Tuesday, 10 September 2019

मोहर्रम - शहीद कभी मरते नहीं हैं, वे अमर रहते है / विजय शंकर सिंह

अपने हक़ के लिये बलिदान हो जाने का एक अद्भुत आख्यान है कर्बला की जंग। मोहर्रम के महीने में हुये इस युद्ध के कारण इसे मोहर्रम के नाम से जाना जाता है। बहुत कुछ लिखा जा चुका है इस जंग पर, और इस जंग के आतताइयों पर, हक़ पर जान दे देने वाले महानायकों पर, और आगे भी बहुत कुछ लिखा जाता रहेगा ऐसे महान आख्यान पर। ज़ुल्म, ज़ुल्मत, और जालिम हर युग मे आते रहते हैं, यह दुनिया की तासीर है। कभी वह जीत जाते हैं, तो कभी उनका पता ही नहीं चलता है।

कर्बला के इस जंग को अगर धर्म के संकीर्ण घेरे से अलग कर के देखें तो यह मानव इतिहास की उन कम ही घटनाओं में शुमार होगी जहां एक परिवार और उसके साथियों को प्यास से तड़पा तड़पा कर मार डाला गया। एक तरफ 72 लोग थे, और दूसरी तरफ हज़ार से अधिक की फौज। यह सत्ता प्राप्ति की एक जंग थी । जंग तो हमेशा सत्ता के लिये ही होती है, धर्म तो उसका बस वाहक बनता है । जंगों में कोई उसूल नहीं होता है । यह जंग दस दिन चली। एक एक कर के हसन और हुसैन के साथी शहीद होते रहे, पर अंतिम व्यक्ति के जीवित रहने तक यह जंग जारी रही । शहीद होने वालों में 6 माह के शिशु अली असग़र भी थे। पर यह जंग तब तक जारी रही जब तक बहत्तर लोगों का वह छोटा सा लश्कर शहीद नहीं हो गया। जीत तो गया था यज़ीद, पर आज उस यज़ीद का नाम शैतान का पर्याय है, और शहीद होकर हुसैन आज भी उनके हममजहब वालों के ही दिल मे नहीं बल्कि सबके दिलों में जिंदा है और सम्मान पाते हैं।

दुनिया के सारे धर्मग्रंथ शैतान की भी कल्पना करते हैं, और यह ज़ुल्म भी ऐसे ही एक शैतान के शैतानियत की ज़ुल्म भरी  कथा है। जो अपनी अपार ताकत, सैन्यबल के बावजूद तात्कालिक रूप से भले ही सफल हो गया हो, पर वह इतिहास में सदैव निंदित रहता है और उन्हें खलनायक ही माना जाता है।

मोहर्रम पर बहुत पहले एक उपन्यास पढा था, एक क़तरा खून। लेखिका है इस्मत चुगताई। यह रोचक उपन्यास मैंने एक ही बार मे, लगातार पढा और आज भी यह उपन्यास और संघर्ष की यह अमर बलिदानी गाथा मेरे जेहन में उत्कीर्ण है। आज उसी की याद में दुनियाभर में मातम मनाया जा रहा है। यह जंग एक संदेश भी देती है कि ज़ुल्म और ज़ालिम का विरोध करना पुण्य कार्य है और यह उम्मीद भी बंधाती है कि ज़ुल्म और ज़ालिम सदैव हारते हैं। यह ध्रुव सत्य है।

शोक का कोई पर्व नहीं होता है। भारतीय परम्परा में कोई शोकोत्सव होता भी नहीं है। शोक और उत्सव दोनों ही विरोधाभासी हैं। यह अवसर, शहीदों को नम आंखों से याद करने का है। उनपर बीती ज़ुल्म की दास्तान सुनाने का दिन है। मर्सिया, मातम के विभिन्न प्रकार के किस्से, कैसे वक़्त के साथ साथ मोहर्रम के मातमी माहौल में जुड़ते गये यह मुझे नहीं मालूम, पर मोहर्रम के अवसर पर गाये जाने वाले शोकगीत निश्चित ही गमगीन कर देते हैं। शोक एक अनुभव करने का मनोभाव है। पर शोक के साथ साथ उन अमर बलिदानियों के संघर्ष, जज़्बे और न झुकने वाले साहस और अपने ईमान पर अडिग रहने वाली भावना को भी स्मरण करना चाहिये।

मूल्यों के लिये कुर्बान होना ही तो शहादत है जो इन 72 लोगों ने दिया। यज़ीद ने रास्ता रोका। पानी रोका। हमले किये। पर हुसैन न झुके न टूटे। एक योद्धा की तरह उन्होंने इस ज़ुल्म का सामना किया और अंतिम दम तक यह लश्कर लड़ता रहा और शहीद हुआ। पूरी दुनिया मे यह जंग जंगे कर्बला के नाम से विख्यात है। युद्ध मे जय पराजय तो होती ही है। निश्चय ही तात्कालिक रूप से विजय महत्वपूर्ण होती है, पर सबसे महत्वपूर्ण है कि आप उस युद्ध मे किसकी ओर खड़े हैं। सत्य, अधिकार और अपने वसूलों के अनुसार लड़ने वाले योद्धा की तरफ या अनाधिकार चेष्टा कर सत्य का गला घोंटने वालों की तरफ।

इस लघु लेख के साथ मित्र प्रकाश के रे द्वारा उद्धृत और शाहिदा हसन द्वारा लिखा यह  खूबसूरत शेर और यह पेंटिंग साझा कर रहा हूँ।

हुजूम-ए-तिश्ना-लबाँ का सुराग़ दे मुझको
विरासतों में मिरी दश्त-ए-कर्बला भी है
- शाहिदा हसन

I learned from Hussain how to be wronged and be a winner, I learnt from Hussain how to attain victory while being oppressed.
- Mahatma Gandhi
( गाँधीजी ने कहा था - मज़लूम होते हुए फ़तेह हासिल करना, मैंने इमाम हुसैन से सीखा था. )

© विजय शंकर सिंह

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