5 सितम्बर को जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 पास हुआ था और यह राज्य दो हिस्सों में बंट कर दो केंद्र शासित राज्यों जम्मूकश्मीर और लदाख में बंट गया । साथ ही अनुच्छेद 370 के अधीन प्राप्त राज्य का विशेष दर्जा भी समाप्त कर दिया गया। लेकिन इस निर्णय के कुछ दिन पहले से ही शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिये, एहतियातन कई कदम उठाए गए थे। अमरनाथ यात्रा को बीच मे ही रोक कर यात्रियों को वापस कर दिया गया, सामान्य पर्यटक जो इस सीजन में जम्मूकश्मीर की अर्थव्यवस्था के लिये एक महत्वपूर्ण अंग होते हैं उन्हें 'जहां हैं जैसे हैं' राज्य छोड़ कर जाने के लिये कह दिया गया। सेना सहित अन्य सुरक्षा बलों की तैनाती बढा दी गयी। हुर्रियत के नेता तो जेलों में बंद कर ही दिए गए, पर मुख्य धारा में चुनाव लड़कर संसद और विधानसभा में पहुंचने वाले तीन पूर्व मुख्य मंत्रियों और अन्य नेताओं को भी उनके घरों में हिरासत में रख दिया गया। आज लगभग एक माह कश्मीर में सामान्य गतिविधियों को बाधित हुए हो रहा है और अब तक सरकार का एक भी कदम ऐसा नहीं दिख रहा है जिसके आधार पर यह कहा जाय कि अब स्थिति सामान्य होगी।
जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 के पारित होने के बाद, देश मे व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। अनुच्छेद 370 के खत्म करने का वायदा भाजपा के कोर वायदों में से एक वायदा था, तो सरकार समर्थक इस वायदे के पूरा होने से खुश हुये, अन्य सामान्य लोगों ने यह उम्मीद की थी कि, इससे जम्मूकश्मीर में लंबे समय से चली आ रही आतंकी और हिंसक गतिविधियों पर लगाम लगेगी और राज्य में अमन चैन की बहाली होगी, तो वे इस उम्मीद में तनावमुक्त हुये, विरोधी दलों ने यह आशंका जताई कि इससे जम्मूकश्मीर की अंदरूनी स्थिति और बिगड़ेगी तथा तनाव बढ़ेगा, स्थिति और भड़केगी तथा राज्य का वह तबका जो अलगाववादियों के खिलाफ शुरू से ही रहा है, वह अब अपने को अलग थलग और ठगा गया महसूस करेगा, क्योंकि उसकी कोई भूमिका इस बिल के पारित होने में नहीं है, तो उन्होंने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिये, कानून के जानकार इस कानून में संविधान संशोधन की प्रक्रियागत खामियों पर बात करने लगे, कहने का आशय यह कि देश के अंदर हर तरह के लोगों की अलग अलग प्रतिक्रिया हुयी। इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सात जनहित याचिकायें भी दायर हुयीं हैं, और सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सुनवायी भी शुरू कर सरकार को नोटिस भी जारी कर दिया है। अब आगे क्या होता है, यह भविष्य के गर्भ में है।
विदेशों से भी प्रतिक्रिया मिली है। सभी बड़ी ताक़तों ने भारत के इस कदम को उसका आंतरिक मामला बताया है और कश्मीर सहित भारत पाकिस्तान के आपसी विवाद को आपस मे मिल बैठ कर बात करने और समस्या सुलझाने के लिये भी कहा। कूटनीतिक क्षेत्र में यह हमारे लिये राहत की बात है कि विश्व बिरादरी आज भी भारत पाक संदर्भो में शिमला समझौता और लाहौर डिक्लेरेशन को प्रासंगिक मानती है। पर अभी यूएस के डेमोक्रेट नेता बन्नी सांडर्स ने कश्मीर के मामले पर विशेषकर कश्मीर में प्रतिबन्धों के संदर्भ में एक असहज करने वाला बयान दिया है कि भारत सरकार कश्मीर से प्रतिबंध हटाये। हालांकि यह भारत का आंतरिक मामला है कि कानून व्यवस्था की स्थितियों को देखते हुए हम कहां कहां क्या एहतियाती कदम उठाते हैं। यूएस में नए राष्ट्रपति का चुनाव 2020 में होना है। यह बयान यूएस के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कूटनीतिक स्टैंड को निशाने पर लेने के लिये अधिक है न कि भारत के संदर्भ में, ऐसा मेरा मानना है।
एक प्रतिक्रिया पाकिस्तान से भी आयी है और अब भी वह अधिक जोर शोर से आ रही है। कश्मीर का एक हिस्सा जिसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है पाक के कब्जे में 1948 से ही है। पाकिस्तान ने उसका कुछ भाग चीन को भी दे दिया है। इस भूखंड को जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहता है, पाकिस्तान का कानूनी भाग आज तक नहीं बन पाया है। पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में इस भूभाग को अपने क्षेत्राधिकार में मानने से मना कर दिया है। यह भूभाग, उपेक्षित और अनेक जन सुविधाओं से महरूम है। यह एक प्रकार से पाकिस्तान के लिये आतंकवादी ब्रीडिंग सेंटर के रूप में हैं। वह यहां आतंकी शिविर चलाता है और कश्मीर में होने वाली सारी आतंकी घटनाओं को पाकिस्तान यहीं से संचालित करता है। पाकिस्तान की यह प्रतिक्रिया भी उसके अपने देशवासियों को यह जताने के लिये अधिक है कि वह कश्मीर मसले पर खामोश नहीं है बल्कि वह कुछ न कुछ कर रहा है।
पाकिस्तान को यह भय है कि अनुच्छेद 370 के संशोधन के बाद भारत, पाक अधिकृत कश्मीर को लेने के लिये कदम बढ़ा सकता है। इस लिये उसके लिये यह ज़रूरी है कि कश्मीर में अशांति बनी रहे। उसने इसी अशांति को बनाये रखने के लिये न केवल यूएन में शोर मचाया बल्कि चीन, यूएस सहित अन्य देशों के सामने भी गुहार लगाई। चीन को छोड़ कर किसी भी देश और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी उसकी एक न सुनी। चीन का पाकिस्तान और पीओके में जबरदस्त आर्थिक हित हैं तो उसकी यह विवशता है कि वह पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखे। यूएस को भी लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान में फंसे होने का एहसास है और वह वहां से निकलना चाहता है। ऐसे अवसर पर वह पाकिस्तान की बात पर भी कभी कभी ध्यान दे देता है। पर वह हमारे विरुद्ध नहीं है।
कश्मीर के समक्ष, आज की तिथि में मुख्य समस्या है, वहां की नागरिक आज़ादी पर प्रतिबंध, संचार के साधनों पर रोक, हालांकि, अखबारों पर कोई प्रतिबंध नहीं है पर संचारावरोध के कारण उनका प्रकाशन अनियमित है। इसे लेकर कश्मीर टाइम्स की प्रबंध संपादक ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर कर रखी है। कहा जा रहा है कि, इस मीडिया ब्लैकआउट के कारण वहां से वास्तविक हालात की खबरें नहीं आ पा रही हैं। विदेशी मीडिया और कुछ स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा कुछ वीडियो और लेख सोशल मीडिया पर लगभग रोज ही पोस्ट हो रहे हैं उनसे तो यही लगता है कि वहां स्थिति सामान्य नहीं है। हाल ही में हुए राहुल गांधी सहित अन्य विपक्षी दलों के नेताओ के दौरे को श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही रोक दिए जाने से यही बात फैल रही है कि वहां स्थिति असामान्य है। अभी हाल ही में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से अपने घर मे ही निरुद्ध अपने एक विधायक से मिलने के लिये श्रीनगर गए। उन्हें अपने विधायक से मिलने की अनुमति तो थी पर शहर में कहीं और जाने की अनुमति मिली थी।
अब आज लगभग एक माह के ब्लैकआउट के बाद, सबसे बड़ा सवाल सरकार के सामने यह है कि जब प्रतिबंध हटेंगे तब क्या होगा। कश्मीर की हालत आज की तिथि में, उस मरीज़ की तरह है जो अभी आईसीयू में एक बड़े ऑपरेशन के बाद लेटा है। उस पर गम्भीर नज़र रखी जा रहीं है। जब वह कुछ स्वस्थ हो और आईसीयू से निकल कर वार्ड में और फिर अस्पताल से निकल कर घर आये तो यह पता चले कि इस ऑपरेशन का क्या लाभ हुआ है। इस कदम को जम्मूकश्मीर की जनता ने कितनी प्रसन्नता और सदाशयता से लिया है इसकी समीक्षा अभी सम्भव नहीं है। हालांकि सरकार ने बीस दिन पहले ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का श्रीनगर के एक बाजार में कुछ स्थानीय लोगों के साथ बातचीत और जलपान करते हुए एक फोटो जारी किया था। लेकिन पृष्ठभूमि में बंद दुकानें और सन्नाटा यह बता रहा था कि यह एक भरोसा उत्पन्न करने की ड्रिल है। अतः अभी केवल इंतज़ार ही किया जा सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्राविधान था। यह जम्मूकश्मीर के राजा हरी सिंह के कहने पर संविधान में जोड़ा गया था। इस प्राविधान के अनुसार किसी भी केंद्रीय कानून को जम्मूकश्मीर राज्य में लागू करने के लिये राज्य की विधानसभा से अनुमति लेना जरूरी था। यह प्राविधान जम्मूकश्मीर को आंशिक स्वायत्तता और विशिष्ट दर्ज़ा प्रदान करता था। जब से यह कानून लागू हुआ, तब से बहुत से केंद्रीय कानून राज्य की विधानसभा ने भी जस के तस लागू कर दिये। यह कानून जिस स्वायत्तता की बात करता है वह दरअसल में स्वायत्तता से अधिक यह स्वाभिमान या एक प्रकार का ईगो है कि हम शेष राज्यों से अलग हैं। अनुच्छेद 35 ए के प्राविधानों ने राज्य की जनता के दिमाग मे एक मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि विकसित कर दी थी कि, वे खुद को अलग समझने लगे थे। यह एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक अलगाववाद था। इस मनोवैज्ञानिक अलगावाद के कारण हुर्रियत जैसे अलगावाद की बात करते थे। लेकिन, अनुच्छेद 370 के संशोधित होने से इस मनोवैज्ञानिक अलगावाद के खत्म होने की प्रतिक्रिया क्या और किस तरह होगी यह तभी स्पष्ट होगा जब राज्य में सुरक्षा प्रतिबंध सामान्य हो और जनता की जमीनी प्रतिक्रिया मिले।
कश्मीर का अलगाववाद कश्मीर की जनता का मूल भाव नहीं है। मुस्लिम बहुल होने के बाद भी राज्य ने पाकिस्तान का रुख नहीं किया। इस पर यह कहा जा सकता है कि राजा हिंदू था तो उसके पास दो ही विकल्प थे। एक या तो स्वतंत्र रहे या भारत मे मिल जाय। राजा ने भारत मे मिलना स्वीकार किया। उस समय कश्मीर के बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने जिन्ना का पाकिस्तान में मिलने का ऑफर ठुकरा दिया था। लेकिन पाकिस्तान जिसका जन्म ही धर्म की अवधारणा पर हुआ है, आज तक इस धर्मांध सोच से बाहर नहीं निकल पाया कि कश्मीर मुस्लिम बहुल होते हुये भी उसकी तरफ क्यों नहीं गया। वह तभी से घाटी में विशेषकर और राज्य में आतंकवादी घटनाओं को संचालित करता रहता है और अपने गुर्गे हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं के माध्यम से अलगाववाद और भारत विरोधी अभियान चलाता रहता है।
आतंकवाद और अलगावाद खत्म हो इसके लिये यह ज़रूरी है कि कश्मीर की आम जनता का साथ मिले। आम जनता का साथ मिले इसके लिये जरूरी है कि, कश्मीर की जनता में यह विश्वास उत्पन्न हो कि पूरा देश सुख दुःख में उसके साथ हो। पूरा देश कश्मीर की जनता के सुख दुःख में साथ है, यह कश्मीर की जनता को बताने और जताने के लिये जरूरी है कि, हम कश्मीर की आम जनता और वहां के अलगाववादी, आतंकी और उपद्रवियों में साफ साफ अंतर कर के देखें। कश्मीर की समस्या हिंदू मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या के आलोक में अगर देखी और हल की जाएगी तो यह और भी जटिल होती जाएगी। सरकार को इस बिल के लाने के पहले सभी दलों के साथ सर्वदलीय बैठक कर के अपना इरादा बताना चाहिए था। पर सरकार और विरोधी दलों में एक संवादहीनता की स्थिति साफ साफ दिख रही है। सरकार अगर अपने राजनीतिक एजेंडे से चलेगी तो विपक्ष भी अपने ही राजनीतिक एजेंडे से चलेगा।लेकिन इस राजनीतिक स्वार्थ युद्ध मे अंततः नुकसान देश का ही होगा।
पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र संघ में कांग्रेस के सांसद, राहुल गांधी, हरियाणा के मुख्यमंत्री, मनोहरलाल खट्टर और एक अन्य मंत्री के हवाले से एक पत्र में कश्मीर की आसामान्य स्थिति पर चिंता जतायी है। पर उसके इस चिंता का कोई मतलब। आज भले ही उसका कब्ज़ा कश्मीर के एक तिहाई भाग पर अनधिकृत रूप से हो, पर पीओके के इलाके में भी वहां की जनता में पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ आक्रोश है। बलोच आंदोलन तो पाकिस्तान की जन्म से ही चल रहा है। पख्तून तो अपने सबसे बड़े नेता, खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में बंटवारे के ही खिलाफ थे, और अब भी कभी कभी अलग होने की बात करते हैं। जीये सिंध आंदोलन तो चल ही चुका है। मोहाजिरों की मांग तो समय समय पर उठती ही रहती है। पाकिस्तान के अपने ही देश मे अलगावाद एक बड़ी समस्या है। कश्मीर उसके लिये धर्मांध मानसिकता के लोगों के लिये एकजुट होने का विंदु है।
पाकिस्तान को कोई भी कूटनीतिक लाभ तभी होगा जब कश्मीर में स्थिति असामान्य बनी रहेगी। सबसे बड़ी चुनौती आज सरकार के सामने कश्मीर की स्थिति तो सामान्य बनाये रखने की है जिससे वहां सब कुछ सामान्य हो और सामान्य दिखे भी। ऐसे संकट के अवसर पर एक स्टेट्समैन सरीखे व्यक्तित्व की ज़रूरत होती है। अब देखना है कि इस संकटकाल में हम कोई ऐसी प्रतिभा तराश पाते हैं या नहीं जो धर्म, और स्वार्थ से भरे राजनीतिक एजेंडों से ऊपर उठ कर कश्मीर की जन्नत को फिर से बहाल कर सके। फिलहाल तो जन्नत में, उदासी है, खामोशी है और अनिश्चय भरा सन्नाटा है।
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि कश्मीर के अंदर से सुकून देने वाली खबरें आ रही हैं। अल जज़ीरा, बीबीसी, वाशिंगटन पोस्ट, जैसे विदेशी मीडिया संस्थान और न्यूज़लॉन्ड्री, द वायर,, क्विंट और जनचौक जैसे भारतीय संचार संस्थान भी अपने सीमित साधन से जो खबरें वहां से ला रहे हैं वे चिंताजनक है। किसी भी दशा में कश्मीर को लंबे समय तक खबरों से दूर ब्लैकआउट की दशा में नहीं रखा जा सकता है। इसकी अंतरराष्ट्रीय जगत में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया तो होगी ही, साथं ही कश्मीर के उस बहुसंख्यक अवाम की सहानुभूति और समर्थन भी हम खोने लगेंगे। अलगाववादी तत्वों को आम और निर्दोष जनता को बरगलाने का एक नया मौका मिल जायेगा। पाकिस्तान भले ही सार्वजनिक रूप से कश्मीर में चल रहे ब्लैकआउट का विरोध करे पर वह इस तथ्य से वाकिफ है कि, एक शांत और समृद्ध कश्मीर उसका मकसद ही खत्म कर देगा। वह एक अशांत और हिंसक घटनाओं से भरा हुआ कश्मीर चाहता है। कश्मीर में आतंक फैलाने का उसका उद्देश्य ही यह है। अब यह देखना हमारा दायित्व है कि हम अनजाने में पाकिस्तान की एजेंडा पूर्ति का साधन न बन जांय।
कश्मीर में 5 अगस्त को लिये गये फैसले में कश्मीर की जनता के प्रतिनिधियों की राय न लेना, आगे चलकर यह एक बड़ी भूल साबित हो सकती है। अभी तक अलगाववादी नेताओं और तत्वों के खिलाफ वहां के स्थानीय नेता मज़बूती से खड़े होते थे और इससे दुनियाभर में यह संदेश जाता था कि अलगावाद कश्मीर का कोई स्थायी भाव नहीं है बल्कि वह पूरी तरह से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का ही एक रूप है। पर जब सारे प्रतिबंध सामान्य होंगे, सभी नेता बाहर निकलेंगे, जब जनता के बीच जाएंगे और अपनी बात कहेंगे तो उनका स्वर और दृष्टिकोण क्या होगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। लेकिन यह विश्वास करना कठिन है कि अनुच्छेद 370 के संशोधित होने और राज्य के बंटवारे का निर्णय जिस प्रकार सबको निरुद्ध कर के लिया गया है उसे वे आसानी से स्वीकार कर लेंगे । सरकार को भी ऐसी संभावनाओं का अंदाजा होगा और सरकार ने उस स्थिति के लिये भी कोई न कोई वैकल्पिक व्यवस्था सोच रखी होगी।
जम्मूकश्मीर का मामला न तो मात्र कानून व्यवस्था का मामला है और न ही हिंदू मुस्लिम का मामला है। यह एक राजनीतिक मामला है और इसका समाधान राजनीतिक रूप से ही संभव है। आतंकवाद भी अपने आप मे एक कानून व्यवस्था का मामला ही नहीं है बल्कि यह एक राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का एक हिंसक उपाय है। केवल सुरक्षा बलों के सहारे इस व्यधि से नहीं निपटा जा सकता है। लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती सुरक्षा बलों के मनोबल और उनके उद्देश्य पर भी असर डालती है। पंजाब के आतंकवाद को याद कीजिये, वहां का आतंकवाद तभी समाप्त किया जा सका, जब वहां के स्थानीय जनता का साथ मिला और उनको विश्वास में लिया गया। कश्मीर के आतंकवाद और अलगाववाद को भी बिना कश्मीरी जनता के समर्थन और उन्हें विश्वास में लिये बिना खत्म नहीं किया जा सकता है। जम्मूकश्मीर एक दुश्मन मुल्क नहीं है और न ही वहां के सभी नेता भारत विरोधी। जो भारत विरोधी और अलगाववादी हैं उन्हें पहचान कर राजनीतिक रूप से अलग थलग कर के अप्रासंगिक करना होगा और शेष नेताओं को जो देश के संविधान के अनुसार संवैधानिक प्रक्रिया के साथ शुरू से ही हैं उनको और कश्मीर की जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि, अनुच्छेद 370 का यह संशोधन राज्य के विकास और जनता के हित मे है।
© विजय शंकर सिंह
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