27 जुलाई को एक खबर, एसपी शामली की कांवरियों की सेवा यानी पैर दबाते हुए फ़ोटो की वायरल हुयी। उस पर जो कमेंट उनमे एक कमेंट यह भी था कि क्या पुलिस का यह मानवीय चेहरा नहीं कहा जा सकता है ? उस फ़ोटो पर जो मैंने टिप्पणी की उसे पहले यहां पढिये,
" शामली के एसपी, अजय कुमार, कांवरियों का पांव दबा रहे हैं औऱ तलवे पर मसाज कर रहे हैं। उनका यह कृत्य न तो उनके पद, न विभाग, और न सरकार की ही गरिमा के अनुकूल है।
एक पुलिस अफसर होने के नाते यह उनका दायित्व और कर्तव्य है कि वह अपने जिले से सभी कांवरियों को बिना कोई नुकसान पहुंचे पार कराएं। यह मेला हर साल सावन में लगता है और जैसे जैसे भीड़ बढ़ती जा रही है, उसी की तुलना में पुलिस की ड्यूटी और इन्तेज़ामात भी बढ़ते जा रहे हैं।
अगर यह कांवरिया थक गया है उसे सेवा सुश्रुषा की ज़रूरत है तो वहां अस्पताल होगा और न हो तो किसी निजी व्यक्ति को बुला कर यही काम कराया जा सकता है जो कप्तान साहब बहादुर अयाँ होकर कर रहे हैं।
अगर एसपी साहब यह सेवा धर्म और आस्था के अतिरेक में कर रहे हैं तो उन्हें छुट्टी लेकर बिना वर्दी में यही काम करना चाहिये था। लोग छुट्टी लेकर धर्म आदि के काम करते रहते हैं, यह बिलकुल आपत्तिजनक नहीं है।
पर यह फोटो जो दुनियाभर में घूम रही है वह पुलिस का मानवीय चेहरा नही दिखा रही है बल्कि पुलिस का तमाशा बना रही है। "
मानवीय चेहरा अगर दुख में पड़े किसी की मदद करना है तो पुलिस का उद्देश्य ही है कि वह दुख में सबकी मदद करती रहे। अभी मुंबई के पास बदलापुर रेलवे स्टेशन पर, महालक्ष्मी एक्सप्रेस फंस गयी थी। पानी मे फंसी उस ट्रेन से सैकड़ो लोगों को सुरक्षित निकाला गया और निकालने के लिये जो बल एनडीआरएफ लगा वह भी वृहत्तर पुलिस का ही अंग है। एनडीआरएफ तो बचाव कार्य मे दक्ष बल है तो वह तो बुलाया ही गया होगा, पर उसके पहले से ही महाराष्ट्र पुलिस के लोग राहत पहुंचा कर सहायता कर रहे थे।
पुलिस का मानवीय चेहरा यही है कि हम जनता के दुख दर्द में खड़े हों। कानून ने जो अधिकार हमे दिए हैं, उनका कानूनी तरह से पालन करें। थाना जिससे आम आदमी भय की दृष्टि से देखता है भय और आशंका मुक्त होकर जब वहां जाकर रपट लिखा, अपनी बात कह सुन, अपेक्षित कानूनी उपचार पाकर जब संतुष्ट मन से बाहर आएगा तो उसका यह तोष ही पुलिस का मानवीय चेहरा है।
सड़क से पीड़ित को अस्पताल पहुंचा देना, किसी अपाहिज को सड़क पार करा देना, संकट में पड़े व्यक्ति को जान पर खेल कर बचा लेना एक मानवीय चेहरा तो है ही पर यह कहीं न कहीं पुलिस का कर्तव्य भी है। जनता ऐसी पुलिस को पसंद करती है। जनता पुलिस में नायकत्व ढूंढती है। जो उनके कष्ट के समय नायक की तरह खड़ा रहे। वह पुलिस में सिंघम ढूंढती है। पर सिंघम पर्दे की सिनेमाई पुलिस तो हो सकती है पर वह असल जीवन मे पुलिसिंग नही है। पर जनता ऐसी पुलिस भी चाहती है जो उसके साथ अच्छा व्यवहार करें, उसकी बात सुनें और जो उसे रिलीफ मिल सकती है वह दे। वे अफसर जिनके बारे में यह धारणा बन जाती है कि वह वही काम करेगा जो कानून की नज़र में उचित होगा तो उससे इलाका खुश भी रहता है यह अलग बात है कि कुछ दलाल और छुटभैये नेता उस अफसर से नाराज़ रहते हैं और उसे अस्थिर करने के मौके ढूंढते रहते हैं।
सही मायने में, पुलिस का मानवीय चेहरा यही है कि वह कानून को कानून के अनुसार बिना किसी लाग लपेट में आये, लागू करे। लेकिन यह पूरी तरह हो, संभव भी नहीं है। पुलिस भी सार्वजनिक जीवन मे है और सार्वजनिक जीवन के जो गुण दोष हैं उससे मुक्त नहीं है। पुलिस जिस तँत्र के अधीन कार्य करती है, वह तँत्र राजनीतिक लोकतंत्र का है। इसमे जनता और जनप्रतिनिधि का अपना महत्व होता है। वे अक्सर ऐसे काम कराना चाहते हैं जो कहीं न कहीं कानून के उल्लंघन में भी होता है। पर इन्ही मुश्किल राहों से पुलिस अफसर को गुजरना होता है। पर इन सब ऊहापोह, सिफारिशें, बेजा दबावों के बावजूद भी पुलिस अपना काम तो कर ही रही है। जब किसी मामले में बेहद विरोधाभासी दबाव आ जांय तो ऐसे मामलों में जो कानून की किताब कहती है उसी का पालन करना श्रेयस्कर रहता है। बिलकुल गीता के निष्काम भाव वाले संदेश के अनुसार !
अब एक संस्मरण पढ़ लें। मैं एक बार कुंभ की ड्यूटी में प्रयाग कुंभ में था। मुख्य स्नान मौनी अमावस्या का था। उस दिन की ड्यूटी बहुत कठिन होती है। पूरी दुनिया उस दिन नहा रही थी, और हम सब घोड़े की पीठ पर थे। देर रात हो गयी तब जाकर फुरसत मिली। अंत मे जब भीड़ कम हो गई तो हम कुछ अधिकारियों ने भी कुंभ स्नान किया।
दूसरे दिन जब मुख्य स्नान पर्व बीत गया तो मैं, एसएसपी कुंभ सर के साथ, मेले में आये देवरहवा बाबा के आश्रम पर गया । यह किस्सा 1981 82 के कुंभ का है। एसएसपी साहब बाबा के यहां जाते रहते थे। बाबा ने बात चीत के दौरान मुझसे पूछा कि
" बच्चा मेला कैसा रहा। "
मैंने कहा कि,
" बाबा बहुत भीड़ थी, सब ठीक से बीत गया, पर हम तो मौनी पर मुहूर्त में नहा ही नही सके। यहीं रहे और नहा नहीं पाए । "
बाबा ने कहा कि
" तुम्हे नहाने की ज़रूरत ही नही है। यह जो लाखो लोग यहां से स्नान कर सुरक्षित अपने घर चले जा रहे हैं इनके पुण्य का एक एक अंश भी यदि तुम्हे मिलेगा तो वह किसी के भी संचित पुण्य के अंश से अधिक होगा।"
पुण्य का अंश मिलता है या नहीं और मिलता भी है तो किस सर्वर में जा कर संचित होता है, यह मुझे पता नहीं। पर बाबा ने जो कहा उसका एक ही उद्देश्य है कि जिस काम के लिये हम बने हैं उसी को ढंग से निपटा लें तो वही हमे पुण्य देगा।
एसपी शामली के इस कृत्य में छिपे मानव मूल्यों के प्रति उनके भाव की प्रशंसा की जा सकती है पर यह सारा मानव मूल्य तो उनकी ड्यूटी के लिये जो आदेश पुस्तिका छपती है उसमें उन्होंने ही लिख रखा होगा। मेले में पुलिस प्रबंधन का जो आदेश निकलता है उसमें ड्यूटियों के विवरण के साथ, पुलिसजन ड्यूटी पर क्या करें और क्या न करें इन सबका उल्लेख रहता है। उसमें मानवीय मूल्यों का भी समावेश रहता है।
अक्सर आस्था की बात भी वर्दीधारी के समक्ष उठती है। वर्दी में किसी भी धार्मिक आस्था का विषय ही गौड़ हो जाता है। अगर यूनिफॉर्म में धार्मिक आस्था जागृत हो रही है तो इसे ड्यूटी के लिये बाधक समझा जाना चाहिये। कल्पना कीजिए किसी सत्संग, मंदिर, पर्व आदि की ड्यूटी पर लगी फोर्स सारा कामधाम छोड़ कर उसी भगवद्भक्ति में लीन हो जाय तो क्या होगा ? फिर तो हो चुकी ड्यूटी। कभी आप प्रधानमंत्री की रैली में पीएम के भाषण देते समय उनके पीछे खड़े एसपीजी के अफसरों को देखिए। पीएम का भाषण चाहे जैसा हो उनकी निगाह और मुख मुद्रा भाषण और माहौल से नितांत अप्रभावित रहती है। यह अप्रभावित रहना भी एक योग ही समझिए ! कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि वर्दी में भी वह हिंदू मुसलमान सिख आदि है तो वह अपनी आस्था कहाँ ले जाया। मेरा साफ मत है कि वर्दी में आस्था पर नियंत्रण आवश्यक है। यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि धर्म या बेहतर होगा यह कहा जाय कि धर्म के कर्मकांड या दिखावे की तरफ आजकल लोग अधिक संख्या उन्मुख हो रहे हैं और कुछ को वर्दी में आस्था प्रदर्शन करना अच्छा लग रहा होगा। पर अधिकांश जनता इसे अच्छा नहीं मानती है, वह एक चाक चौबंद और कर्तव्यनिष्ठता से परिपूर्ण पुलिस चाहती है और पसंद करती है। वह पाखंड पसंद नहीं करती है।
जब हम दंगो के दौरान ड्यूटी पर रहते हैं तो माहौल साम्प्रदायिक रूप से बहुत आवेशित रहता है। लेकिन ड्यूटी पर जो भी पुलिस बल रहता है वह धर्म देख कर तैनात नहीं किया जाता है। सामान्यतया जिसकी ड्यूटी भी लगती है वह किसी न किसी धर्म को मानने वाला ही होगा। दंगे के दौरान ड्यूटी लगाते समय यह नहीं देखा जाता है, कौन किस धर्म का है, बल्कि यह देखा जाता है कि कौन किस उपद्रव विंदु के लिये अधिक कारगर और उपयोगी होगा। क्योंकि हमें यह विश्वास रहता है कि जो भी जहां ड्यूटी देगा वह वही काम करेगा जिसके लिये उसे वहां भेजा गया है , और धर्म और ईश्वर के आस्थाजनित मनोभाव से मुक्त रहेगा। इसलिए पुलिस में ड्यूटी पर जाने के पूर्व ब्रीफिंग यानी ड्यूटी समझाई जाती है। वह, जो भी उपद्रवी है, चाहे किसी भी धर्म का हो, उन सबके विरुद्ध समान भाव से कार्यवाही करेगा,ऐसा समझा जाता है और अपवादों को छोड़कर ऐसा होता भी है।किसी भी धर्म का हो इससे उस ड्यूटी का कोई सरोकार नहीं रहता। वहां एक ही सरोकार रहता है कि शांति बने और स्थिति सामान्य हो जाय।
पुलिस का धर्म के आधार पर प्रशंसा या निंदा करना और उसे उस खाने में बांट कर देखना बेहद खतरनाक होगा। ड्यूटी के दौरान पुलिसजन की आस्था केवल और केवल कानून में रहनी चाहिये, न कि किसी अन्य में।
© विजय शंकर सिंह
साफ़ और स्पष्ट लिखा।
ReplyDeleteबेहतरीन है यह...
ReplyDeleteपुलिस का मानवीय चेहरा ही दिखाना है तो वास्तव में वे बस इतना कर लें कि ड्यूटी के दौरान इंसान को इंसान समझ कर पेश आ जाया करे.. यही काफी है.
सही, स्पष्ट और बेबाक विवेचन!
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