चार्ली चैपलिन, दुनिया के महानतम अभिनेताओं में से एक थे। वे एक कॉमेडियन ही नहीं थे, बल्कि उनके जीवंत हास्य के पीछे का दर्द भी अगर आप संवेदनशील हैं तो महसूस किये बिना नहीं रह सकेगे। उनकी आत्मकथा, दुनिया भर के आत्मकथा साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय और पढ़ी जाने वाली पुस्तको में से एक मानी जाती है।
चार्ली का यह उद्धरण पढें, जो उनकी आत्मकथा से लिया गया है। उनका यह उद्धरण आज भी कहीं न कहीं प्रासंगिक हो चला है।
" मैं राष्ट्रीय गौरव को लेकर हो हल्ला नही मचा सकता .....स्वाभाविक रूप से ,जिस देश में मैं रहता हूँ , यदि उस पर हमला होता है तो मैं , हममें से अधिकांश लोगों की तरह , मुझे विश्वास है मैं परम त्याग का कोई भी काम करने में सक्षम होऊंगा। लेकिन मैं मातृभूमि के लिए दिखावे का प्यार दिखाने के काबिल नही हूँ। क्योंकि इस प्यार ने नाज़ी पैदा किये हैं .....नाज़ियों की कोठरियां , हालांकि इस वक़्त बंद पड़ी हैं, किसी भी देश में तेज़ी से सक्रिय बनाई जा सकती हैं। इसलिए मैं किसी राजनैतिक कारण के लिए तब तक कोई त्याग करने को तैयार नही हूँ जब तक कि मेरा उसमें व्यक्तिगत रूप से विश्वास न हो।.......न ही मैं राष्ट्रपति के लिए , प्रधानमंत्री या किसी तानाशाह के लिए मरने के लिए ही इच्छुक हूँ। "
यह उद्धरण उन्मादी, राष्ट्रवाद के संदर्भ में हैं। बीसवी सदी के यूरोप ने ऐसे पागलपन भरे राष्ट्रवाद के उभार को झेला है और दो महायुद्धो के विनाश को लंबे समय तक भोगा है। चार्ली चैप्लिन ने भी अंधराष्ट्रवाद जिसे अंग्रेज़ी में jingoism कहते है, के दंश को भोगा है और अपनी पूरी की पूरी बिरादरी को बरबाद होते देखा है। गैस चैंबर में कैसे पूरी यहूदी नस्ल को संसार से खत्म करने की साज़िश की गई थी, यह भी देखा है। यहूदियों को जर्मनी से बाहर, अपना अस्तित्व बचाने के लिए, पागलों की तरह भागते देखा है। वह आदिम बर्बर और अर्धमानव का युग नहीं था, वह काल सभ्यता का पाठ पढ़ाने निकले विकास का अग्रदूत बने यूरोप का समय था। अभी सौ साल भी नहीं बीते हैं उस दुःखद जर्मन त्रासदी के जिसे चार्ली के हमनस्ल ने भोगा है।
उसी बर्बर तानाशाह हिटलर पर उन्होंने एक बेहद रोचक और गंभीर फ़िल्म भी बनायी थी, द ग्रेट डिक्टेटर। फ़िल्म के अंत मे चार्ली का भाषण, जब वह एक सिपाही के रूप में जो हिटलर की जेल से भागते हुये हिटलर के ही भ्रम में पकड़ा जाता है और उसे हिटलर की ही सेना को संबोधित करने के लिये खड़ा होना पड़ता है, पूरी फ़िल्म की जान है । इस फ़िल्म में चार्ली का डबल रोल है । फ़िल्म के एक रोल में वह हिटलर बना है और दूसरे में 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में लड़ा हुआ एक जर्मन सैनिक। बस उसकी शक्ल हिटलर से मिलती है। और यही हमशक्ल होना ही उसे अंतिम समय मे फंसा देता है।
असल हिटलर अपने इस हमशक्ल सैनिक के चक्कर मे फंस जाता है और अपनी ही फौज का बंदी बन कर जेल के अंदर पहुंच जाता है, और सैनिक बना चार्ली हिटलर के वेश में सैनिकों को संबोधित करने के लिये मंच पर परिस्थितिवश ठेल दिया जाता है । अजीब लगता है यह, जब वह हिटलर वेषधारी सैनिक हितलर की तरह, युयुत्सु भरी, युद्ध की भाषा नहीं, बल्कि युद्ध की अनर्थता पर बोलने लगता है। सैनिक आवाक हो जाते है और, हिटलर के जनरल दुविधा में पड़ जाते हैं। यह भी एक विडंबना है कि युद्ध लड़ने वाले सैनिक चाहते भी नहीं हैं कि, युद्ध हो । अजीब बात है, जो युद्ध लड़ते हैं, युद्ध मे मरते मारते हैं वे युद्ध नही चाहते और जो युद्ध क्षेत्र से दूर बैठ कर जीत के जश्न और युद्व के लाभ हानि की प्रतीक्षा में रहते हैं, वे राजनेता अपनी सुविधा से युद्ध चाहते हैं। उनके लिये युद्ध और आतंक सत्ता में बने रहने का एक उपकरण भी तो है !
कहते हैं, द ग्रेट डिक्टेटर फ़िल्म को हिटलर खुद भी देखना चाहता था। वह यह भी चाहता था कि उस फिल्म की जब स्क्रीनिंग हो तो चार्ली चैप्लिन भी वहाँ उपस्थित रहें। पर ऐसा न हो सका। फ़िल्म उसने अकेले में देखी और अंत मे चार्ली का भाषण जो पूरे फ़िल्म की जान है देख कर बेसाख्ता रो पड़ा। चार्ली एक प्रतिभासम्पन्न अभिनेता तो थे ही साथ ही एक संवेदनशील और ईमानदार आत्मकथा लेखक भी थे। उनका यह उद्धरण युद्ध की व्यर्थता और अंधराष्ट्रवाद के खतरे को बताता है । युद्ध देश की जनता के हित मे है या शासक के हित मे इस बेहद विचारोत्तेजक सवाल को उनका यह उद्धरण उठाता है।
© विजय शंकर सिंह
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