यह सरकार खुद को ही राष्ट्र मान बैठी है। इसे लगता है कि अगर इस सरकार की निंदा की जा रही है तो वह राष्ट्र की निंदा है। अगले चरण में सरकार का मुखिया ही खुद को राष्ट्र का पर्यायवाची घोषित कर देगा। उसकी यह कोशिश शुरू भी हो गयी है। उनकी नज़र में, राष्ट्रनिर्माण का अर्थ, एक ऐसी सरकार का निर्माण जो एक ही व्यक्ति के प्रति समर्पित रहे। ऐसा नहीं है कि वे राष्ट्र और सरकार में कोई अंतर नहीं समझते हैं, वे इस अंतर को खूब समझते हैं। पर वे इस अंतर को हमें समझने नहीं देते हैं। भारतीय इतिहास में तो सम्राटों को भी राष्ट्र का पर्याय नहीं कहा गया है। लेकिन यह लोकतंत्र का एक नया रूप है जो अधिक समय तक चलेगा नहीं, पर फिलहाल तो उसे खींचा जा रहा है।
उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में प्रसिद्ध उद्योगपति और बजाज ऑटो के मालिक राहुल बजाज ने यह जिक्र किया कि " देश मे डर का माहौल है। कोई उद्योगपति यह बात कहेगा नहीं पर वे कह रहे हैं। " दरअसल राहुल जिस परिवेश और परिवार में जन्मे पले बढ़े हैं उसमें अपनी बात खुलकर कहने और निडर रहने की प्रवित्ति थी। यह परिवार गांधी जी से जुड़ा था और आज भी गांधी जी का कुछ न कुछ प्रभाव तो उनपर होगा ही। राहुल बजाज ने अपनी बात खुल कर कही। हालांकि राहुल बजाज इसी सरकार की कुछ साल पहले भूरि भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। वे सत्ता के चरित्र से बहुत अलग नहीं हैं।
उनकी बात का उत्तर भी अमित शाह ने दिया और सरकार का पक्ष रखते हुये, कहा कि ' किसी को डरने की ज़रूरत नहीं है, और सरकार की मंशा भी किसी को डराने की नहीं है।' लेकिन कल जब से राहुल बजाज का बयान सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है तब से इस बयान के संबंध में, दो प्रतिक्रियाये सामने आयी हैं। एक तो बीजेपी आईटी सेल ने राहुल बजाज को ट्रॉल करना शुरू कर दिया, दूसरे आज के इकोनॉमिक टाइम्स में अमित शाह का बयान कि डरने की ज़रूरत नहीं है यह तो छापा है पर यह खबर वह गोल कर गया कि राहुल बजाज ने क्या सरकार के खिलाफ क्या कहा था। क्या अखबार द्वारा राहुल बजाज के बयान को न छापना सरकार प्रायोजित भय को ही प्रतिविम्बित नहीं करता है ?
आज फिर संसद में वित्तमंत्री ने अपनी बात कही। कल जब राहुल बजाज यह कह रहे थे, कि ' सरकार से डर लगता है ' तब निर्मला सीतारमण भी वहीं थीं। उन्होंने कहा कि ऐसी बात करने से राष्ट्रहित को नुकसान पहुंचता है। इस बयान की भी व्यापक प्रतिक्रिया हो रही है। राहुल बजाज की बात को सच साबित करने के लिये किसी प्रमाण की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। आईटी सेल के ट्रॉल गिरोह ने राहुल बजाज के खिलाफ, बिना बात के ट्रॉल अभियान चला कर, और इकनोमिक टाइम्स ने राहुल बजाज के कहे को नज़रन्दाज़ कर, खुद ही यह साबित कर दिया कि देश मे भय का माहौल है। प्रश्न राहुल बजाज का सरकार के खिलाफ बोलना, नही है, बल्कि असल सवाल सरकार के असहिष्णु प्रतिक्रिया की है कि, वह एक आसान आलोचना से भी असहज हो जा रही है।
आज संसद में ' आलोचना राष्ट्रहित में नहीं है,' यह कह कर वित्तमंत्री ने इस बात का संकेत दे दिया कि, बोलना ठीक नहीं है। राहुल बजाज का बोलना राष्ट्रहित में नहीं है, जेएनयू के छात्रों का बोलना राष्ट्र हित मे नहीं, उत्तराखंड के आयुर्वेदिक कॉलेज के छात्रों का फीसवृद्धि के विरोध मे बोलना राष्ट्रहित में नहीं है, एम्स के छात्रों का फीसवृद्धि के विरोध में एकत्र होना राष्ट्रहित में नहीं है, कश्मीर में चार महीने से पाबंदी में फंसे उन नागरिको के पक्ष में बोलना राष्ट्रहित में नहीं है, मज़दूरों, किसानों, गरीबो, की बात कहना राष्ट्रहित में नहीं है तो फिर राष्ट्रहित है क्या ?
वातानुकूलित आरामदेह कक्ष में एक पूंजीवादी व्यवस्था के ही अंग एवं देश के अग्रणी पूंजीपति और मानेसर के होंडा कारखाने के बाहर सर्दियों में अपनी मजदूरी के लिये लड़ रहे मजदूर, इन दोनों की ही अभिव्यक्ति से सरकार को खतरा क्यों हो रहा है ? अजीब युग्म बन गया है यह । सरकार को यह बताना चाहिये कि आखिर राष्ट्रहित क्या है ? चुप्पी, घुटन, सत्ता की ठकुरसुहाती, यही सब राष्ट्रहित है क्या ? सरकार राष्ट्र नहीं है और सरकार के खिलाफ बोलना, लोकतांत्रिक रास्ते से अपनी बात कहने के लिये एकत्र होकर प्रदर्शन करना एक संवैधानिक अधिकार है राष्ट्रद्रोह नहीं है।
दरअसल पूंजीवाद केवल लाभ और सब कुछ समेटने के सामान्य सिद्धांत पर काम करता है। शुभ लाभ ही उसका प्रथम ध्येय है। लाभ के लिये सत्ता का साथ ज़रूरी है। सत्ता को भी अपने अस्तित्व के लिये धन चाहिये। धीरे धीरे कुछ चहेते पूंजीपतियों और सत्ता का गठजोड़ एक नए प्रकार के पूंजीवाद को जन्म देता है जिसे अंग्रेजी में क्रोनी कैपिटलिज्म और हिंदी में गिरोहबंद पूंजीवाद कहते हैं। जब पूंजीवाद का यह स्वरूप आकार लेने लगता है तो सत्ता इस गिरोहबंद पूंजीवाद को लगातार मज़बूत करने के चक्कर मे जनविरोधी हो जाती है।
आज यही हो रहा है। ऐसा बिल्कुल नहीं थी यूपीए की सरकारें जनवादी और पूंजीवाद विरोधी सरकारें थी। वे भी दंक्षिणपंथी पूंजीवाद के नक़्शे कदम पर ही थीं। पर यूपीए के मुख्य घटक कांग्रेस का विकास ही सत्याग्रह, धरना प्रदर्शन से हुआ है तो उसे यह सब चीजें असहज नहीं करतीं है और वह इनकी ताक़त को जानती भी है । इसके विपरीत संघ और संघ की विचारधारा का विकास जनवादी आंदोलनों के माध्यम से नहीं हुआ है। वे एक रेजीमेंटेशन के अनुसार विकसित हुए हैं, जहां प्रमुख ही सबकुछ हैं, और अनुशासन, लग्भग दमन में बदल जाता है, और इसी से भाजपा भी थोड़ा बहुत प्रभावित है। तभी जब भी सवाल उठता है सरकार के किसी भी कदम के बारे में तो सरकार बजाय खुल कर जवाब देने के असहज हो जाती है और सीधे इसे राष्ट्रहित का मुद्दा बना लेती है।
राष्ट्र हित के विरुद्ध और देशद्रोह ऐसे संवेदनशील आरोप हैं कि अक्सर लोग हथियार डाल देते हैं। इन्ही तिकड़मों से, राष्ट्रनिर्माण का ठेका लेने वाला गिरोह, सबको डरा कर रखता है। कभी वह पाकिस्तान से डराता है तो कभी मुसलमान से। लेकिन डर की ग्रँथि वह ज़रूर बनाये रखता है। डर का भाव एकजुट भी करता है पर वह एकजुटता अस्थायी होती है। डर के खत्म होते ही वह एकजुटता बिखर जाती है। लेकिन, डर से जो एकजुटता चाहते हैं वे इस एकजुटता का लाभ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये करते हैं, न कि जनता को भय मुक्त करने के लिये।
डर या भय, दरअसल भारतीय परंपरा और सोच के ही खिलाफ हैं। भय से मुक्त होने की हर भारतीय वांग्मय में प्रार्थना की गयी है। गीता भी निडरता की बात करती है। बुद्ध की सबसे लोकप्रिय मुद्रा है अभय मुद्रा। डरो मत। बुद्ध इसी अभय से ही निर्वाण के मार्ग की ओर जाने की बात करते हैं। उपनिषदों में विचार के निडर अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा है। कोई भी सवाल बिना डरे, बिना हिचके पूछा जा सकता है। भारतीय अवधारणा में ईश्वर से भय या खौफ खाने का कोई विधान नहीं है। ईश्वर से डर, मूलतः सेमेटिक धर्मो की अवधारणा है। भारतीय परंपरा में यह आप को नहीं मिलेगा। यहां तो ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर भी निर्द्वन्द्व भाव से जिया जा सकता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की लिखी यह कालजयी पंक्ति जो मैं उनके प्रसिद्ध उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा से उद्धृत कर रहा हूँ, पढें,
" सत्य के लिये किसी से भी न डरना, न गुरु से, न लोक से न मंत्र से। "
" सत्य के लिये किसी से भी न डरना, न गुरु से, न लोक से न मंत्र से। "
सरकार से बिना डरे सवाल करना, अपनी बात खुलकर कहना कब से राष्ट्रहित के विरुद्ध हो गया है ? यह तो यूरोपीय फासिज़्म या मध्ययुगीन निरंकुश तँत्र की नकल हो गयी ! लोग अपनी बात निर्भय होकर अपनी ही चुनी हुयी सरकार से अगर नहीं कह सकते तो यह किस प्रकार का लोकतंत्र है ? राहुल बजाज का कथन, सरकार के हित में भले ही न हो पर राष्ट्र के हित मे तो अवश्य है। जिन्होंने ग़ुलामी के वक़्त में न तो कभी सड़कों पर अहिंसक तऱीके से औपनिवेशिक दासता का विरोध किया और न ही भगत सिंह के रास्ते को सराहा, वे डर और डरा कर रहने को ही राष्ट्रहित समझ सकते है। विल्कुल यूरोपियन फासिज़्म की तरह।
© विजय शंकर सिंह
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