कानपुर के सबसे बड़े औद्योगिक घरानो में से एक के मुखिया से एक दिन एक समारोह में मुलाक़ात हुयी, तो थोड़ी चर्चा देश की अर्थव्यवस्था पर भी हुयी। नयी सरकार 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आ चुकी थी। मैंने कहा कि अब तो बिजनेस फ्रेंडली सरकार है। प्रधानमंत्री खुद भी एक विकसित राज्य गुजरात के सीएम रह चुके हैं। वे विदेश यात्राएं भी खूब कर रहे हैं। अब तो विदेशी निवेश आएगा ही। देश का औद्योगिक स्वरूप भी निखरेगा। उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, " गोलगप्पे वाला भी अपना ठेला उंस चौराहे पर नहीं लगाता है जहां रोज रोज झगड़े होते हैं। " कुछ और व्यापारी मित्र थे वहां। आयोजन भी व्यापारियों का ही कमला रिट्रीट में था। सबने हंस दिया। उन्होंने यह बात दो साल पहले कही थी, और यूपी के संदर्भ में कही थी। उनके कहने का आशय यह था कि, आर्थिक निवेश, औद्योगिक उत्पादन में वृध्दि औऱ आर्थिक समृद्धि के लिये आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था का सुदृढ होना ज़रूरी है। जब तक देश की कानून व्यवस्था का वातावरण सामान्य और शांतिपूर्ण नहीं हो सकता तब तक औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां सामान्य रूप से नहीं चल पाती हैं। एक संशय की स्थिति बनी रहती है, जो व्यापारी या उद्योगपति को कोई नया प्रयोग या उद्योग खड़ा करने के लिये मानसिक रूप से रोकता है। जब यह बात बेहद कम पूंजी का गोलगप्पे वाला समझता है तो उस आयोजन में तो बड़े व्यापारी और उद्योगपति जिनका बहुत बड़ा निवेश लगता है, वे तो सतर्क और सजग रहेंगे ही।
किसी भी सरकार की पहलीं प्राथमिकता, कानून व्यवस्था होती है। राज्य या सरकार की अवधारणा ही जनता को निरापद और व्यवस्थित रूप से जीने के उद्देश्य से ही की जाती है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए कानून बनाये जाते हैं, उन्हें लागू करने के लिये तंत्र या सिस्टम का विकास होता है। जब तक जन जीवन सामान्य नहीं रह पाएगा तब तक आर्थिक प्रगति की बात सोची भी नहीं जा सकती है। यह सब मिलजुलकर कानून और व्यवस्था के नाम से कहा जाता है। अपराध नियंत्रण, अपराध अन्वेषण और जनता की सुरक्षा आदि सभी बातें मोटे तौर पर कानून व्यवस्था के ही अंग हैं। इसीलिए जब भी सरकार बदलती है तो पीएम या सीएम का पहला बयान ही यही आता है कि क़ानून व्यवस्था ठीक की जाएगी। शांति का वातावरण रहेगा। चूंकि कानून व्यवस्था, राज्य का विषय है, अतः राज्य के हर चुनाव में यह विषय एक प्रमुख मुद्दा भी बनता है और इसी विषय पर सरकारें गिरती भी हैं और चुनी भी जाती हैं।
अब जरा 2014 के चुनाव के समय की स्थिति को देखें। 2014 में भाजपा सरकार यूपीए 2 के भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे के एन्टी करप्शन मूवमेंट से उत्पन्न व्यापक जन समर्थन के बल पर आयी थी। तब का भाजपा का संकल्पपत्र आर्थिक वादों और सामाजिक समरसता के आश्वासनों से भरा पड़ा था। सबका साथ, सबका विकास इनका प्रिय बोधवाक्य था। अब उसमे एक शब्द और जुड़ गया, सबका विश्वास। पर अपने ही संकल्पपत्र 2014 में दिए गए वादों पर देश को आर्थिक गति देने के लिये, सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। बल्कि कुछ ऐसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय सरकार द्वारा लिए गए जिससे आर्थिक स्थिति बिगड़ती ही चली गयी और अब हालत यह हो गयी है कि देश एक गंभीर आर्थिक मंदी के दौर में पहुंच गया है। अब इस संकट से उबरने के लिये न तो सरकार में प्रतिभा है, न इच्छाशक्ति, न कौशल और न ही कोई दृष्टि। अब सरकार और सत्तारूढ़ दल सामाजिक उन्माद के अपने पुराने और आजमाए हुये मुद्दों पर लौट आये है। आर्थिकी अब नेपथ्य में है और सामने केवल सत्तारूढ़ दल के पोलिटिकल एजेंडे हैं जो दुर्भाग्य से विभाजनकारी हैं।
2014 के चुनावी मुद्दे और तब के संकल्पपत्र में जो बात कही गयी थी, वह सरकार ने तभी छोड़ दी जब वह सत्ता में आयी। सत्ता में आते ही सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल लाने का प्रयास किया, जो पूरी तरह से पूंजीपतियों के हित मे था। लेकिन प्रबल विरोध के कारण वह किसान विरोधी बिल वापस हो गया। यह एक संकेत था कि सरकार के अर्थनीति की दिशा क्या होगी। भाजपा मूलतः भारतीय जनसंघ का ही नया अवतार है। जनसंघ हो या अब भाजपा दोनों की कोई स्पष्ट आर्थिक दृष्टि रही ही नहीं है। क्योंकि आर्थिक आधार पर इन दोनों दलों ने कभी कोई चिंतन किया ही नहीं है। जब भाजपा बनी तो उसे गांधीवादी समाजवाद के पदचिह्नों पर चलने वाला दल बताया गया। पर यह गांधीवाद समाजवाद क्या बला है यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। हालांकि भाजपा के थिंक टैंक से जुड़ा एक स्वदेशी आंदोलन ज़रूर अस्तित्व में है, जो कभी कभी भारतीयता की बात करता रहता है। लेकिन यह आंदोलन न तो सरकार पर कोई दबाव डाल पाता है और न ही सरकार उसकी कुछ सुनती है। यह गांधी जी की विचारधारा की नकल भी लगता है। स्वदेशी का विचार ठीक है, यह आत्मनिर्भरता की बात करता है, पर यह विचार थिंकटैंक के टैंक में ही बना रहा, इसे सरकार ने व्यवहारिक स्तर पर उतारने की कोई कोशिश नहीं की। मोटे तौर पर भाजपा की अर्थनीति पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जो निजीकरण की बात करती है, की रही है। या यूं कहें कि 2014 के बाद जैसे जैसे सत्ता केंद्रित होती गयी, वैसे वैसे ही इसकी आर्थिक नीतियां पूंजीवाद के ही एक अन्य संकीर्ण रूप क्रोनी कैपिटलिज्म या गिरोहबंद पूंजीवाद के रूप में सिमटती गयी। सरकार या यूं कहें सरकार में कुछ चुनिंदा लोगों और कुछ पूंजीपतियों का एक गठजोड़ गिरोहबंद पूंजीवाद कहलाता है जो परस्पर स्वार्थ, हित और जनविरोधी होता है।
किसी भी देश की आर्थिक प्रगति उस देश के शांतिपूर्ण वातावरण पर निर्भर करती है। एक तरफ तो देश के सामने विकास दर को बढ़ाने का सरकार का संकल्प था, लोगो को उम्मीदें भी इस सरकार से थीं, पर दूसरी तरफ देश का माहौल एक न एक नए नए तमाशे भरे मुद्दे से बिगड़ने लगा। सरकार का मुख्य उद्देश्य देश की आर्थिक प्रगति से हट कर अपने पोलिटिकल एजेंडे की ओर शिफ्ट हो गया। बीफ और गौरक्षा के अनावश्यक मुद्दे पर, गौगुंडो द्वारा की जाने वाली मॉब लिंचिंग, उसका सरकार के मंत्रियों द्वारा खुलकर महिमामंडन, लव जिहाद और घर वापसी के तमाशों, से लेकर आज तक इनकी एक मात्र कोशिश यही रही है कि हर अवसर पर हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिक उन्माद फैले। 2014 के बाद के सरकार के चहेते टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित किए गए कार्यक्रमों को देखिए। रोज़ ऐसे ही कार्यक्रम प्रसारित किए गए और अब भी किये जा रहे हैं, जिससे लोगों के जेहन में हिंदू मुसलमान से ही जुड़े मुद्दे बने रहें और जनमानस के दिल दिमाग की ट्यूनिंग इसी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर बढती रहे। राजकृपा से अभिषिक्त गोदी मीडिया के चैनलों ने रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर पिछले पांच सालों में कोई भी कार्यक्रम चलाया हो, यह याद नहीं आ रहा है। क्योंकि ऐसे मुद्दे सरकार को असहज करते हैं। उससे सवाल पूछते हैं। सरकार की जवाबदेही तय करते हैं और सरकार को कठघरे में ठेल देते हैं। लेकिन सरकार को असहज होते भला कैसे देख सकते हैं ये दुंदुभिवादक !
गिरती क़ानून व्यवस्था और सत्तारूढ़ दल के पोलिटिकल एजेंडे के बीच 2016 मे सरकार ने नोटबंदी जैसे कदम की घोषणा कर दी। सरकार का गुप्त उद्देश्य इस कदम को लेकर जो भी रहा हो, पर सरकार ने यह ज़ाहिर किया कि, इस कदम से, नक़ली नोट, आतंकवाद, और कालेधन की समस्या हल हो जाएगी। पर आज तीन साल बाद भी यह तीनों समस्याएं जस की तस हैं, बल्कि इसके विपरीत देश की अर्थव्यवस्था को इतना आघात लगा कि, इससे देश की आर्थिकी लुढ़कती चली गयी और अब भी उसके उबरने के आसार दूर दूर तक दिख नहीं रहे हैं।
हाल ही में, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक शोधपत्र प्रस्तुत हुए कहा कि
" देश की अर्थव्यवस्था आईसीयू की तरफ बढ़ रही है। वहीं एनबीएफसी कंपनियों में जो संकट है, वो एक भूकंप जैसा है। ट्विन बैलेंस शीट (टीबीएस) संकट की दूसरी लहर इकोनॉमी को प्रभावित कर रही है। 2004 से 2011 तक स्टील, पावर और इन्फ्रा सेक्टर के कर्ज जो कि एनपीए में बदल गए उन्हें टीबीएस-1 कहा है। यह सामान्य मंदी नहीं है, बल्कि इसे भारत की महान मंदी कहना उचित होगा, जहां अर्थव्यवस्था के गहन देखभाल की जरूरत है। 2017-18 तक रियल स्टेट सेक्टर के 5,00,000 करोड़ रुपये के लोन में एनबीएफसी कंपनियों का हिस्सा है।यह संकट निजी कॉरपोरेट कंपनियों की वजह से आया है। "
सुब्रमण्यम आगे कहते हैं कि,
" पद पर रहते हुए 2014 में भी सरकार को टीबीएस को लेकर के मैंने चेतावनी दी थी, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। पहले चरण में बैंकों को एनपीए बढ़ने से मुश्किलें हुई थीं, वहीं अब दूसरे चरण में नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों और रिएल एस्टेट फर्मों के नकदी संकट से है। आईएलएंडएफएस का संकट भूकंप जैसी घटना थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि आईएलएंडएफएस पर 90,000 करोड़ रुपये के कर्ज का खुलासा हुआ, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इससे बाजार प्रभावित हुआ और पूरे एनबीएफसी सेक्टर को लेकर सवाल खड़े हो गए।"
सुब्रमण्यम इसी सरकार के विश्वस्त थे और उन्हें बड़ी उम्मीदों से सरकार ने अमेरिका से लाकर अपना आर्थिक सलाहकार बनाया था। पर वे मतभेद के चलते निजी कारणों से त्यागपत्र दे कर वापस लौट गए।
2014 में जब सरकार आयी तो इसने विदेशी निवेश को एक बड़ा मुद्दा बनाया। प्रधानमंत्री ने दुनियाभर का भ्रमण किया। दूसरे अन्य औद्योगिक देशों के प्रमुख भी आये। उम्मीद भी बंधी, पर विदेशों से कोई उल्लेखनीय निवेश नहीं आया। प्रसिद्ध फ्रांसीसी अर्थशास्त्री गॉय सोरमैन ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुये कहा है कि
" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सुधार बीच में ही रुक गए इस वजह से दुनियाभर के निवेशक भारत से दूरी बना रहे हैं। भारत सरकार ने नए उद्यमियों के समर्थन में कई ऐसे कदम उठाए लेकिन, राजनीतिक मामले पर ध्यान केंद्रित करने के वजह से यह सुधार अचानक रुक गए। इस वजह से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। "
वे आगे कहते हैं, कि
" भारत और विदेशी निवेशक डरे हुए हैं और इस वजह से वह भारत में निवेश करने से पीछे हट रहे हैं। "
फ्रेंच अर्थशास्त्री सोरमैन ‘इकोनॉमिक डज नॉट लाइ’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक सहित अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। उनके अनुसार,
" वर्तमान में भारत में संरक्षणवाद का व्यापक असर है। मोदी ने शुरूआत में नए भारतीय उद्यमियों को बढ़ावा दिया और एक राष्ट्रीय बाजार का निर्माण किया। लाइसेंस राज को खत्म किया। उन्होंने भ्रष्टाचार पर प्रहार किया और मेक इन इंडिया को बढ़ावा दिया। पर इतना सब कुछ करने के बाद पीएम मोदी के आर्थिक सुधार बीच में ही रुक गए। वह अपने इकॉनामिक एजेंडा को भूल गए और राजनीतिक मामलों पर ध्यान केंद्रित कर दिया। इससे भारत और भारत सरकार की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा। मैं हिंदुत्व और नागरिकता कानूनों पर मोदी सरकार के फैसलों के अच्छे या बुरे कारणों के बारे में अनुमान नहीं लगा सकता। ऐसे मुश्किल हालातों पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैश्विक स्लो डाउन की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर की तरफ सभी का ध्यान खींचना चाहता हूं। निवेशकों और संस्थाओं के बीच एक विश्वास की डोर होती है जिसकी मौजूदा समय में राष्ट्रीय स्तर पर कमी है। यह निश्चित ही निराशजनक है और इसमें बदलवा की जरूरत है। "
ऊपर मैंने दो प्रमुख अर्थशास्त्रियों के उद्धरण दिए हैं। यह उद्धरण यह बताते हैं कि देश की सरकार देश की आर्थिक दुरवस्था के प्रति सजग नहीं है। जिस प्रकार से विवादास्पद कानून लाये जा रहे हैं, उनसे सरकार की प्राथमिकता का पता चलता है। अब कुछ व्यथित करने वाले आंकड़ों पर नज़र डालते हैं।
● भुखमरी और कुपोषण के संदर्भ में भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी पिछड़ा हुआ है। दो अंतरराष्ट्रीय गैर-मुनाफा संस्थाओं द्वारा जारी की गई 117 मुल्कों की इस सूची में भारत 102वें स्थान पर है।
● ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मामले में देशों को 100 सूत्री 'सीवियरिटी स्केल' (गंभीरता पैमाना) पर परखा जाता है, जिसमें शून्य (कोई भुखमरी नहीं) को बेहतरीन स्कोर माना जाता है, और 100 बदतरीन स्कोर होता है. रिपोर्ट के मुताबिक, 30.3 के स्कोर के साथ भारत भुखमरी के ऐसे स्तर से जूझ रहा है, जिसे गंभीर माना जाता है।
● भारत, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में वर्ष 2014 में 55 वें स्थान पर मौजूद था, अब 2019 में 102 वें स्थान पर पहुंच गया है।
● वर्ष 2014 में भारत 76 मुल्कों की फेहरिस्त में 55 वें नम्बर पर था। वर्ष 2017 में बनी 119 मुल्कों की फेहरिस्त में उसे 100 वां और वर्ष 2018 में वह 119 देशों की सूची में 103 वें स्थान पर रहा था। इस साल की रिपोर्ट में 117 देशों के सैम्पलों का आकलन किया गया था, और भारत को 102 वां स्थान मिला।
● जबकि, पाकिस्तान 94वें स्थान पर है, बांग्लादेश 88 वें और नेपाल को सूची में 73 वां स्थान हासिल हुआ है।
यह सूचकांक, चार पैमानों पर आकलित किया जाता है, कम पोषण, चाइल्ड वेस्टिंग (पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जिनका वज़न उम्र के लिहाज़ से कम है), चाइल्ड स्टंटिंग (पांच साल से कम उम्र के बच्चे, जिनकी ऊंचाई उम्र के लिहाज़ से कम है) और पांच साल से कम आयु में शिशु मृत्यु दर।
अब कुछ सकारात्मक रिपोर्ट भी हैं जो यह उम्मीद बंधाती हैं कि अर्थव्यवस्था आगे चल कर गति पकड़ेगी। ब्रिटेन स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक लीग टेबल के अनुसार,
‘ अब भारत के 2026 में जर्मनी को पीछे छोड़कर चौथी तथा 2034 में जापान को पछाड़कर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का अनुमान है.’’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के भारतीय अर्थव्यवस्था को 2024 तक 5,000 अरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के सवाल पर रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘
‘भारत पांच हजार अरब डालर की जीडीपी 2026 में हासिल कर लेगा -- सरकार के तय लक्ष्य के मुकाबले दो साल बाद.’’
उद्योग एवं वाणिज्य संगठन भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने रविवार को कहा कि वैश्विक व्यापारिक तनावों में कमी आने के साथ ही सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये कदमों से 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आने की उम्मीद है।
आशावाद एक बहुत अच्छा भाव है। लेकिन आशावाद के फलीभूत होने के लिये सकारात्मक आधार भी चाहिए। मैं गिरती जीडीपी, कम होता हुआ मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ रेट, घटता जीएसटी संग्रह, बढ़ती बेरोजगारी, आदि के आंकड़े नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि वे आंकड़े सार्वजनिक रूप से बहुप्रचारित हैं और पहले से ही चिंताजनक दौर में आ चुके हैं। आज सबसे बड़ा सवाल है कि इस मंदी को कैसे दूर किया जाय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे विश्वास बहाली हो, और कैसे जनता में यह भरोसा जमे कि, सरकार अब देश की आर्थिकी को सुधारने के लिये सच मे कृतसंकल्प है।
वर्तमान समय मे नागरिकता कानून, एनआरसी और जनगणना रजिस्टर को लेकर देश मे भ्रम की स्थिति है। पहले यह केवल असम और नॉर्थ ईस्ट की समस्या थी और वहीं इस आंदोलन का एपीसेन्टर था। पर अब यह आंदोलन देशव्यापी हो गया है। देश मे हर जगह अपने अपने तरीके से लोग इस आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। सरकार के मंत्रियों के बयान अलग अलग सुर के हैं। गृहमंत्री का कहना है एनआरसी पूरे देश मे आएगी, वहीं प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एनआरसी पर कोई चर्चा ही नहीं हुयी है। प्रकाश जावेडकर कह रहे हैं, की एनपीआर का एनआरसी से कुछ भी लेना देना नहीं है, वहीं रविशंकर प्रसाद कहना है कि इसके आंकड़ों का उपयोग एनआरसी में हो भी सकता है और नहीं भी हो सकत्व है। इस असमंजस भरी स्थिति के कारण जनता में अफवाहें भी फैल रही हैं और सामाजिक सद्भाव को भी नुकसान पहुंच रहा है। दुनियाभर के विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थानों, मानवाधिकार संगठनों और लोगों ने इस कानून का विरोध किया और अब भी कर रहे हैं, वे इस कानून को भारत की अवधारणा के खिलाफ बता रहे हैं, जो है भी।
इस आंदोलन की व्यापकता ने देश के वातावरण को अशान्तिपूर्ण बना दिया है। दुनिया के ओपिनियन मेकर अखबारों में इस आंदोलन के बारे में छपने वाली खबरों ने देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया है। यूएस, यूके जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को भारत न जाने या समझबूझ कर जाने की सलाह दी है। जब सामान्य पर्यटन की यह दशा है तो विदेशी पूंजी निवेश की क्या उम्मीद की जाय । विदेशी निवेश तो दूर की बात है देशी निवेश भी सामने नहीं आ रहा है। बैंकिंग सिस्टम, बेशुमार एनपीए, घोटाले और कर्ज लेकर भाग जाने वाले पूंजीपतियों के धोखे से पहले से ही त्रस्त है। बाजार में मांग कम हो गयी है। मंदी है। पर सरकार का एक भी ऐसा कदम नहीं दिख रहा है जिससे यह पता चले कि सरकार इन सारे संकटों से उबरने के लिये सोच भी रही है। रिज़र्व बैंक, आईएमएफ, मूडी आदि एजंसियां, मंदी की बात कह रही हैं। वे समय समय पर चेतावनी भी दे रही हैं। पर सरकार या तो कुछ सोच ही नहीं पा रही है या वह अंधेरे में तीर मार रही है।
© विजय शंकर सिंह
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