रेलवे ने प्रवासी मजदूरों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई हैं, लेकिन कुछ ट्रेनें वहां निर्धारित रूट नहीं पहुंचीं, जहां उन्हें जाना था, बल्कि बेहद लंबे और थका देने वाली रूटों से अपने गंतव्य पर पहुंची। जैसे मुम्बई से गोरखपुर के निर्धारित रूट के बजाय एक ट्रेन, राउरकेला पहुंच गयी। जब शोर मचा तो, रेलवे ने तो यह कह कर पिंड छुड़ा लिया कि, उस ट्रेन का रुट ट्रैक पर कन्जेशन के कारण बदला गया है। लेकिन रेलवे ने यात्रियों के बारे में तनिक भी नहीं सोचा कि उन्हें इस लंबे डायवर्जन से इस गर्मी में कितनी दिक्कतें हुयी होंगी।
अब रूट भटकाव की कुछ और खबरों की ओर भी ध्यान दें।
● लाखों प्रवासी मजदूर रेवले की श्रमिक स्पेशल ट्रेन से अपने घर पहुंच चुके हैं।
● इसी बीच एक श्रमिक ट्रेन महाराष्ट्र के वसई से यूपी के गोरखपुर के लिए चली और ओडिशा के राउरकेला पहुंच गई
● रेलवे ने कहा ये गलती से नहीं हुआ, बल्कि रूट व्यस्त होने की वजह से ऐसा किया गया
● यह अकेली ट्रेन नहीं है, जो कहीं और पहुंच गई, बल्कि सुनने में आ रहा है कि 40 ट्रेनों का रास्ता बदला गया है।
अब इन सबकी सफाई भी पढ़ लें।
रेलवे के एक सूत्र ने कहा है सिर्फ, 23 मई को ही कई ट्रेनें का रास्ता बदला गया। हालांकि, उसने ये नहीं बताया कि कितनी ट्रेनों का रास्ता बदला है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार, ऐसी जानकारी भी मिल रही है कि अब तक करीब 40 श्रमिक ट्रेनों का रास्ता बदला जा चुका है। रेलवे का कहना है कि इन ट्रेनों का रूट जानबूझ कर बदला गया, जबकि गोरखपुर जाने वाली ट्रेन को राउरकेला भेजने का तर्क समझ से परे है।
एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन बेंगलुरु से करीब 1450 लोगों को लेकर यूपी के बस्ती जा रही थी। जब ट्रेन रुकी तो लोगों को लगा वह अपने घर पहुंचा गए, लेकिन ट्रेन तो गाजियाबाद में खड़ी थी। पता चला कि ट्रेन को रूट व्यस्त होने की वजह से डायवर्ट किया गया है।
इसी तरह महाराष्ट्र के लोकमान्य टर्मिनल से 21 मई की रात एक ट्रेन पटना के लिए चली, लेकिन वह पहुंच गई पुरुलिया। रेलवे का तर्क तो यही होगा कि इसे डायवर्ट किया गया है, लेकिन रेलवे के इस डायवर्जन से यात्री कितने परेशान हो रहे हैं, उसका अंदाजा भी लगा पाना मुश्किल है।
इसी तरह दरभंगा से चली एक ट्रेन का रूट भी बदलकर राउरकेला की ओर कर दिया गया। इस दौरान यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि आखिर यात्री रास्ते मे, क्या और कैसे खाएंगे-पिएंगे।
रूट डायवर्जन पर, एक ट्विटर यूजर ने लिखा है- मेरा दोस्त आनंद बख्शी सोलापुर से इटारसी जा रहा था और उसकी ट्रेन का रास्ता बदल दिया गया तो वह नागपुर पहुंच गया है। अब स्टेशन पर रेलवे स्टाफ का कहना है कि उसे क्वारंटीन में रहना होगा।
रेलवे ने तो बड़ी ही आसानी से यह तर्क दे दिया कि रास्ते व्यस्त होने की वजह से रूट डायवर्ट किया गया है, लेकिन ये नहीं सोचा कि इससे यात्रियों को कितनी परेशानी होगी। रेलवे ने तो उनके खाने-पीने के बारे में भी नहीं सोचा कि आखिर डायवर्जन में जो अतिरिक्त समय लग रहा है, उसमें यात्री क्या खाएंगे ?
बेंगलुरु से गाजियाबाद पहुंची ट्रेन में बैठे कुछ यात्रियों का कहना है कि उन्होंने 20 घंटों से कुछ नहीं खाया है। पुरुलिया पहुंची ट्रेन के यात्रियों से पता चला है कि उन्हें खाना-पीना कुछ नहीं मिला है और ट्रेन का पानी भी खत्म हो गया है।
रेलवे ने जो रूट डायवर्जन लिया है वह सरकार की प्रशासनिक अक्षमता का एक अनुपम उदाहरण हैं। ट्रेनें लेट होती हैं। इतनी लेट होती हैं कि रद्द भी हो जाती है। डायवर्ट भी होती हैं, पर तब जब ट्रैक पर कोई दुर्घटना हो जाय या ट्रैक ही क्षतिग्रस्त हो जाय।
लेकिम मुंबई से गोरखपुर वाया राउरकेला, डायवर्जन के बारे में यह कहा जा रहा है कि यह डायवर्जन ट्रैक पर व्यस्तता के काऱण है। रेलवे ट्रैक किसी नेशनल हाइवे की तरह नही कि किसी शहर से गुजरते समय एकाएक इतना ट्रैफिक आ जाय कि अचानक जाम लग जाय। रेलवे ट्रैक पर देश भर में किस ट्रैक पर कौन कौन सी और कितनी ट्रेन चल रहीं है इन सब को जब चाहे देखा जा सकता है। स्पॉट योर ट्रेन से हम सब भी ट्रेनों की स्थिति का पता लगा सकते हैं।
अगर कन्जेशन इतना अधिक था कि राउरकेला से ले जाना जरूरी था तो क्या
● यात्रियों को यह सब बताया गया था ?
● क्या रेलवे ने एक पल को भी यह सोचा कि ट्रेन में मजबूरी में बैठे मजदूर और गरीब कैसे बिना खाना पानी के जायँगे ?
● वित्तमंत्री जो तीन बार खाना देने की बात कर रही हैं से ही लेकर तीन बार खाना रेलवे इन गरीबो को ही खिला देती ?
यकीन मानिये यह सब सरकार की जेहन में ही नहीं आता है। रोटी नहीं तो केक क्यों नही खाते, जैसी मानसिकता में यह सरकार पहुंच गयी है। सरकार की किसी भी योजना के केंद में गांव, गरीब, किसान मजदूर हैं ही नहीं। और अगर कहीं हैं भी तो, महज एक उपभोक्ता के रूप में, जो पूंजीवादी अर्थतंत्र के फलने फूलने के लिये आवश्यक है और उनकी मजबूरी है।
क्या रेलमंत्री पीयूष गोयल को बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए ? जब ऐसी आपदा में भी रेल मंत्रालय, ट्रेनें समय से न चला सके तो ऐसे निकम्मे मंत्री को ढोने की कोई ज़रूरत नही है। 40 ट्रेनें डाइवर्ट की जा रही हैं। क्यों ? क्या नियमित ट्रेनों के अतिरिक्त कुछ नयी ट्रेनें चलाई जा रही हैं ?
रेलवे को पता है कि अपनी व्यथा के बारे में कोई भी इन श्रमिक स्पेशल ट्रेनों का यात्री समय की अधिकता और डायवर्जन के कारण हुए अपने नुकसान के लिये अदालत नही जाने वाला है। बस बेचारा, बेबस मज़दूर, यही आस लगाए बैठा है कम से कम घर तो वह किसी भी तरह पहुंच जाय। नियति है न, उसे संतोष देने के लिये।
और अगर कोई अदालत गया भी तो, वहीं कौन बैठा है जो उसकी व्यथा सुने। अदालत तो पहले ही कह चुकी है कि लोगों को सड़क पर चलने से हम कैसे रोक सकते है। बस अंग्रेजी में यह कह देगी कि रेल संचालन और डायवर्जन में हम दखल कैसे दें। हवाई जहाज़ का यात्री होता तो शायद उसकी सुनती भी।
जब ट्रेनों की संख्या ट्रैक पर कम है तो फिर वे इतने विलंब से क्यों चल रही हैं, और उन्हें जानबूझकर कर ऐसे ट्रैक से क्यों भेजा जा रहा है जिससे कम से कम दूना समय लग रहा है। कहीं मज़दूर अपने घरों में समय और सुगमता से न पहुंच सके यह एक दुरभिसंधि तो नहीं है पूंजीपतियों और सरकार की, कि जानबूझकर कर ऐसी समस्या उत्पन्न कर दो जिससे लोग, घर आने के लिये हतोत्साहित हो जांय। वहीं मरते जीते रुक कर फैक्ट्री खुलने की प्रतीक्षा करें।
आज ही बलिया जिले का एक लड़का तमिलनाडु के कोयंबटूर में कहीं काम करने गया था। मुझे उसके घर वालों ने बताया कि उसे और उसके साथ वहां कई लोगो को रोक रखा गया है। दो दिन से उन्हें खाना भी नहीं मिल रहा है। वापस न जा सके इसलिए उन पर पहरा लगा दिया गया है। जो ठेकेदार उन सबों को लेकर गया था, वह उनका आधा पैसा लेकर भाग गया है। वे सब बड़े कष्ट में हैं। भाषा की दिक्कत तो तमिलनाडु में है ही। मैंने एसपी कोयम्बटूर को यह सब बाते बतायी तो उन्होंने मेरे अनुरोध पर ध्यान दिया और तुरन्त उन सब को वहां से निकाल कर रेलवे स्टेशन, वापसी के लिये भेजा और अब वे सब वापसी के रास्ते पर हैं। एसपी कोयंबटूर का आभार।
ट्रेन की सुविधा के बारे में पूछने पर, उन लड़कों ने बताया कि, सबको एक एक मास्क और एक एक बोतल पानी दिया गया है। उसने यह भी बताया कि गाड़ी चार दिन में बनारस पहुंचेगी। सरकार कहती है कि वह तीन वक़्त का भोजन, लंच ब्रेकफास्ट और डिनर सबको दे रही है। पर यह किसी को मिल भी रहा है, यह पता नहीं। कम से कम रेलवे इन श्रमिक स्पेशल के यात्रियों को तो यह सब दे ही सकती है। यह तो 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ही अंग है। पैसा तो सरकार दे ही चुकी है।
अजीब प्रशासनिक कुव्यवस्था हैं। ट्रेनें भटक जा रही है । लॉक डाउन के बारे में, ढंग का आदेश नहीं निकल पा रहा है। सुबह कुछ और शाम कुछ कहा जा रहा है। हवाई सेवा शुरू हुई और लोग जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो 80 फ्लाइट निरस्त हो गई। इतनी अफरातफरी क्यों है ? ऐसी बदहवासी का आलम क्यो है ?.शुरू में कहा गया कि, लॉक डाउन की अवधि का वेतन मिलेगा। सरकार ऐसी घोषणा भी करती है फिर अदालत की एक याचिका की आड़ लेकर उसे रद्द कर देती है। ज़रा सा भी दबाव पूंजीपतियों का पड़ा नहीं कि, सरकार साष्टांग हो गयी। इलेक्टोरल बांड का इतना भी एहसान क्या उतारना।
स्कूल के फीस के बारे में कोई निश्चित निर्णय आज तक नहीं हुआ है। अभिवावको की अपनी व्यथा है तो स्कूल मालिकों की अपनी । पर सरकार क्यों नहीं कोई सुलभ समाधान दोनो को आपस मे बैठा कर निकाल लेती है ? स्कूलों में भी फीस के मुद्दे पर झगड़े होंगे, अगर यह सब पहले तय नहीं हुआ तो। अगर कोई समाधान ही, बस में नहीं तो, सरकार यही कह दे कि हम अब कुछ नही कर सकते, आप सब अपनी अपनी खैर खबर समझें और देखे।
कोरोना वायरस से जितने लोग नहीं मरेंगे, मुझे आशंका है कि, कहीं उससे अधिक, इन सारी बदइंतजामियों से न मरने लगें। अजीब कुप्रबंधन का दौर है यह है। सरकार और नेतृत्व के मजबूती तथा कुशलता की परख संकट काल मे ही होती है। अब इससे बड़ा संकट क्या आएगा, जब लोगों का जान और जहान दोनो ही संकट में है। क्या यह सरकार और नेतृत्व की परख ही तो नहीं हो रही है ?
( विजय शंकर सिंह )
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