2019 के चुनाव के बाद गठित लोकसभा में जिन नए सांसदों के भाषण की बहुत प्रशंसा हो रही है, उनमें सबसे अधिक चर्चा तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा की हो रही है। चर्चा का मुख्य विंदु है कि उन्होंने वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को फासिज़्म से संक्रमित बताया और सात लक्षणों की पहचान की। उन्होंने इन लक्षणों को वाशिंगटन डीसी में स्थित होलोकॉस्ट म्यूजियम में में लगे एक पोस्टर से लेना बताया है।
इस भाषण पर ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी ने एक कार्यक्रम किया और यह बताया कि यह भाषण वाशिंगटन मंथली के 2017 में छपे एक लेख जो मार्टिन लॉंगमैन द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के संदर्भ में लिखा गया था से चुराया गया है। ज़ी न्यूज़ की यह खबर सोशल मीडिया पर सक्रिय हुयी और बहस 'क्या वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य फासिज़्म से संक्रमित है या नहीं' के विंदु पर होनी चाहिए थी, से सरक कर इस विंदु पर की जाने लगी कि महुआ का भाषण मौलिक नहीं चुराया हुआ है। यह लेखचोरी है। प्लैगियारिज़्म है।
इस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है कि फासिज़्म के यह लक्षण होलोकॉस्ट म्यूजियम में एक पोस्टर पर जो अंकित हैं वे वर्तमान संदर्भ में कितने सच हैं या नहीं। जबकि 2017 के वाशिंगटन मंथली लेख जिसका उल्लेख सुधीर चौधरी कर रहे हैं, उसमें भी इस म्यूजियम के उस पोस्टर का उल्लेख है। वह पोस्टर सार्वजनिक है। उसे असंख्य बार लोगों ने अपने लेखों, टिप्पणियों और भाषणों में उल्लिखित और संदर्भित किया है। होलोकॉस्ट, फासिज़्म का चरम है और जब भी जिस किसी भी देश मे यह विचारधारा पनपेगी, उसका चरम होलोकॉस्ट में ही होगा। यह ध्रुव सत्य है।
कुछ दक्षिणपंथी विचारधारा की वेबसाइट ने भी इस लेखचोरी के मुद्दे को प्रचारित किया और सुधीर चौधरी ने एक पूरा शो इस पर अपने चैनल पर किया। शो के बाद उन्होंने एक ट्वीट भी किया जो इस प्रकार है,
@sudhirchaudhary
यही है अमेरिकी वेब्सायट का वो लेख जिसे तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने चुराकर लोक सभा में अपने भाषण में इस्तेमाल कर लिया।हुबहू बिलकुल वही शब्द लेख से सीधे उठा लिए और बोल दिए।संसद की गरिमा ख़तरे में है।https://twitter.com/zeenewshindi
@ZeeNewsHindi
देखें, महुआ मोइत्रा के भाषण का DNA टेस्ट, भाषण को लेकर रिसर्च में सामने आई चौंकाने वाली बात @sudhirchaudhary #DNA
लेकिन महुआ पर किये जाने वाले हमले जो लेखचोरी के आरोप में उठे थे, के बारे में, तुरंत ही सच सामने आने के बाद थम गये। वाशिंगटन मंथली के उक्त लेख के लेखक, मार्टिन लॉंगमैन ने इस विवाद पर अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुये यह कह दिया है कि, उनके लेख की कोई चोरी नहीं हुयी है और उन्हें ( महुआ मोइत्रा को ) झूठा आरोपित किया जा रहा है। आरोप की यह प्रवित्ति दक्षिणपंथी चरित्र की एक सामान्य विकृति है जो हर जगह समान रूप से पायी जाती है। मार्टिन का ट्वीट पढ़े,
Martin Longman
@BooMan23
I’m internet famous in India because a politician is being falsely accused of plagiarizing me. It’s kind of funny, but right-wing assholes seem to be similar in every country.
इस ट्वीट के बाद यह विवाद तो थम गया कि महुआ ने कोई लेखचोरी या प्लेगियारिज़्म नहीं किया है। अपने ऊपर लगे लेखचोरी के आरोप के बारे में महुआ ने कहा कि,
"Plagiarism is when one does not disclose one's source. My source as mentioned categorically in my speech was the poster from the Holocaust Museum created by the political scientist Dr. Laurence W. Brit pointing out the 14 signs of early fascism. I found 7 signs relevant to India and spoke at length about each of them,"
( लेखचोरी, वह होती है जिसमे लेख के स्रोत का उल्लेख न किया गया हो। मैंने अपने भाषण में यह उल्लेख किया है कि वह पोस्टर जो होलोकॉस्ट म्यूजियम में टँगा है और
राजनीति वैज्ञानिक डॉ लॉरेंस ब्रिट द्वारा संकलित है जिसमे फासिज़्म के 14 शुरुआती लक्षण गिनाये गये हैं, में से 7 लक्षणों की चर्चा मैंने की है जिन्हें मैं भारत के संदर्भ में प्रासंगिक पाती हूँ। )
लेकिन फासिज़्म के जिन लक्षणों की पहचान की है उनपर बहस न तो ज़ी न्यूज़ ने की न ही किसी अन्य टीवी चैनल ने। यह बहस न करना ही फासिज़्म के शुरुआती लक्षणों में से है। ज़ी न्यूज़ और सुधीर चौधरी जैसे मीडियाकर्मी तो खुद ही फासिज़्म के वायरस के वाहक हैं वह इसपर बहस क्यों करेंगे ?
महुआ मोइत्रा ने जिन लक्षणों को गिनाया है उन्हें पढ़े। उनके भाषण का यह हिंदी अनुवाद मैं मित्र संजय कुमार सिंह जी ( Sanjaya Kumar Singh ) की फेसबुक वॉल से उठा रहा हूँ।
" ... मैं विनम्रता पूर्वक मौजूदा सरकार को मिली भारी जीत स्वीकार करती हूं । इसलिए ये ज़रूरी हो जाता है कि हमारी असहमतियां भी सुनी जाएं । अगर बीजेपी या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को यह भारी समर्थन न मिला होता, तो उन पर नियंत्रण रखने, संतुलन बनाने, ‘चेक और बैलेंस’ के लिए एक स्वाभाविक व्यवस्था होती । मगर ऐसा नहीं है । ये सदन विपक्ष की जगह है । इसीलिए मैं आज यहां हूं और अपनी बात रख रही हूं । हमें (संविधान) ने जो अधिकार दिया है मैं उसी पर अमल कर रही हूं ।
शुरुआत मैं मौलाना आज़ाद से करना चाहती हूं, जिनकी मूर्ति इस सदन से बाहर लगी है । देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने उल्लेखनीय संघर्ष किया । उन्होंने कभी कहा था-
ये भारत की ऐतिहासिक तकदीर है कि इंसानों की कई सारी नस्लें और संस्कृतियां इसका हिस्सा हैं । ये मुल्क, यहां की आदरभाव वाली मिट्टी उनका घर होना चाहिए । कई सारे कारवां यहां ठहरकर आराम कर सकें, सांस ले सकें । ये ऐसा देश हो जहां हमारी अलग-अलग संस्कृतियां, हमारी भाषाएं-बोलियां, हमारी कविताएं, हमारा साहित्य, हमारी कला और हम अपने रोज़मर्रा के जीवन में जो अनगिनत चीजें करते हैं, उसपर हमारी साझा पहचान की मुहर हो । हमारी साझा पहचान का असर हो उसपर ।
ये ही वो आदर्श थे, जिनसे प्रेरणा लेकर हमारा संविधान लिखा गया । वही संविधान, जिसकी रक्षा की हम सबने शपथ ली है । मगर ये संविधान आज ख़तरे में है । हो सकता है आप मुझसे असहमत हों । आप कह सकते हैं कि अच्छे दिन आ गए और ये सरकार जिस तरह का भारत बनाना चाह रही है, वहां कभी सूर्यास्त नहीं होगा । मगर ऐसा कहने वाले उन संकेतों को नहीं देख पा रहे हैं । अगर आप अपनी आंखें खोलें, तो आपको ये संकेत हर जगह नज़र आ जाएंगे । ये देश टुकड़ों में बांटा जा रहा है । यहां बोलने के लिए जो कुछ मिनट मुझे मिले हैं, उनमें मुझे कुछ संकेत गिनाने दीजिए-
पहला संकेत-
बेहद ताकतवर , भभकता और सतत राष्ट्रवाद हमारी राष्ट्रीय पहचान को नष्ट कर रहा है । उसे नुकसान पहुंचा रहा है । ये राष्ट्रवाद छिछला है । इसमें दूसरों के लिए दहशत है । ये संकीर्ण है । इसका मकसद हमें जोड़ना नहीं, बांटना है । देश के नागरिकों को उनके घर से निकाला जा रहा है । उन्हें घुसपैठिया कहा जा रहा है । पचासों साल से यहां रह रहे लोगों को कागज़ का एक पर्चा दिखाकर ये साबित करना पड़ रहा है कि वो भारतीय हैं । ऐसे देश में जहां मंत्री कॉलेज से ग्रेजुएट होने का सबूत देने के लिए अपनी डिग्री नहीं दिखाते और आप गरीबों से उम्मीद करते हैं कि वो अपनी नागरिकता साबित करें । साबित करें कि वो इसी देश का हिस्सा हैं । हमारे यहां मुल्क के प्रति वफ़ादारी की जांच के लिए नारों और प्रतीकों को इस्तेमाल किया जा रहा है । असलियत में ऐसा कोई इकलौता नारा नहीं, ऐसा कोई एक अकेला प्रतीक ही नहीं जिसके सहारे लोग इस मुल्क के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित कर पाएं ।
दूसरा संकेत-
सरकार की कार्यशैली में हर स्तर पर मानवाधिकारों के लिए तिरस्कार की प्रबल भावना नज़र आती है । 2014 से 2019 के बीच हेट क्राइम्स की तादाद में कई गुना बढ़ोतरी हुई । इस देश में कुछ ऐसे तत्व हैं, जो इस तरह की घटनाओं को बस बढ़ा ही रहे हैं । दिनदहाड़े लोग भीड़ के हाथों पीट-पीटकर मार डाले जा रहे हैं । पिछले साल राजस्थान में मॉब लिंच हुए पहलू खान से लेकर झारखंड में मारे गए तबरेज़ अंसारी तक, ये हत्याएं रुक ही नहीं रही हैं ।
तीसरा संकेत-
मास मीडिया को बड़े स्तर पर नियंत्रित किया जा रहा है । देश के सबसे बड़े पांच न्यूज मीडिया संस्थान आज या तो अप्रत्यक्ष रूप से कंट्रोल किए जा रहे हैं या वो एक व्यक्ति के लिए समर्पित हैं । टीवी चैनल्स अपने एयरटाइम का ज्यादातर हिस्सा सत्ताधारी पार्टी के लिए प्रोपगेंडा में खर्च कर रहे हैं । सारे विपक्षी दलों की कवरेज काट दी जाती है । सरकार को रेकॉर्ड्स देने चाहिए कि मीडिया संस्थानों को विज्ञापन देने में कितना रुपया खर्च किया है उन्होंने । किस चीज के विज्ञापन पर कितना खर्च किया गया । और किन मीडिया संस्थानों को विज्ञापन नहीं दिए गए ।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 120 से ज्यादा लोगों को बस इसलिए नौकरी पर रखा है कि वो रोज़ाना टीवी चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों पर नज़र रखें । इस बात को सुनिश्चित करें कि सरकार के खिलाफ कोई ख़बर न चले । फेक न्यूज़ तो आम हो गया है । ये चुनाव सरकार के कामकाज या किसानों की स्थिति और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर नहीं लड़ा गया ।ये चुनाव लड़ा गया वॉट्सऐप पर, फेक न्यूज पर, लोगों को गुमराह करने पर । ये सरकार जिन ख़बरों को बार-बार दोहराती है, हर ख़बर जो आप देते हैं, आपके सारे झूठ, आप उन्हें इतनी बार दोहराते हैं कि वो सच बन जाते हैं । कल कांग्रेस पार्टी के नेता ने यहां कहा कि बंगाल में कोऑपरेटिव मूवमेंट नाकामयाब रहे हैं । मैं उनसे कहना चाहूंगी कि वो तथ्यों की दोबारा जांच करें । वो मुर्शिदाबाद के जिस भागीरथी कोऑपरेटिव का ज़िक्र कर रहे थे, वो लाभ में है । मैं ये कहना चाहती हूं कि हम जितनी भी ग़लत जानकारियां देते हैं, वो सब इस देश को बर्बाद कर रही हैं ।
चौथा संकेत-
जब मैं छोटी थी, तब मेरी मां कहती थी कि ऐसा करो वैसा करो, नहीं तो काला भूत आ जाएगा । देश का माहौल ऐसा बना दिया गया है कि लोग किसी अनजान से काले भूत के ख़ौफ़ में हैं । सब जगह डर का माहौल है । सेना की उपलब्धियों को एक व्यक्ति के नाम पर भुनाया और इस्तेमाल किया जा रहा है । हर दिन नए दुश्मन गढ़े जा रहे हैं । जबकि पिछले पांच सालों में आतंकवादी घटनाएं काफी बढ़ी हैं । कश्मीर में शहीद होने वाले जवानों की संख्या में 106 फीसद इज़ाफा हुआ है ।
पांचवां संकेत-
अब इस देश में धर्म और सरकार एक-दूसरे में गुंथ गए हैं । क्या इस बारे में बोलने की ज़रूरत भी है? क्या मुझे आपको ये याद दिलाना होगा इस देश में अब नागरिक होने की परिभाषा ही बदल दी गई है. NRC और नागरिकता संशोधन (सिटिजनशिप अमेंडमेंट) बिल लाकर हम ये सुनिश्चित करने में लगे हैं कि इस पूरी प्रक्रिया के निशाने पर बस एक खास समुदाय आए । इस संसद के सदस्य अब 2.77 एकड़ ज़मीन (राम जन्मभूमि के संदर्भ में) के भविष्य को लेकर चिंतित हैं, न कि भारत की बाकी 80 करोड़ एकड़ ज़मीन को लेकर ।
छठा संकेत-
ये सबसे ख़तरनाक है । इस समय बुद्धिजीवियों और कलाकारों के लिए समूचे तिरस्कार की भावना है । विरोध और असहमतियों को दबाया जाता है । लिबरल एजुकेशन की फंडिंग दी जाती है । संविधान के आर्टिकल 51 में साइंटिफिक टेम्परामेंट की बात है । मगर हम अभी जो कर रहे हैं, वो भारत को अतीत के एक अंधेरे दौर की तरफ ले जा रहा है । स्कूली किताबों में छेड़छाड़ की जा रही है । उन्हें मैनिपुलेट किया जा रहा है । आप लोग तो सवाल पूछना भी बर्दाश्त नहीं करते, विरोध तो दूर की बात है । मैं आपको बताना चाहती हूं कि असहमति जताने की भावना भारत के मूल में है । आप इसे दबा नहीं सकते । मैं यहां रामधारी सिंह दिनकर की लिखी कविता यहां उधृत करना चाहूंगी- हां हां दुर्योधन बांध मुझे/ बांधने मुझे तो आया है/ जंजीर बड़ी क्या लाया है? सूने को साध न सकता है /वह मुझे बांध कब सकता है?
सातवां संकेत-
हमारे चुनावी तंत्र की आज़ादी घट रही है । इन चुनावों में 60 हज़ार करोड़ रुपये खर्च हुए । इसका 50 फीसद एक अकेली पार्टी ने खर्च किया । 2017 में यूनाइटेड स्टेट्स होलोकास्ट मेमोरियल म्यूजियम ने अपनी मुख्य लॉबी में एक पोस्टर लगाया । इसमें फासीवाद आने के शुरुआती संकेतों को शामिल किया गया था । मैंने जो सातों संकेत यहां गिनाए, वो उस पोस्टर का भी हिस्सा थे ।
भारत में एक खतरनाक फासीवाद उभर रहा है । इस लोकसभा के सदस्यों को ये तय करने दीजिए कि वो इतिहास के किस पक्ष के साथ खड़े होना चाहेंगे. क्या हम अपने संविधान की हिफ़ाजत करने वालों में होंगे या हम इसे बर्बाद करने वालों में होंगे । इस सरकार ने जो भारी-भरकम बहुमत हासिल किया है, मैं उससे इनकार नहीं करती । मगर मेरे पास आपके इस विचार से असहमत होने का अधिकार है कि न आपके पहले कोई था, न आपके बाद कोई होगा । अपना संबोधन खत्म करते हुए मैं राहत इंदौरी की कुछ पंक्तियां रखना चाहूंगी-
जो आज साहब-ए-मसनद हैं, वो कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े न है
सब ही का खून शामिल है यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है। "
मीडिया को चाहिये कि लेखचोरी के इल्जाम पर अब अगर उनकी चर्चा पूर्णाहुति को प्राप्त हो चुकी हो तो वह इन लक्षणों पर महुआ को अपने टीवी शो में बुलाकर इन लक्षणों पर भी चर्चा कर लें, पर यह कभी नहीं होगा। उनकी प्राथमिकता में नुसरत जहां के माथे पर लगा सिंदूर और जायरा वसीम के ईमान का जागना अधिक महत्वपूर्ण है।
अब जरा होलोकॉस्ट के बारे में पढ़ लें।
होलोकॉस्ट सम्पूर्ण मानवता के लिये उसकी सभ्यता और संस्कृति पर एक काला धब्बा है। 1933 में एडोल्फ हिटलर जर्मनी की सत्ता में आया और वहां का तानाशाह बन गया। उसने श्रेष्ठतावाद का सिद्धांत चलाया और एक नस्ली मानसिकता से प्रेरित उन्मादी तंत्र की स्थापना की। उसने यहूदियों को सब-ह्यूमन करार दिया गया और उन्हें इंसानी नस्ल का हिस्सा ही नहीं माना गया। 1939 में जर्मनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपने अंतिम हल (फाइनल सोल्यूशन) को अमल में लाना शुरू किया। उसके सैनिक यहूदियों को कुछ खास इलाकों में ठूंसने लगे। उनसे काम करवाने, उन्हें एक जगह इकट्ठा करने और मार डालने के लिए विशेष कैंप स्थापित किए गए, जिनमें सबसे कुख्यात था ऑस्चविट्ज। यहूदियों को इन शिविरों में लाया जाता और वहां बंद कमरों में जहरीली गैस छोड़कर उन्हें मार डाला जाता। जिन्हें काम करने के काबिल नहीं समझा जाता, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता, जबकि बाकी बचे यहूदियों में से ज्यादातर भूख और बीमारी से दम तोड़ देते। युद्ध के बाद सामने आए दस्तावेजों से पता चलता है कि हिटलर का मकसद दुनिया से एक-एक यहूदी को खत्म कर देना था।
युद्ध के छह साल के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे। यहूदियों को जड़ से मिटाने के अपने मकसद को हिटलर ने इतने प्रभावी ढंग से अंजाम दिया कि दुनिया की एक तिहाई यहूदी आबादी खत्म हो गई। यह नरसंहार संख्या, प्रबंधन और क्रियान्वयन के लिहाज से विलक्षण था। इसके तहत एक समुदाय के लोग जहां भी मिले, वे मारे जाने लगे, सिर्फ इसलिए कि वे यहूदी पैदा हुए थे। इन कारणों के चलते ही इसे अपनी तरह का नाम दिया गया होलोकॉस्ट।
वाशिंगटन डीसी में होलोकॉस्ट म्यूजियम है जिसमे फासिज़्म के विभिन्न लक्षणों को एक पोस्टर पर अंकित किया गया है। यह घातक विचारधारा यूरोप में इटली के मुसोलिनी और जर्मनी के हिटलर में काल मे पूरी मानवता के लिये खतरा बन गयी थी। इस विचारधारा के जन्म, विकास और मूल के बारे में एक अलग से लेख लिखा जाएगा। यह पोस्टर जब डोनाल्ड ट्रम्प के कुछ निर्णय इस वायरस से संक्रमित नज़र आये तो तब फिर से चर्चा में आ गया। मूल रूप ने सेक्सिज़्म या लिंग के आधार पर भेद की मानसिकता, राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति उन्माद भरा दृष्टिकोण, चहेते पूंजीपतियों को संरक्षण या गिरोहबंद पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज्म, और बेतहाशा बढ़ता भ्रष्टाचार आदि इसके लक्षण हैं। सारा रोज़ ने ट्विटर पर इस पोस्टर को ट्वीट किया और यह ट्वीट 1,20,000 बार रीट्वीट हुयी और मूल ट्वीट 1,73,000 बार लाइक की गई। म्यूजियम में टँगे इस पोस्टर पर जो लक्षण लिखे हैं वे राजनीति शास्त्र के विद्वान लॉरेंस डब्ल्यू ब्रिट ने संकलित किये हैं। यह नस्ली नरसंहार हत्या से नहीं शुरू होता है बल्कि यह विचारों से शुरू होता है।
© विजय शंकर सिंह
बड़े सिलसिल्व्वार वर्णन किया गया है
ReplyDeleteआज जरूरत इस बात की है सभी राजनैतिक पार्टिया एक होकर फासिज्म को बढ़ने से रोकें नही आने वाली नस्लें हमको कभी माफ नही करेंगी।