Friday, 6 September 2019

ट्रैफिक पुलिस के जवान के साथ मारपीट अनुचित और निंदनीय है / विजय शंकर सिंह

नए मोटर वेहिकिल एक्ट 2019 के लागू होने के बाद, सड़कों पर ट्रैफिक चेकिंग के समय ट्रैफिक पुलिस के जवानों के साथ कुछ अराजक तत्वों ने मारपीट की घटनाएं की हैं। यह एक्ट न तो पुलिस ने लागू किया है और न ही इसके चालान के नियम पुलिस मुख्यालय से तय हुये हैं। यह नियम सरकार ने संसद में मंजूरी के बाद लागू किया है, बस उस अधिनियम का उल्लंघन न हो, यह देखना यातायात पुलिस का काम है। ऐसा भी नही  कि यह नियम जब से आया है तब से ही ट्रैफिक चेकिंग शुरू हुयी है। बड़े शहरों में यह यातायात चेकिंग बराबर चलती रहती है। पर कस्बों और देहातों में यह पहले भी कम चलती थी, अब भी कम ही होगी।

उत्तरप्रदेश में यातायात पुलिस की सक्रियता अक्सर महत्वपूर्ण क्षेत्रो और चौराहो पर होती है। इसका एक बड़ा कारण है यातयात पुलिस की कमी। यूपी में पुलिस जनशक्ति की कमी है और इसके कारण अनेक हैं। पुलिस में भी यातायात पुलिस में सबसे अधिक कमी रहती है। क्योंकि यह विभाग,  पुलिस की प्राथमिकता में इतना अधिक नहीं आता है जितना अपराध के अन्वेषण, और कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस के विभाग आते हैं। क्योंकि अपराध और कानून व्यवस्था से जुड़ी घटनाए, जनता, मीडिया, सरकार आदि सबके लिये महत्वपूर्ण होती है । यातायात उल्लंघ कभी भी मीडिया और जनता के लिये महत्वपूर्ण नहीं रहा है, बल्कि सख्ती से इस उल्लंघन पर की जाने वाली चेकिंग, ज़रूर एक खबर बनती है और अगर उस दौरान कोई उत्कोच या पुलिस द्वारा अभद्रता की घटना हो गयी तब तो निश्चय ही, यह खबर सुर्खियों में जगह पाती है ।

यातायात पुलिस निःशस्त्र होती है और जिस काम के लिये लगाई जाती है उस काम मे लाठी तक की आवश्यकता नहीं होती है रहता है, शस्त्र की तो बात ही अलग है। हर जगह लगातार ट्रैफिक पुलिस की सहायता और सुरक्षा के लिये सशस्त्र पुलिस लगायी भी नहीं जा सकती है। क्योंकि यातायात प्रबंधन से कहीं और महत्वपूर्ण कार्य, अपराध और कानून व्यवस्था के मुद्दे हैं। इसी जनशक्ति को कम करने के लिये चौराहों पर सीसीटीवी कैमरे, लाल, पीली, हरी बत्तियां, जेब्रा लाइन और अन्य यातायात संकेतक लगाए जाते हैं। पर ये निर्जीव संकेतक उस आदमी को कैसे रोक सकते हैं जो इस यातायात प्रबंधन को तोड़ कर ही आनंदित होता है !

अब नए एक्ट के बाद जब चालान की राशि अधिक बढ़ गयी है तो लोग आक्रोशित हैं और उनका यह आक्रोश ट्रैफिक पुलिस पर उतर रहा है । सोशल मीडिया पर बहुत से वीडियो और खबरें साझी हो रही हैं, जिनसे यह पता चलता है कि, ट्रैफिक पुलिस के जवानों को लोग मार पीट रहे हैं। भीड़ के आगे बेबस इक्का दुक्का ट्रैफिक पुलिस के जवान मार खा रहे हैं और पिट रहे हैं। यह स्थिति चिंताजनक है। कानून व्यवस्था का यह एक नया फ्रंट खुल रहा है जिससे आगे चल कर और भी समस्याएं आ सकती हैं।

यह कहना बहुत आसान है कि लोग यातायात नियमों का पालन करें तो वे इन सारी समस्याओं और भारी चालान से बच जाएंगे। यह सुझाव एक आदर्श सुझाव है और यह अपेक्षा भी एक आदर्श अपेक्षा है। सब के सब विधिपालक हों जाय यह तो एक प्रकार का काल्पनिक आदर्शवाद है, यूटोपिया है। पुलिस आदर्श स्थितियों के नहीं गठित की गयी है, बल्कि यह स्थिति आदर्श बने, इसलिए गठित हुयी है। अगर सब कुछ आदर्श हो जाय तो पुलिस और कानून की ज़रूरत ही नही रहेगी। राजा दिवोदास के काशी जैसी स्थिति हो जायेगी जिसे देवताओं ने इस लिये छोड़ दिया था, कि उनकी अब वहां आवश्यकता ही नहीं रह गयी थी।

सड़क पर बहुत से लोग यातायात नियमो का गम्भीरता से पालन करते हैं। विशेषकर उन ट्रैफिक विन्दुओं पर जहां उन्हें पता रहता है कि नियमित ट्रैफिक चेकिंग होती रहती है। पर पुलिस भी जानबूझकर कुछ जगहों पर आकस्मिक चैकिंग करने लगती है और वहां लोग समझते हैं कि यहां तो कोई नहीं होगा, और वहीं ऐसी अशोभनीय स्थिति आ जाती है। फिर वसूली का आरोप लगता है, अभद्रता की शिकायत होती है और फिर नोकझोंक मारपीट में बदल जाती है। कहाँ तो हेलमेट न होने पर आपत्ति थी, अब यहां आइपीसी के अंतर्गत मुक़दमा कायम होने की नौबत आ जाती है।

मूल समस्या विधिनुकूल चलने की है, कानून को गम्भीरता से लेने की है, पर कानून के प्रति अवज्ञा भाव हममें इतना बढ़ गया है कि आज भी जब मैं अपनी निजी कार चलाते हुए सड़क पर निकलता हूँ और कोई ट्रैफिक पुलिस का जवान, विनम्रता से भी मुझसे डीएल तलब करता है तो खीज उठने लगती है। जबकि वह कुछ भी गलत नहीं कर रहा है। पर वहीं कभी जब कोई ट्रैफिक पुलिस वाला, जो, मुझे या मेरी कार को पहचान जाता है, और पहचानने पर रोकता भी नहीं है,  तो वही खीज आत्मश्लाघा में बदल जाती है और  तब हमारे अंदर का सुप्त और संवेगीय भौकाल अचानक मुझे तृप्त कर जाता है और वह, ट्रैफिक पुलिस का जवान, जो मुझे बिना रोके सैल्यूट मार कर, रास्ता खाली करा के जाने देता है, उस ट्रैफिक पुलिस के जवान की तुलना में बेहतर और प्रिय लगने लगता है जो मुझे रोक कर मेरा कागज मांगता है, कुछ सवाल करता है और हिदायतें देता है । यह विधिनुकूल न चलने और 'कानून सबके लिये बराबर है' के सिद्धांत को, अंदर से कहीं न कहीं स्वीकार न करने की मानसिकता का परिणाम है।

सुरक्षित चलने के लिये, और चौराहों पर किसी भी रोक टोक ठोक से बचने के लिये जरूरी है कि आप सब यातायात नियमों का पालन करें, बजाय इसके कि अपनी ड्यूटी पर खड़े सिपाही जो इसी समाज का अंग है से उलझें और उससे मारपीट करें। समाज जैसा है पुलिसजन भी वैसे ही ढल जाते हैं। परम नैतिकता के द्वीप बने रहने की आशा पुलिस से नहीं की जानी चाहिये।  यह कहा जा सकता है कि, पुलिस को विशेष ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वह कानूनी रूप से कानून लागू करें। पर तमाम नीति कथाओं, उपदेशों के बावजूद समाज भी कहीं सुधरा है ? लेकिन यह तर्क पुलिसजन के कदाचार के बचाव में बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिये। इन सब कदाचारों के लिये पुलिसजन को दंडित करने के लिये नियम कानून बने हैं। जनता इन कदाचारों की शिकायत करे न कि सड़क पर ही कानून अपने हांथ में लेने लगे। ड्यूटी पर पुलिसजन से मारपीट  की यह घटनाएं, अनुचित और निंदनीय तो है ही साथ ही भारतीय दंड संहिता में दंडनीय अपराध भी है।

© विजय शंकर सिंह

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