी तऱीके से ही हो सकता है जब कि प्रतिशोध जैसे को तैसा के सिद्धांत पर काम करता है। यह सिद्धांत विधिनुकूल नहीं बल्कि विधिविहीन समाज की ओर बढ़ते जाने का एक संकेत है। सुप्रीम कोर्ट को यह आभास है कि अक्सर आत्मरक्षा के नाम पर गोली चला कर किसी को भी, वह अगर दुर्दांत अपराधी भी हो तो, मार देने सुरक्षा बलों और पुलिस की प्रवित्ति पर वैधानिक रूप से अंकुश नहीं लगाया गया तो अधिकार मद से मत्त कानून को लागू करने वाली एजेंसियों को विधि के रास्ते पर लाना कठिन हो जाएगा। जब कानून लागू करने वाली संस्थायें, खुद ही कानून का उल्लंघन करने लगेंगी तो उसका परिणाम अराजकता ही होगा। इसे ही नियंत्रित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने यह दिशानिर्देश जारी किये हैं जो सभी पर बाध्यकारी हैं। जब जांच होती है तो यह एक एक विंदु देखा जाता है।
© विजय शंकर सिंह
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