Tuesday, 5 May 2020

मार्क्स और ग़ालिब के बीच एक दुर्लभ पत्राचार / विजय शंकर सिंह

इंटरनेट भी एक तिलिस्म की तरह है। परत दर परत खुलता हुआ एक विचित्र संसार है यह। कल रात कार्ल मार्क्स पर कुछ लिखने की सोच में, मैं लैपटॉप पर इंटरनेट की दुनिया की सफर में मशगूल था कि अचानक एक ऐसे लेख  का लिंक खुल गया कि मैं हैरान रह गया। यह लिंक प्रख्यात दार्शनिक कार्ल मार्क्स और मिर्ज़ा ग़ालिब के आपसी पत्राचार से सम्बंधित था। मार्क्स और ग़ालिब के यह पत्र उसी लेख से लिये गए हैं । 

कहाँ ग़ालिब और कहां मार्क्स ! बिल्कुल कहाँ मयखाने का दरवाजा और कहां वाइज के रूपक की तर्ज़ पर। पर जब उसे पढ़ा तो लगा कि दो तीन ही बार सही, पर ग़ालिब और मार्क्स के बीच पत्राचार हुआ है। मार्क्स एक प्रख्यात राजनीतिक दार्शनिक चिंतक थे और ग़ालिब उर्दू के दिग्गज शायर। मार्क्स लंदन में थे और ग़ालिब दिल्ली में। मार्क्स का विषय अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, दर्शन और पूंजी श्रम के रिश्ते का अध्ययन था और ग़ालिब अदब और सुखन की दुनिया के सबसे अज़ीमुश्शान दस्तखत। लेकिन क्या दोनो एक दूसरे से परिचित थे ? क्या दोनो की आपस मे कोई मुलाकात हुयी थी ? उत्तर है न परिचित थे, न मुलाकात हुयी थी। 

लेकिन लंदन में बैठ कर भी मार्क्स भारत मे ब्रिटिश साम्रज्यवाद के बढ़ते कदम की चाप बेहद सतर्कता से सुन रहे थे। भारत से खबरों का जो डिस्पैच लन्दन जाता था उसे वे पढ़ते थे और औद्योगिक क्रांति के बाद कैसे साम्राज्यवाद का स्वरूप बदल रहा था,इससे अपने अध्ययन और निष्कर्ष को तौल भी रहे थे। उन्होंने 1857 के विप्लव जिसे अंग्रेज एक सिपाही विद्रोह से अधिक कुछ और कहने में हिचक रहे थे, तभी मार्क्स ने इस विप्लव को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की जनता और किसानों का एक इंक़लाब समझ लिया था। 

उन्होंने 1857 के विप्लव पर एक किताब भी लिखी । हालांकि उस पुस्तक  लेखन में मार्क्स के पास सामग्री का अभाव था। विप्लव की खबरों के संबंध में जो डिस्पैच दिल्ली या कलकत्ता से ब्रिटिश हुकूमत लंदन भेजती थी उसी के आधार पर मार्क्स की यह पुस्तक है। 1857 के विप्लव के संबंध में जो सूचनाएं उन्हें मिली थीं, निश्चित ही वह एक पक्षीय रही होंगी। पर मार्क्स की तीक्ष्ण मेघा ने उन सामग्रियों से ही यह भांप लिया कि ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति भारत मे गहरा असंतोष पनप रहा है, औऱ मार्क्स का यह अंदाजा गलत भी नहीं था। 

कार्ल मार्क्स और ग़ालिब के बीच हुए इन बहुमूल्य पत्रों को ढूंढ निकालने का श्रेय, वायस ऑफ अमेरिका में कार्यरत,  आबिदा रिप्ले को जाता है। आबिदा के ही शब्दों में ही इन पत्रों की खोज का किस्सा पढ़ लें। 

" आज से ठीक पंद्रह वर्ष पहले मैं लंदन स्थित इंडिया ऑफिस के लाइब्रेरी गई थी। किताबों की आलमारियों के बीच मुग़ल काल की एक फटी-पुरानी किताब दिख गई। जिज्ञासावश उसे खोला, तो उसके अंदर से एक पुराना पत्ता नीचे फ़र्श पर जा गिरा। पत्ते को उठाते ही चौंक पड़ी। लिखने की शैली जानी-पहचानी लग रही थी, लेकिन शक़ अब भी था। पत्ते के अंत में ग़ालिब के दस्‍तख़त और मुहर ने मेरे संदेह को यक़ीन में बदल दिया। घर लौटकर खलिक अंजुम की किताबों में चिट्ठियों के बारे में खोजा, लेकिन जो ख़त मेरे हाथ में था, उसका जिक्र कहीं नहीं मिला। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि इस पत्र में जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्‍स को संबोधित किया गया था। विडंबना यह है कि आज तक किसी इतिहासकार की नज़र इस ख़त पर नहीं गई। पंद्रह साल के बाद आज मेरे हाथ मार्क्‍स का ग़ालिब के नाम लिखा गया पत्र भी लग गया है। उर्दू एवं फारसी भाषा के महान शायर ग़ालिब और महान साम्यवादी विचारक मार्क्‍स… एक-दूसरे से परिचित थे।"

अब कार्ल मार्क्स द्वारा ग़ालिब को लिखा पत्र पढ़े। यह पत्र रविवार, 21 अप्रेल, 1867 
लंदन, इंग्लैंड से ग़ालिब को भेजा गया था। 
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प्रिय ग़ालिब,

दो दिन पहले दोस्त एंगेल्स का ख़त मिला। पत्र के अंत में दो लाइनों का खूबसूरत शेर था। काफी मशक्कत करने पर पता चला कि वह कोई मिर्जा़ ग़ालिब नाम से हिन्दुस्तानी शायर की रचना है। भाई, अद्धुत लिखते हैं! मैंने कभी नहीं सोचा था कि भारत जैसे देश में लोगों के अंदर आज़ादी की क्रांतिकारी भावना इतनी जल्दी आ जाएगी। लॉर्ड की व्यक्तिगत लाइब्रेरी से कल आपकी कुछ अन्य रचनाओं को पढ़ा। कुछ लाइनें दिल को छू गईं।

‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा हैं’

कविता के अगले संस्करण में इंकलाबी कार्यकर्ताओं को संबोधित करें। जमींदारों, प्रशासकों और धार्मिक गुरुओं को चेतावनी दें कि गरीबों, मजदूरों का खून पीना बंद कर दें। दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ।

हिन्दुस्तानी शेरो-शायरी की शैली से मैं वाकिफ़ नहीं हूं। आप शायर हो, शब्दों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। कुछ भी मौलिक लिखें, जिसका संदेश स्पष्ट हो- क्रांति। इसके अलावा, यह भी सलाह दूंगा कि ग़ज़ल, शेरो-शायरी लिखना छोड़ कर मुक्त कविताओं को आज़माएं। आप ज्यादा लिख पाएंगे और इससे लोगों को अधिक सोचने को मिलेगा।

इस पत्र के साथ कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का हिन्दुस्तानी संस्करण भेज रहा हूं। दूसरा संस्करण भेज रहा हूं। दुर्भाग्यवश पहले संस्करण का अनुवाद उपलब्ध नहीं है। अगर यह पसंद आई तो आगे और साहित्य भेजूंगा। वर्तमान समय में भारत अंग्रेजी साम्राज्यवाद के मांद में परिवर्तित कर दिया गया है और केवल शोषितों, मजदूरों के सामूहिक प्रयास से ही जनता को ब्रिटिश अपराधियों के शिकंजे से आज़ाद किया जा सकता है। आपको पश्चिमी आधुनिक दर्शन के साथ-साथ एशियाई विद्वानों के विचारों का अध्ययन भी करना चाहिए। मुग़ल राजाओं और नवाबों पर झूठी शायरी करना छोड़ दें। क्रांति निश्चित है। दुनिया की कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती। मैं हिन्दुस्तान को क्रांति के निरंतर पथ पर चलने के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

आपका,
कार्ल मार्क्‍स
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कार्ल मार्क्स के इस पत्र का उत्तर ग़ालिब ने इस प्रकार दिया। यह उत्तर सितंबर 9, 1867 को प्रेषित किया गया था। तब तक ग़ालिब बहुत बूढ़े हो चुके थे और 15 फरवरी 1869 को उनका देहांत हो गया था। 

मेरे अनजान दोस्त काल मार्क्‍स,

कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के साथ तुम्हारा ख़त मिला। अब तुम्हारे पत्र का क्या जवाब दूं। दो बातें हैं…पहली बात कि तुम क्या लिखते हो, यह मुझे पता नहीं चल पा रहा है। दूसरी बात यह कि लिखने और बोलने के हिसाब से मैं काफी बूढ़ा हो गया हूं। आज एक दोस्त को लिख रहा था, तो सोचा क्यों न तुम्हें भी लिख दूं।

फ़रहाद (संदर्भ में ग़ालिब की एक शायरी) के बारे में तुम्हारे विचार गलत हैं। फ़रहाद कोई मजदूर नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो बल्कि वह एक प्रेमी है। लेकिन प्यार के बारे में उसके सोच मुझे प्रभावित नहीं कर पाए। फरहाद प्यार में पागल था और हर वक्त अपने प्यार के लिए आत्महत्या की बात सोचता है।

और तुम किस इनकलाब के बारे में बात कर रहे हो। इनकलाब तो दस साल पहले 1857 में ही बीत गया। आज मेरे मुल्क की सड़कों पर अंग्रेज सीना चौड़ा कर घूम रहे हैं। लोग उनकी स्तुति करते हैं… डरते हैं। मुग़लों की शाही रहन-सहन अतीत की बात हो गई है। उस्ताद-शागिर्द परंपरा भी धीरे-धीरे अपना आकर्षण खो रही है। यदि तुम विश्वास नहीं करते, तो कभी दिल्ली आओ। और यह सिर्फ दिल्ली की बात नहीं है। लखनऊ भी अपनी तहजीब खो चुकी है… पता नहीं वो लोग और अनुशासन कहां ग़ुम हो गया। तुम किस क्रांति की भविष्यवाणी कर रहे हो। अपने ख़त में तुमने मुझे शेरो-शायरी और ग़ज़ल की शैली बदलने की सलाह दी है। शायद तुम्हें पता न हो कि शेरो-शायरी या ग़ज़ल लिखे नहीं जाते हैं। ये आपके ज़हन में कभी भी आ जाते हैं। और मेरा मामला थोड़ा अलग है। जब विचारों का प्रवाह होता है, तो वे किसी भी रूप में आ सकते हैं। वो चाहे फिर ग़ज़ल हो या शायरी। मुझे लगता है कि ग़ालिब का अंदाज़ सबसे जुदा है। इसी कारण मुझे नवाबों का संरक्षण मिला। और अब तुम कहते हो कि मैं उन्हीं के खिलाफ कलम चलाऊं। अगर मैंने उनकी शान में कुछ पंक्तियां लिख भी दीं, तो इसमें गलत क्या है।

दर्शन क्या है और जीवन में इसका क्या संबंध है, यह मुझसे बेहतर शायद ही कोई और समझता हो। भाई, तुम किस आधुनिक सोच की बात कर रहे हो। अगर तुम सचमुच दर्शन जानना चाहते हो, तो वेदांत और वहदुत-उल-वजूद पढ़ो। क्रांति की रट लगाना बंद कर दो।

तुम लंदन में रहते हो… मेरा एक काम कर दो। वायसराय को मेरी पेंशन के लिए सिफारिश पत्र डाल दो…।

बहुत थक गया हूं। बस यहीं तक।

तुम्हारा,
ग़ालिब
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ग़ालिब एक अत्यंत प्रतिभासम्पन्न शायर ही नहीं थे बल्कि वे एक नियमित पत्र लेखक भी थे। उनके पत्रों के संग्रह ग़ालिब के खत के नाम से प्रकाशित भी हुए है। पहले वे फ़ारसी में खत लिखा करते थे पर बाद में उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के डॉ महेश प्रसाद ने उनके पत्रों के संग्रह को एकत्र किया और उनका इरादा इसे दो खंडों में छपवाने का था, पर महेश प्रसाद जी के जीवन काल मे यह संभव नहीं हो सका।बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और ग़ालिब एकेडमी ने उनके पत्रों के संकलन प्रकाशित किये। 

ग़ालिब के खत भी उनके शेरों और गज़लों की तरह साहित्यिक श्रेष्ठता से परिपूर्ण है। 1857 के विप्लव के इतिहास लेखन में ग़ालिब के पत्रों का उपयोग किया गया है। मेरठ से क्रांतिकारियों के आने, लाल किला घेर लेने और फिर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर को विद्रोह की कमान सौंपने, फिर अंग्रेजों का दिल्ली पर आधिपत्य जमाने और बादशाह को गिरफ्तार कर के कलकत्ता ले जाने के कई उल्लेख उन पत्रों में मिलते हैं। कार्ल मार्क्स ने ग़ालिब के लिखे केवल यही खत पढ़े हैं या और भी उन्होंने देखें है यह ज्ञात नहीं है। 

यह पत्राचार न केवल अपने अपने क्षेत्र में शीर्ष पर स्थापित दो महान हस्तियों के बारे में उनके व्यक्तित्व के एक नए पहलू का दर्शन कराती है बल्कि यह मार्क्स के एक भविष्यवक्ता जैसे कथन को भी दिखाती है जिसमे वे पूरी तरह से आशान्वित हैं कि भारत से ब्रिटिश साम्रज्यवाद का खात्मा जल्दी ही होगा। 1857 के बाद भी कहीं न कहीं भारत मे लोगों का अंग्रेजी हुक़ूमत के प्रति असंतोष भड़कता रहा और यह मुखरित भी होता रहा। एक आईसीएस अफसर, एओ ह्यूम जो 1857 के समय उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के कलेक्टर थे ने इसे समझा और ब्रिटिश राज की ही सहमति से एक सेफ्टी वाल्व थियरी के अंतर्गत 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन किया । लेकिन न तो यह सेफ्टी वाल्व काम आया और न ही असंतोष की मुखरता कम हुयी, बल्कि यही संगठन देश से ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे का सूत्रधार बना।

( विजय शंकर सिंह )

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