कोरना संकट के पूर्व ही भारत में आर्थिक मंदी के स्पस्ट संकेत थे क्योंकि रिजर्व बैंक आफ इंडिया(RBI) नें अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत की कंपनियां अपनी उत्पादन क्षमता के 68% पर कार्य कर रही थी अर्थात यदि किसी कंपनी की उत्पादन करनें की क्षमता प्रतिदिन 100 साईकिल बनानें की थी तो वह केवल 68 साईकिल ही बना रही थी।इसका सामान्य सा मतलब यह हुआ कि कंपनी की प्रतिदिन 32 साईकिल बनाने की क्षमता बेकार पड़ी हुई थी।अब हमें यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसा क्यों हुआ होगा? बहुत सामान्य सा उत्तर है कि निश्चित रूप से साईकिल की मांग कम होगी।अब समझने की बात यह है कि लोगों के द्वारा साईकिल की जानें वाली मांग कम होनें का कारण क्या हो सकता है तो इसका भी बड़ा सामान्य सा जवाब होगा कि लोगों की कमाई कम हो रही होगी और यही सही उत्तर भी है अर्थात एक बात तो स्पष्ट है कि जब तक किसी भी वस्तु की मांग नहीं होगी तब तक उत्पादन संभव नहीं होगा और मांग तब होगी जबकि लोगों के पास कमाई होगी तथा अपनी कमाई के प्रति भविष्य की निश्चितता होगी।
सरकार नें इस कम हो चुकी मांग(मंदी)को बढ़ानें के लिए रिजर्व बैंक के द्वारा अन्य ब्यापारिक बैंको में मुद्रा की मात्रा बढ़ाया जिसे लिक्विडिटी बढ़ाना कहा जाता है और इसके पीछे उद्देश्य यह था कि कंपनियां बैंको से अधिक से अधिक सस्ता लोन लेंगी जिससे रोजगार बढ़ेगा और जब रोजगार बढ़ेगा तो लोगों की कमाई बढ़ेगी और जब कमाई बढ़ेगी तो मांग स्वतः बढ़ जायेगी लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि कंपनियों नें ऐसा नही किया और ब्यापारिक बैंको नें लगभग 8 लाख करोड़ रूपया वापस रिजर्व बैक में जमा कर दिया और मजेदार बात यह है कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि बाजार में मांग नहीं थी। अब जरा ध्यान देनें की बात यह है कि मांग को ही बढ़ाने के लिए रिजर्व बैंक नें बैंको को अधिक मुद्रा उपलब्ध कराई थी लेकिन कंपनियों नें बैंको से इसलिए उधार नहीं लिया क्योंकि अर्थव्यवस्था में लोगों के द्वारा की जाने वाली मांग कम थी।
इसे समझ कर रखिए कि सभी आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु मांग ही है।
सरकार नें मांग को बढ़ाने के लिए एक और कार्य किया था जिसे कहा जाता है कार्पोरेट टैक्स(निगम कर) को कम करना। दरअसल कार्पोरेट टैक्स वह टैक्स होता है जो कि कंपनियों की आय या कहें कि लाभ पर लगाया जाता है जिस प्रकार किसी व्यक्ति की आय पर कर लगाया जाता है उसी प्रकार कंपनियों की आय पर जो कर लगाया जाता है उसे कार्पोरेट टैक्स कहते हैं।तथ्य यह है कि सरकार नें मांग को बढ़ाने के लिए कंपनियों की आय पर लगने वाले कर की दर को कम किया और ऐसा करके सरकार को लगभग 1.5 लाख करोड़ का नुकसान हुआ अर्थात सभी कंपनियों के कुल लाभ में वृद्धि सीधे सीधे 1.5 लाख करोड़ की हो गई और तर्क यह दिया गया कि इससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी। आईये इसे और साधारण तरीके से समझते हैं।
यदि मान लिया जाय कि किसी कंपनी की आय 1000 रूपये है तथा उस पर सरकार 30% की दर से कार्पोरेट टैक्स लगाकर 300 रूपया कार्पोरेट टैक्स वसूल करती है और यह 300 रूपया सरकार की आय का हिस्सा होता है अब सरकार नें कंपनियों से कहा कि मै टैक्स की दर जो पहले 30% थी उसे कम करके 20% कर दे रहा हूं जिससे की सरकार के पास जो पहले 300 रूपया टैक्स के रूप मे आता था वह घटकर 200 रूपया हो जायेगा और इसके साथ ही साथ कंपनियों की आय जो पहले 700 रूपया थी वह बढ़कर 800 रूपया हो जायेगी।अब सरकार का यह कहना था कि कंपनियों के पास जो यह अतिरिक्त 100 रूपया आया है उससे वह कंपनी अपनी बनाई हुई वस्तु की कीमत घटायेगी जिससे की मांग स्वतः बढ़ जायेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कंपनियों नें कार्पोरेट टैक्स की छूट से प्राप्त होनें वाले लाभ को अपनी बचत का हिस्सा बना लिया अर्थात वस्तुओं की कीमतें कम नहीं की और इसलिए मांग पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।सरकार यदि वही 100 रूपया कंपनियों से लेकर किसी भी माध्यम से उपभोक्ता के पास पहुंचा देती तो क्या मांग में वृद्धि होती या नहीं आप स्वयं तय करिए।
अब हम आज की आर्थिक परिस्थिति में जबकि अनिवार्य वस्तुओं को छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं की मांग कम ही नहीं हुई है बल्कि लगभग समाप्त हो चुकी है तब क्या यह संभव है कि कंपनियां अधिक से अधिक लोन लेकर उत्पादन करनें के लिए तैयार होंगी?
सोचना आपको है।
आवश्यकता प्रत्यक्ष रूप से मांग बढ़ानें की है और लोगों के अंदर भविष्य की कमाई को लेकर जो भयावह अनिश्चितता बनी हुई है उसे समाप्त करनें की है।
क्योंकि अर्थशास्त्र में हम वर्तमान में जो व्यवहार करतें हैं उसका संबंध वर्तमान से अधिक भविष्य की निश्चितता या अनिश्चितता से जुड़ा हुआ होता है।
( पंकज सिंह )
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