नोटबन्दी से लेकर लॉक डाउन तक, सरकार ने अपनी प्रशासनिक अक्षमता के ही प्रमाण दिए है। निर्णय और नीतिगत विकलांगता तो मोदी सरकार के कई फैसलों में आप को दिख जाएगी पर अपने ही निर्णयों को प्रशासनिक रूप से लागू करने और कराने में यह बुरी तरह से अक्षम और असफल रही है। प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी यह एक सक्षम सरकार नहीं है। इसे यह तक पता नहीं है कि कब क्या निर्णय लेना है और फिर उसका क्रियान्वयन कैसे करना है,इन सब के बारे में सरकार ने न तो कोई होम वर्क किया है और न ही किसी संभावना पर विचार किया। सनक पर निर्णय लिए गए और सनक पर ही उन्हें लागू कर दिया गया। परिणामस्वरूप उन निर्णयों के क्रियान्वयन में भी नयी और जटिल समस्याएं उत्पन्न हो गयीं। कुछ उदाहरण देखें।
● 2014 में सरकार आने के बाद पूंजीपतियों की लॉबी के दबाव में भूमि अधिग्रहण बिल संसद में लाया गया और यह तक नहीं सोचा गया कि इस बिल से जनता का क्या लाभ होगा। सरकार के एजेंडे में पहले से ही पूंजीपति थे तो सरकार जनहित के बारे में भला कैसे सोच सकती है। अंत मे जब खूब शोर शराबा हुआ और व्यापक विरोध हुआ तब जाकर सरकार ने उस बिल को वापस लिया। सरकार की एक मज़बूरी यह भी थी कि राज्यसभा में उनका बहुमत नहीं था। लेकिन इस पूंजीपति पक्षधर बिल से सरकार के नीति और नीयत की दिशा मिल गयी थी।
● सन 2016 में सरकार ने सबसे महत्त्वपूर्ण और अनावश्यक निर्णय लिया जो नोटबन्दी का था। लेकिन, नोटबन्दी करने का निर्णय पहले हुआ, पर उसके लाभ और उद्देश्य बाद में तय किये गए। चर्चा तो यह भी थी कि तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली तक से इस मामले में विचार विमर्श नहीं किया गया था। यह बात राज्यसभा में विपक्ष ने कहा भी था और सरकार की तरफ से आनन्द शर्मा द्वारा कहे गए इस आरोप का प्रतिवाद भी नहीं किया गया। रिज़र्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल को केवल सरकार के नोटबन्दी लागू करने के इरादे और आदेश का पालन करने के लिये 8 नवम्बर को अपराह्न तक बताया गया था। तभी आरबीआई बोर्ड की एक औपचारिक बैठक हुई। यह केवल कुछ गिरोही पूंजीपतियों को पता था। नोटबन्दी के बारे में पूर्व गवर्नर डॉ रघुराम राजन ने अपने ही कार्यकाल में सरकार को यह बता दिया था कि नोटबन्दी का निर्णय देशहित में नहीं होगा।
● सरकार या आरबीआई द्वारा ₹ 1000 और ₹ 500 के नोट चलन से बाहर कर दिये गए और कुछ दिनों बाद,₹ 2000 के नए नोट छापे गए । ₹ 2000 के नोट तो पहले छपे, पर उसे निकालने वाले एटीएम बाद में ₹ 2000 के नोट के आकार से कैलिब्रेट किये गए। सरकार ने ₹ 2000 नोट छापने के पहले यह सोचा भी नही गया था कि एटीएम की ट्रे उन नोटों के आकार की है भी या नहीं।
● टीवी वाले गोदी पत्रकारों ने तो पहले इन नोटों पर चिप्स लगे होने की बात फैलाई फिर सरकार ने खंडन किया, पर इस अफवाह फैलाने वाले लोगो के खिलाफ कोई कार्यवाही तक नहीं की गयी। ऐसे सारे अफवाहबाज़ पत्रकार सरकार के कृपापात्र तब भी थे और अब भी बने हुए है।
● अब तो वे ₹ 2000 के नोट केवल काले धन वालों की तिजोरियों में हैं, हालांकि उन नोटों को चलन में लाया ही इसलिए गया था कि, उससे काला धन खत्म हो जाएगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नोटबन्दी का एक भी ध्येय पूरा नहीं हुआ।
● सरकार आज तक यह नहीं आकलन कर पाई कि देश मे कितना कालाधन नोटबंदी के पहले था, और नोटबंदी के बाद कितना उजागर हुआ या पकड़ा गया। हालांकि सरकार के 2014 के एजेंडे का एक मूल एजेंडा काले धन और भ्रष्टाचार का खात्मा करना भी था। क्योंकि इन सबकी पृष्ठभूमि में अन्ना हजारे का इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन भी था।
● नोटबंदी के क्रियान्वयन का प्रशासनिक कुप्रबंधन इतना बीभत्स रहा कि, दो माह में ही 150 सर्कुलर, आदेश, निर्देश सरकार को जारी करने पड़े और 150 लोग लाइनों में खड़े खड़े या अवसाद से ही मर गए। जब एक ही मामले में रोज़ रोज़ अलग अलग दृष्टिकोण से सर्कुलर जारी होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अधिकारी चाहते क्या हैं, यह वे खुद ही तय नहीं कर पा रहे हैं। नोटबन्दी में यही हुआ था।
● नोटबन्दी के निर्णय लागू करने के एक माह के भीतर ही, सरकार इतनी बदहवास हो गयी थी कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक रूप से गिड़गिड़ाते हुये पचास दिन, बस पचास दिन के समय की याचना करनी पड़ी थी ।
● अंत मे सरकार इतनी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी कि पीएम ने जनता से अपना विरोध व्यक्त करने के लिए कोई भी चौराहा चुनने को कह दिया।
● नोटबंदी के बाद जो आधात, उद्योग और व्यापार जगत को लगा, उसका यह परिणाम हुआ कि सारे आर्थिक सूचकांक विपरीत हो गए और आज जो आर्थिक संकट हम देख रहे हैं उसकी शुरुआत 8 नवंबर 2016 को शाम 8 बजे को हुयी एक मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय से हो चुकी थी ।
● बेरोजगारी बढने लगी। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में मंदी आने लगी। जीडीपी यानी विकास दर गिरने लगा। सरकार का राजस्व घटने लगा। आर्थिक मंदी का प्रारंभ इसी फैसले के बाद होने लगा।
● नोटबंदी निर्णय तो अनावश्यक था ही पर बेहद अक्षमता से किये गए उसके क्रियान्वयन के कारण, न तो कैश लेस अर्थव्यवस्था बनी, न तो लेस कैश आर्थिकी हो सकी। जितनी नकदी नोटबंदी के समय चलन में थी, उससे अधिक नकदी, नोटबन्दी के बाद बाजार में आ गयी। सरकार आज तक नोटबंदी की उपलब्धि नहीं बता पाई है। सरकार के समर्थक भले ही इसे मास्टरस्ट्रोक कहें पर सरकार को यह बात भली प्रकार से पता है कि, यह मास्टरस्ट्रोक बाउंड्री पर कैच हो गया है। यह निर्णय अर्थव्यवस्था के लिये आत्मघाती था।
● यही प्रशासनिक कुप्रबंधन गुड्स एंड सर्विस टैक्स ( जीएसटी ) के भी क्रियान्वयन में हुआ। महीनों तक लोग अपना रिटर्न नहीं भर पाए। प्रक्रिया इतनी जटिल है कि, साल भर तक तो टैक्स प्रबंधक यही नहीं समझ पाए कि यह कौन सी बला है, और इसे कैसे वे अपने मुवक्किलों को समझाए।
● जीएसटी के संबंध में, व्यापारी बताते हैं कि ई वे बिल के नाम पर, उनसे जबरदस्त वसूली होने लगी। भ्रष्टाचार कम करने के वादे और उम्मीद पर लायी गयी यह कर प्रणाली तंत्र बहुतों के लिये सिरदर्द हो गया। न तो कर व्यवस्था सरल हुयी और न ही भ्रष्टाचार कम हुआ।
● परिणामस्वरूप सरकार का राजस्व संग्रह घटा। जिसका सीधा असर, केंद सरकार की योजनाओं के साथ साथ, राज्य सरकारों के बजट पर भी पड़ा है।
● अब आया लॉक डाउन। जब 24 मार्च 2020 को 8 बजे रात 12 बजे से लॉक डाउन का निर्णय लिया गया तो यह सोचा भी नहीं गया कि, इस निर्णय से क्या क्या समस्याये आ सकती हैं और इनका समाधान कैसे किया जाएगा।
● जब लाखो प्रवासी मजदूर एक महीने का कष्ट भोग कर मरते जीते अपने घर पहुंचे तो अब सरकार स्पेशल ट्रेन चला कर एहसान दिखा रही है कि मई दिवस के दिन उन्होंने यह नेक शुरुआत की है और जो भी प्रवासी मज़दूर कहीं फंसे हैं उन्हें राज्य सरकार अपने अपने राज्य के प्रवासी कामगारों को ले आये। इस समाया पर 24 मार्च को जब रात 8 बजे लॉक डाउन की घोषणा की जा रही थी तो सरकार द्वारा सभी राज्य सरकारों से विचार विमर्श कर के समाधान निकाला जाना चाहिए था। पर सरकार जगी एक महीना बाद और अब भी तैयार नहीं है।
● देशभर में एक दुष्प्रचार सरकार समर्थक मित्रों ने फैला दिया कि कोरोना दिल्ली के निज़ामुद्दीन स्थित मरकज में तबलीगी जमात के सम्मेलन के बाद वहां से गये लोगो द्वारा फैला है और यह जानबूझकर कर कोविड 19 फैलाने की साज़िश है। मरकज के बगल में पुलिस था6 है । अगर यह साज़िश है तो, सरकार को इस साज़िश का पता भी है और साजिशकर्ता कौन है यह भी पता है। जमात के सम्मेलन की जानकारी थाने को है और दिल्ली सरकार को भी ऐसे सम्मेलन का पता है।
● एक महीने पहले 28 मार्च की रात को, जब से तबलीगी जमात के प्रमुख मौलाना साद, देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, एनएसए साहब से मिलकर गायब हैं तब से सरकार उन्हें गिरफ्तार तक नहीं कर पा रही हैं। सरकार जानबूझकर उन्हें गिरफ्तार नहीं करना चाहती या इस प्रकार का ढील देने का कोई और उद्देश्य है यह तो सरकार ही बता पाएगी, पर सत्य तो यही है कि आज तक मौलाना साद की गिरफ्तारी नहीं हो पाई।
● मौलाना साद की गिरफ्तारी तो नहीं हुयी, पर सरकार उनकी कोविड19 की जांच करने में सफल रही और जांच रिपोर्ट भी अखबारों में छप गयी। रिपोर्ट निगेटिव यानी कोरोना संक्रमण की पुष्टि नहीं हुयी है। जांच के लिये मौलाना के रक्त का सैम्पल तो मिल जाता है पर मौलाना रूपोश हैं। इसे क्या कहा जाय। इस नाकामी को भी सरकार समर्थक मित्र, सरकार का मास्टरस्ट्रोक कहेंगे और स्तुति गाएंगे।
● 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री खुद गुजरात की एक सभा मे आरोप लगाते है कि उन्हें अपदस्थ करने के लिये दिल्ली में पाकिस्तान के कुछ अधिकारियों के साथ मिल कर साज़िश रची जा रही है पर आज तक इतनी गंभीर साज़िश रचने वालों के खिलाफ सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती है। या तो प्रधानमंत्री को अफसर गलत और भ्रामक सूचना देते हैं या यह भी चुनाव प्रचार का एक दांव है।
● इस साजिश में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम भी लिया जाता है । पर बाद में जब संसद में विरोध होता है तो तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली, सरकार की ओर से, संसद में इस आरोप के बारे में क्षमा याचना कर लेते हैं।
● पुलवामा आतंकी हमले जिसमे सीआरपीएफ के 45 जवान शहीद हो गए थे के काफिले में घुस कर हमला करने वाले आतंकियों की कार में लदे 300 किलो आरडीएक्स का सरकार आज तक पता नहीं लगा पाई कि वह विस्फोटक भरी कार उस काफिले में आ कैसे गई और आतंकियों का भारतीय सहयोगी कौन था ?
● 30 जनवरी को कोविड 19 का केरल में, पहला केस मिलता है और 13 मार्च तक सरकार कहती रहती है कि कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं है। लोग आ जा रहे है। न सबकी जांच हो रही है न टेस्ट। इसी बीच नमस्ते ट्रम्प कार्यक्रम भी होता है। यह भी उल्लेखनीय है कि ट्रम्प, अहमदाबाद, आगरा और दिल्ली तीन शहरों की यात्रा करते हैं और ये तीनों ही शहर कोविड 19 के हॉट स्पॉट हैं।
● जब दुनियाभर में पिपीई उपकरणों की ज़रूरत पड़ रही थी तो बिना सोचे समझे कि इसकी जरूरत हमे भी पड़ सकती है हम 30 जनवरी को पहला केस मिलने के बाद भी इनका निर्यात करते रहे। जब हर तरफ से पिपीई की किल्लत का शोर मचा तो हमने इनका निर्यात बंद किया और वह किल्लत आज तक बनी हुयी है। हम यह तक अनुमान नहीं लगा पाए कि हमे जब ज़रूरत होगी तो हम इन पीपीई किट की कमी कहाँ से पूरा करेंगे।
● कोविड 19 की टेस्टिंग किट, सरकार चीन से आयात भी कर लेती है और आयात करने के बाद पता लगता है कि टेस्टिंग किट गड़बड़ निकल रही है फिर उसे लौटाने की बात की जाती है। इस आपदा में भी ऎसी लापरवाही पर उन अफसरों पर कोई कार्यवाही होती भी है या नही, पता।
● टेस्टिंग किट की कीमत तक सरकार तय नहीं कर पाती है। कीमतों का मामला जब हाईकोर्ट पहुंचता है तो एक नया घोटाला सामने आता है।
● 18 मार्च को वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। अभी जब प्रधानमंत्री मुख्यमंत्रियों को संबोधित कर रहे हैं तो कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था ठीक है।
● पर प्रधानमंत्री के अर्थव्यवस्था ठीक है कथन के के पहले सरकार, सरकारी कर्मचारियों की डीए वृद्धि का आदेश जारी कर चुकी होती हैं। मतलब कन्फ्यूजन यहां भी है। अर्थव्यवस्था ठीक भी है और सरकारी कर्मचारियों के डीए वृद्धि दर में कटौती भी की जा रही है।
● एक तरफ तो सरकारी कर्मचारियों के भत्तों में कटौती की जा रही है तो, दूसरी तरफ 20 हज़ार करोड़ रुपए का सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट और 8 हज़ार करोड़ के आधुनिक मिसाइलरोधी विमान केवल वीवीआइपी के लिये खरीदे जा रहे हैं।
● कल जब सेनापति और तीनों सेनाध्यक्ष टीवी पर तशरीफ़ लाये तो यह लगा कि सेना शायद प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक ले जाने के लिये अपने सैन्य संसाधनों का उपयोग करेगी। पर ऐसा नहीं हुआ । सेना ने पुष्प वर्षा, ध्वनि निनाद और रोशनी करने की बात कही।
● हमारी सेना, श्रीश्री रविशंकर के एक आयोजन में, दिल्ली स्थित यमुना किनारे मंच और पुल बना सकती है पर वह भूखे, प्यासे, विपन्न लाखो प्रवासी मजदूरों को उनके गंतव्य तक नहीं पहुंचा सकती है। यह काम अपने दम पर सेना कर भी नहीं सकती है। आपदा प्रबंधन में सेना का प्रयोग सरकार करती है और वही टास्क देती है। सरकार ने सेना को बैंड बजाने का काम दिया तो सेना बैंड बजाएगी।
● दुनिया की हर सरकार का पहला दायित्व यह होता है कि वह अपने देश मे सामाजिक सद्भाव और अमन चैन की स्थिति बनाये रखे। पर यह एक अनोखी सरकार है जिसके समर्थक खुलकर सामाजिक विद्वेष फैलाने का कंरते हैं और सरकार उस ज़हर को फैलते देखती रहती है।
यह कुछ उदाहरण है। पर इतना तय है कि 2014 से अब तक सरकार के निर्णयों और उसके प्रशासनिक कुप्रबंधन पर अच्छा खासा शोध किया जा सकता है। इन सब कुप्रबंधन का कारण है सरकार का अहंकार, राज्य सरकारों और विपक्ष से आपसी समन्वय की कमी, सरकार के पास विशेषज्ञ प्रतिभा का अभाव और गिरोहबंद पूंजीवाद के समक्ष साष्टांग और मौलिक रूप से जनविरोधी मानसिकता का होना है।
( विजय शंकर सिंह )
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