Saturday, 6 July 2019

पूंजीवाद की रणनीति, मिश्रित अर्थव्यवस्था और निजीकरण का उन्माद - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

" निजीकरण की एक तयशुदा रणनीति होती है, पहले धन देना बंद किया जाता है, इससे उनका काम बंद होने लगता है, फिर जनता असन्तुष्ट और क्रोधित होने लगती है और तब उसका निजीकरण कर दिया जाता है।'
( नोम चोम्स्की )

नोम चोम्स्की एक प्रमुख भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, राजनैतिक एक्टीविस्ट, लेखक, एवं व्याख्याता हैं। संप्रति वे मसाचुएटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर हैं। चोम्सकी को जेनेरेटिव ग्रामर के सिद्धांत का प्रतिपादक एवं बीसवीं सदी के भाषाविज्ञान में सबसे बड़ा योगदानकर्ता, माना जाता है।

नोम चोम्स्की के इस सूत्र या अवधारणा को भारत मे सरकारी क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों के वर्तमान हालात से मिला कर देखें। पिछले कुछ सालों में नवरत्न सरकारी कम्पनियां, जैसे ओएनजीसी, गैल, एचएएल, बीएसएनएल, कैसे सरकारी उपेक्षा और कुछ चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने और उनका एहसान उतारने के लिये गिरोहबंद पूंजीवाद की तकनीक के सहारे धीरे धीरे कमज़ोर की जा रही हैं। यही तकनीक यूपीए सरकार के समय निजी एयरलाइंस को लाभ पहुंचाने के लिये अपनायी गयी और एयर इंडिया का भट्ठा बैठा। अब तो यह तकनीक भी छोड़ दी गयी है। सरकार ने तो अच्छी खासी लाभ कमाने वाली एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पांच एयरपोर्ट को अपने सबसे चहेते उद्योगपति गौतम अडानी को पचास साल के लिये सौंप दिया है।

अगर वे कम्पनिवां, भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और कामगारों के निठल्लेपन, जैसा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लिए आम तौर पर कहा जाता है, तो भी सरकार इस दोष से बच नहीं सकती कि उसने ऐसे कुप्रबंधक, भ्रष्टाचारी और निठल्ले लोगों के खिलाफ कोई प्रभावी कार्यवाही कर के इस कुप्रबंधन को दूर क्यों नहीं किया ?

आज़ादी के बाद दुनिया मे दो तरह के आर्थिक विकास के मॉडल थे। एक अमेरिकी आर्थिक विकास का मॉडल जिसने सारे काम निजी उद्योगपति करते हैं यानी जिसे प्राइवेट सेक्टर कहते हैं और दूसरा था सोवियत रूस का कम्युनिस्ट मॉडल, जिसमे सभी उद्योग सरकार के पास था। अमेरिकी मॉडल को पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था कहा जाता था और सोवियत मॉडल को कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था कहते थे। भारत मे भी आज़ादी के बाद कौन सा मॉडल अपनाया जाय, इस पर भी बहस हुयी। कांग्रेस मूलरूप से कम्युनिस्ट विचारधारा की तो नहीं थी, पर उसके विचार समाजवादी सोच के करीब थे। इसी सोच से कांग्रेस ने भूमि सुधार कार्यक्रम लागू किये, ज़मीदारी खत्म की, लोक कल्याणकारी कार्य के रूप में पंचवर्षीय योजनायें शुरू हुई।

उस समय एक राजनीतिक दल था, स्वतंत्र पार्टी। राजा जी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उसके संस्थापक थे। देश के अधिकतर राजा महाराजा और बड़े उद्योगपति उसके साथ थे। 1952 और 57 के चुनाव में उस पार्टी को अच्छा खासा समर्थन भी मिला था। यह दल, अमेरिकी खेमे में जाने का पक्षधर था और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अमेरिकी मॉडल अपनाना चाहता था। पर कांग्रेस और विशेषकर जवाहरलाल नेहरू सोवियत क्रांति से बहुत प्रभावित थे और वे पूंजीवादी मॉडल के पक्ष में नहीं थे। कांग्रेस में सरदार पटेल, नेहरू के इस मत से सहमत नहीं थे वे पूंजीवादी मॉडल की वकालत करते थे। नेहरू और पटेल में इस मुद्दे पर भी आपसी सहमति नहीं थी। पटेल के 1950 में दिवंगत हो जाने के बाद कांग्रेस में नेहरू को कोई विचारधारा के आधार पर चुनौती देने वाला नही बचा। तब नेहरू ने न तो पूंजीवादी मॉडल को पूरी तरह अपनाया और न ही कम्युनिस्ट अर्थव्यवस्था को। बल्कि उन्होंने इन दोनों अर्थ मॉडल्स के बीच का रास्ता अपनाया जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था यानी मिक्स्ड इकॉनोमी कहते हैं को शुरू किया।

जब बाजार  के पास खुद को सही करने के गुण और एडम स्मिथ के अदृश्य हाथ वाली अर्थव्यवस्था को 1929 की आर्थिक महामंदी से तगड़ा झटका लगा और अमेरिका ही नहीं पश्चिम यूरोप के कई देशो को भी उस मंदी ने अपने चपेट में ले लिया था, जिसके चलते भारी बेरोजगारी, माँग और आर्थिक गतिविधियों में कमी और उधोग- धंधों पर ताला बंदी की स्तिथि उत्पन्न हो गयी थी तब इस समझौते वादी अर्थव्यवस्था को मध्यम मार्ग के रूप में सोचा गया। महामंदी जन्य अनेक समस्याओं का समाधान, स्मिथ के अर्थशास्त्र से जब संभव नहीं हुआ तो, ब्रिटिश अर्थशास्त्री और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर जॉन मेनार्ड केस ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की विचारधारा का प्रतिपादन अपनी पुस्तक द जनरल थ्योरी ऑफ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट और मनी  द्वारा 1936 में प्रस्तुत किया।

मिश्रित अर्थव्यवस्था एक ऐसी अर्थव्य्वस्था है जो अलग-अलग  आर्थिक योजनाओं का मिश्र्ण है, जिस्में निजी क्षेत्र और राज्य मिलकर अर्थव्यवस्था का निर्देशन करते हैं; या फिर एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिस्में सार्वजनिक स्वामित्व तथा निजी स्वामित्व का मिश्रण हो; या जिस्में आर्थिक हस्तक्षेपवाद का मिश्रण मुक्त मार्केटों के सहित हो। सामान्य तौर पर मिश्रित अर्थव्यवस्था उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की विशेषता है,आर्थिक समन्वय के लिए बाजार का प्रभुत्व, लाभ प्राप्ति करने वाले उद्यम एवं पूंजी का संचय, आर्थिक गतिविधियों के सबसे महत्त्वपूर्ण संचालक शक्ति हैं। इस व्यवस्था में, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के विपरीत, सरकार समाज कल्याण को बढ़ावा देने के लिये हस्तक्षेप कर उसे लोककल्याण के ट्रैक पर टिकाए रखती है। 

एक आर्थिक आदर्श के रूप में,मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसे कि पाश्चात्य देशों के सोशल डेमोक्रेट या क्रिश्चियन डेमोक्रेट के रूप में विभिन्न राजनीतिक दलों जो आम तौर पर सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राईट के लोगों के द्वारा समर्थित हैं, स्वीकार की जाती है। इसके समर्थक, मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं को एक समझौते के रूप में समझते हैं जब, राज्य, समाजवाद और मुक्त बाजार के बीच में जिसका भी बेहतर प्रभाव है, को संतुलित किये रहता है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था की इस अवधारणा पर कई कई अर्थशास्त्रियों ने इसकी वैधता पर सवाल उठाए जब उसे कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा, समाजवाद और पूंजीवाद का मिश्रण कहा गया। एक अर्थशास्त्री लुडविग बॉन मिसेस ने अपनी पुस्तक ह्यूमन एक्शन में यह प्रतिवाद किया था कि समाजवाद और पूंजीवाद का मिश्रण कभी भी नहीं हो सकता है- या तो अर्थव्यवस्था, बाजार, पूंजी, मांग आपूर्ति के मूल सिद्धांतों पर चलेगी या राज्य द्वारा लोककल्याणकारी चैरिटी पर। मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने भी समाजवाद और पूंजीवाद के बीच एक " बीच का रास्ता " के रूप में एक मिश्रित अर्थव्यवस्था की व्यवहार्यता के ऊपर संदेह जताया है । अर्थशास्त्र की यह अकादमिक बहस अपनी जगह है पर भारत ने अपने आर्थिक मॉडल के रूप में मिश्रित अर्थव्यवस्था ही तब अपनाया। देश के आज़ादी के तत्काल बाद हुये विकास में इस मॉडल के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। आज जिन बड़ी बडी सरकारी कम्पनियों को सरकार बेचने की बात कर रही है उन कम्पनियों की देश के ढांचागत विकास में क्या भूमिका रही है यह आसानी से जाना जा सकता है।

हालांकि 1990 तक आते आते अर्थव्यवस्था का यह मॉडल असफल लगने लगा। नियंत्रित अर्थव्यवस्था की कई कमियां भी सामने आने लगीं, और देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी । दुनिया मे ग्लासनोस्त का जोर था। यह एक प्रकार का खुलापन था। न सिर्फ विचारों में बल्कि अर्थव्यवस्था में भी इसकी बात जोरों से उठी। सोवियत रूस बिखर गया था अतः पूरी दुनिया एक ध्रुवीय होने की ओर बढ़ रही है। भारत मे भी पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने खिड़कियां खोलीं और अर्थव्यवस्था मुक्त होकर आगे बढ़ी।

इसके फायदे भी हुये। लेकिन, अब आज की परिस्थितियों में, अर्थव्यवस्था पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से सिमट कर गिरोहबंद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर सिमटती जा रही है। इसका परिणाम असमानता में घोर वृद्धि के रूप में होगा। इसके संकेत मिलने लगे हैं। अर्थ व्यवस्था का आकार तो बढ़ रहा है पर क्या उसी अनुपात में, जन विकास के अन्य मापदंड जैसे, रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के क्षेत्र में, देश के आर्थिक संकेतक भी बढ़ रहे हैं या हम एक ऐसा समाज बन रहे है जहां विपन्नता के महासागर में समृद्धि के द्वीप उगते जा रहे हैं। ऐसे द्वीप समाज मे अराजकता को जन्म देते हैं और खुद भी उसी अराजकता जन्य सुनामी के सबसे पहले शिकार बनते हैं।

© विजय शंकर सिंह

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