सुबह सुबह यह खबर मिली कि औरैया में नेशनल हाइवे पर, 26 प्रवासी कामगार एक सड़क दुर्घटना में मारे गए। वे अपने जिले गोरखपुर जा रहे थे। सरकार ने शोक व्यक्त कर दिया है। कुछ मुआवजा भी मिलेगा, ऐसी घोषणा भी की गयी है । पर इस दुर्घटना की जिम्मेदारी किस पर डाली जाय ? सरकार ने तो कहा है कि सड़क पर कोई चल ही नहीं रहा है। यह बात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कही है। सुप्रीम कोर्ट भी बेचारा क्या करता, यथा राजा तथा मुंसिफ ! कह दिया 'सड़क पर चलने वालों को कैसे रोकें।' 'रेल की पटरी तो सोने के लिये नहीं बनी है।' बात सही भी है, पटरी तो रेल के चलने के लिये बनी है। सोने वाले गलती कर गए, अब भुगतें । न्याय अंधा होता है। न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी का एक प्रतीकात्मक अर्थ यह भी है कि न्याय करते हुए वह किसी की तरफ नहीं देखती है, ताकि वे उससे प्रभावित न हो जांय। जो साक्ष्य जज के सामने हैं उसी के अनुसार निर्णय जज फैसला करता है। पर इधर लगता है, न्याय की देवी ने पट्टी के पीछे अपनी आंखें भी मींच ली है। उसकी अन्य इंद्रियां भी धीरे धीरे संवेदनशून्य होने लगी हैं। वह, यह तक अनुमान लगा पाने में विफल हो रही है कि, न्यायतुला किस तरफ अधिक झुक रही है, और न्याय जो हो रहा है वह न्यायपूर्ण दिख भी रहा है या नहीं।
जब अर्नब गोस्वामी का केस लगा था उसके पहले से प्रवासी मज़दूरों का केस सुप्रीम कोर्ट में फाइल था । पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही रोस्टर नियमोँ का उल्लंघन कर के पहले अर्नब का मामला सुना और उन्हें राहत दी। इस पर कोई आपत्ति नहीं। अर्नब को भी न्याय पाने का उतना ही अधिकार है, जितना कि, किसी भी अन्य व्यक्ति का। फिर जब मज़दूरों के मामले में सुनवाई शुरू हुयी तो सरकार ने कहा कि, प्रवासी मज़दूरों के लिये ट्रेन चलायी जा रही है और सड़को पर कोई नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे जस का तस मान लिया और कोई निर्देश सरकार को नहीं दिया। संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत यह याचिका दायर की गयी थी, जो अनुच्छेद लोगों को जीने का मौलिक अधिकार देता है।
सुप्रीम कोर्ट जितना बेबस और निरीह इधर दिख रहा है, उतना तो यह कभी भी नहीं था। चाहे सीएए पर देशव्यापी प्रदर्शनों का मामला हो, या दिल्ली हिंसा पर रातोंरात जस्टिस मुरलीधर के तबादले के नोटिफिकेशन का, या लॉक डाउन ने लाखों मज़दूरों के सड़क पर उतर कर हज़ार हज़ार किमी पैदल ही अपने घरों की ओर चल देने का हो। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि अगर मज़दूर सड़क पर निकल पड़े हैं तो वे क्या कर सकते हैं। जबकि सभी हाइवे किसी न किसी जिले में ही पड़ते हैं। उन जिलो के डीएम साहबान को यह निर्देश तो सरकार के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट जारी कर ही सकती थी कि, कि हर 10 /20 किमी पर, राष्ट्रीय राजमार्गों पर, इनके लिए सहायता बूथ, जहां, भोजन, प्राथमिक चिकित्सा, और कम से कम, शारिरिक रूप से कमजोर, महिलाओं और बच्चों को, जिले की सीमा तक छुड़वाने के लिये ट्रक, ट्रैक्टर, बस आदि की सुविधा दी जाय। हो सकता है सभी मज़दूरों को राहत इससे नहीं दी जा सके, लेकिन कम से कम व्यथा के बीच काफी अधिक संख्या में यह राहत तो दी ही जा सकती है। सड़क पर प्रशासन की आमदरफ्त से सड़क दुर्घटनाओं को तो रोका ही जा सकता है।
आज भी कांवर यात्रा या अन्य लम्बी दूरी की यात्रा में अनेक धर्मप्राण लोगो और सरकार द्वारा ऐसे शिविर लगाए भी जाते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह सब इंतजामात, कोरोना प्रोटोकॉल और, सोशल डिस्टेंसिंग के खिलाफ होता । पर क्या यह सोशल डिस्टेंसिंग प्रभावी रूप से कहीं दिख भी रही है ? यह सोशल डिस्टेंसिंग भी एक जुमला ही साबित हो रही है। जो वर्ग सड़क पर है वह अच्छी तरह से जानता है कि हज़ार किमी से अधिक दूरी की पैदल या साइकिल यात्रा एक जानलेवा सफर बन सकता है। फिर भी वह सड़क पर इस भयंकर गर्मी में जान हथेली पर लिये निकल गया है। बहुत से लोग और संस्थाएं उन्हें राहत पहुंचाने के लिये सड़कों पर उतर आयी हैं। वे राहत पहुंचा भी रहे हैं। अगर सरकार और स्थानीय प्रशासन का भी योगदान उनके साथ हो जाता तो, बैल के साथ, बैलगाड़ी में जुता हुआ आदमी, सड़क पर घिसटती हुयी गर्भवती महिला, और पहियों वाले सूटकेस पर सोया हुआ भविष्य का भारत तो नहीं दिखता। यही यात्रा थोड़ी मानवीयता के साथ और सुखपूर्वक हो सकती थी। क्या सरकार और न्यायाधिपति के मन मे लेशमात्र भी सम्वेदनाएँ शेष नहीं बची हैं ?
आज जो मज़दूरों की व्यथापूर्ण तस्वीरे दुनियाभर के अखबारों और सोशल मीडिया में फैल रही हैं, उनसे न तो देश का मान बढ़ रहा है, न सरकार का और इस चुप्पी पर न तो सुप्रीम कोर्ट का। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह तो सरकार का काम है, राज्य सरकारें कर रही हैं। पर अदालत में जो बात एटॉर्नी जनरल ने कही है, वह तो बिल्कुल ही झूठ कहा है। अदालत में सरकार ने कहा कि, कोई भी मज़दूर सड़क पर नहीं है। और अदालत ने यह मान लिया। अदालत ने यह भी नहीं कहा कि सभी राज्य सरकारों से स्टेटस रिपोर्ट लेकर हलफनामे के रूप में यह बात कही जाय। सड़को पर चलने की घटना इक्का दुक्का नहीं है कि उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाय या वह अपवादस्वरूप है। बल्कि यह हर नेशनल हाइवे पर है और पूरे देश मे है।
जब मान ही शेष नहीं रहेगा है तो मानहानि का आरोप, केवल एक ढकोसला बन कर रह जायेगा। मिथ्या, आत्मप्रवंचित, आत्ममुग्ध और अहंकार से आवेशित। मान या सम्मान जबर्दस्ती, भय या लोभ से अर्जित नहीं किया जाता है। न्यायपालिका आलोचना या निंदा से परे नहीं है और न ही ऐसी संस्था है जिसके बारे में कुछ भी अन्यथा कहने के पहले कानों को स्पर्श किया जाय या जीभ को दांतों से दबा लिया जाय। मनचाहे फैसले के लिये मनचाही बेंच का जुगाड़ एक आम चलन है। वकील साहबान अक्सर यह तसल्लीबख्श बात कहते हैं, अभी बड़ा सख्त जज है, न स्टे मिलेगा न जमानत मिलेगी, बस अगले महीने फेवरेबल बेंच आएगी तो सब हो जाएगा। जिन्हें कचहरियों से वास्ता रहता है उन्हें यह बात पता होगी। न्यायपालिका के उच्च स्तर पर जजो की नियुक्ति को अंकल जज सिंड्रोम से संक्रमित होने की बात सुप्रीम कोर्ट के जज तक कह चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट में जब पीआईएल की प्रथा जस्टिस भगवती के समय शुरू हुयी थी, तो लोगों को लगा कि, न्याय पाने का यह एक सुलभ साधन है। न्याय भले ही बीस सीढ़ी ऊपर गोल खंभों से घिरी गुम्बदाकार इमारत में विराजता हो, पर जनता जो सकपकाई नज़रों से उसकी तरफ देख रही है की भी नक्कारखाने में तूती जैसी आवाज़ भी गुम्बदों के नीचे बैठे न्यायाधिपति तक पहुंचनी चाहिए। पीआईएल के क्या लाभ हुए और सरकार कितनी सक्रिय हुयी इन सब विन्दुओं पर, इस एक अच्छा खासा लेख लिखा जा सकता है। सरकार इतनी अधिक घिर गयी थी कि वह काल न्यायिक सक्रियता का काल कहा जाने लगा था। सरकार जब निष्क्रिय थी तो, अदालतें सक्रिय हो गयी थी। यह सक्रियता सत्ता, राजनेता और नौकरशाहों को बेहद अखर गयी थी।
आज विधायिका सिमट कर सरकार में आ गयी है। विपक्ष थोड़ा बहुत है, पर 2014 के बाद जानबूझकर कर एक अभियान के अंतर्गत विपक्ष या विरोध की भूमिका को सत्ता के समर्थकों ने एकजुट होकर देशद्रोह से जोड़ दिया। सरकार के हर काम पर जहां सवाल उठाना लाज़िम समझा जाता था, वही एक ऐसी चाटुकार मंडली का जन्म हुआ जो खुद को छोड़ कर हर उस आदमी को देशद्रोही मानने लगी जो सरकार से जवाबतलबी करता है। लम्बे समय तक विरोध इसी उहापोह में रहा कि धर्मद्रोह और देशद्रोह की काट कैसे करें। जबकि सरकार न धर्मरक्षक है और न ही देश का प्रतीक। वह जनता के वोट पर, जनता के लिये, अपने घोषणापत्र या संकल्पपत्र के आधार पर चुनी गयी है, और जनता के प्रति जवाबदेह है।
जब सरकार जनविरोधी और संविधान विरोधी कदम उठाएगी तो निश्चय ही इसकी फरियाद सुप्रीम कोर्ट में होगी। सुप्रीम कोर्ट का रवैया इधर कई मामलों में, निराशाजनक रहा, और वह सरकार के निर्णय के अनुमोदक के रूप में ही दिखी है । जिन जज ने सुप्रीम कोर्ट के ही रवैये के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करने जैसा एक अभूतपूर्व कदम उठाया वे, यौन उत्पीड़न के आरोप पर ब्लैकमेल भी हुये, और अब राज्यसभा की एक सीट से उपकृत होकर न्यायपालिका के स्वतंत्रता पर भाषण देते हैं। कहीं ऐसा न हो कि, जस्टिस का प्रत्यय भी एक थोपा हुआ ओढ़ा गया सम्मान बन जाय, वैसे ही जैसे सारे जनप्रतिनिधि, जिनके खिलाफ घोर आपराधिक मुक़दमे भी दर्ज हैं तो भी माननीय ही कहे जाते हैं, क्योंकि यह उपाधि उनके पद के प्रत्यय के रूप में जुड़ी है, भले ही वे माननीय माने न जाते हों।
आनेवाला समय अदालतों के मानमर्दन का समय हो सकता है। यही एक संस्था है जिस पर आज भी लोगो की आस्था कुछ न कुछ बची है। पर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और वकील साहबान, मुखर हो रहे हैं, सामान्य लोग कानूनों की बारीकियां समझने लगे हैं, आगे चलकर, अदालतों के हर फैसले पर विशेष कर उन फैसलों पर जो जनहित से सीधे जुड़े हैं, पर मीनमेख निकाला जाएगा और लोग टिप्पणियां करेंगे। लेकिन यह टिप्पणियां, किसी जज के व्यक्तिगत या आचरण पर बिल्कुल भी नहीं होंनी चाहिए, बल्कि वह उन मुकदमो के कानूनी नुक़्ता ए नज़र पर होनी चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह सरकार का एक अंग न बनकर बल्कि जनहित के व्यापक मुद्दो पर, संविधान के अंदर ही संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का उपयोग कर के अपने जनहितकारी स्वरूप को, जनता के समक्ष बनाये रखे। यह समय न्यायपालिका के लिये साख बनाये रखने का भी है।
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment