कोई आवश्यक नहीं है कि निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन केवल राजतंत्र में ही हो। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी कानूनों के माध्यम से उनकी आड़ में निरंकुश और दमनकारी स्वेच्छाचारिता से भरी राज व्यवस्था पनप सकती है और यह राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली से अधिक बर्बर और दमनकारी होती है। इसी संदर्भ में, फ्रेंच दार्शनिक मांटैस्क्यू का एक महत्वपूर्ण उद्धरण पढें,
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"No tyranny is more cruel than the one practised in the shadow of the laws and under color of justice - when, so to speak, one proceeds to drown the unfortunate on the very plank by which they had saved themselves. And since a tyrant never lacks instruments for his tyranny, Tiberius always found judges ready to condemn as many people as he might suspect."
( Baron de Montesquieu )
कोई भी आतंक, दमन, उतना क्रूर नहीं होता है जितना कानून की आड़ में किया गया दमन और आतंक होता है। हम जिस कानूनी आधार पर बचना चाहते हैं उसी आधार पर डूब भी जाते हैं। और तानाशाह दमनकर्ता को दमन करने के लिये आधार और हथियारों की कमी नहीं पड़ती है, जैसे कि टिबेरियस ( द्वितीय रोमन सम्राट जिसने 14 ई से 37 ई तक रोमन साम्राज्य पर शासन किया और एक स्वेच्छाचारी शासक था ) जिसके प्रति भी शंकालु हो जाता था, उसे लांछित करने के लिये सदैव न्यायाधीशों को अपने पक्ष में खड़ा पाता था।
( बैरन द मांटैस्क्यू )
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फ्रांस के चार्ल्स लुई द सेकोंदत, बैरन द ला ब्रेडे एट द मांटैस्क्यू ( Charles-Louis de Secondat, Baron de La Brède et de Montesquieu, 18 जनवरी 1689 – 10 फरवरी 1755) जिन्हें सामान्यतः मांटैस्क्यू कहा जाता है, एक विद्वान और राजनीतिक विचारक, दार्शनिक तथा न्यायाधीश थे। उनका जन्म 18 जनवरी 1689 Château de la Brède, La Brède, Aquitaine, France में हुआ था और निधन 10 फरवरी 1755 को 65 वर्ष की आयु में पेरिस मेंं हुुुआ था।
उसने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के सबसे महत्वपूर्ण और आधारभूत सिद्धांत ' शक्ति के पृथक्करण', ( The theory of separation of powers, ) का प्रतिपादन किया था। इस अवधारणा के अनुसार, शासन के तीन महत्वपूर्ण आधारों, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अलग अलग और पृथक शक्तिकेन्द्र के रूप एक दूसरे से पृथक होकर लेकिन तार्किक चेक और बैलेंस के साथ रहते हुये राज्य व्यवस्था का अंग बनती हैं। यह सिद्धांत राजतंत्र के उस सिद्धांत जिसमे राजा, ईश्वर का अंश और दैवी माना जाता है और सत्ता के तीनों प्रमुख कार्य व्यापार, विधि का निमार्ण, विधि का शासन, और न्याय करने की समस्त शक्तियों का अँतिम केंद्र हो जाता था, के विपरीत है और जनता को राज्य की स्वेच्छाचारिता से बचा लेता है। टूटते सामंतवादी काल, और औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उभरते पूंजीवाद के काल मे जब लोकतंत्र एक वैश्विक शासन व्यवस्था बनने जा रही थी, तो यह सिद्धांत एक जनहितकारी कदम था। उनका यह सिद्धांत दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में शासन का आधार माना जाता है।
उन्होंने कानून कैसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो सकता है इस पर एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसे, डिस्पोटिज़्म यानी सत्ता के एक ही केंद्र में सभी शक्तियों का क्रूरतापूर्ण तरह से एकत्र होना, कहते हैं। कानून कैसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी बना देता है इस पर उन्होंने छद्मनाम से 1748 में एक पुस्तक भी लिखी है, द स्पिरिट ऑफ लॉ The Spirit of the Laws in 1748. इस पुस्तक में दिये गए तर्कों और सिद्धांतों ने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधानविदों को बहुत प्रभावित किया। ब्रिटेन का संविधान तो एक अलिखित संविधान है, वह परंपराओ से चलता है, पर यूएसए के संविधान निर्माताओं ने अपने संविधान में मांटैस्क्यू के शक्ति पृथक्करण और द स्पिरिट ऑफ लॉ के तथ्य और सिद्धांतों का उपयोग किया है।
मांटैस्क्यू के इन सिद्धांतों को स्वतंत्रता, समानता, और वन्धुत्व कि अलख जगाने वाली महान फ्रेंच क्रांति के बाद फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना तो हुयी, लेकिन बाद में जब नेपोलियन का उदय हुआ तो क्रांति के यह उद्देश्य और लोकतंत्र पुनः कानूनी रूप से एकतंत्र राज में बदलने लगा । इसी प्रकार,आगे चलकर, इटली का फासिस्ट मुसोलिनी और जर्मनी का हिटलर भी लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव लड़ कर ही सत्ता में आये थे पर वे अपने समय के सबसे अधिक निंदित निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासक थे। उनकी तानाशाही भी कानूनी नियमों, उपनियमों के पर्दे में ही नमूदार हुयी थी। उन बर्बर तानाशाहों ने जो भी दमन किया वह कानून बना कर, कानून की आड़ में ही किया। कानून को जब भी गैर कानूनी तरह से लागू किये जाने की कोशिश की जाएगी तो कानून न केवल अपनी उपयोगिता और महत्ता खो देगा बल्कि वह दमन, आतंक और शोषण का एक माध्यम बन जायेगा।
भारत मे अंग्रेज़ी राज जिसे प्रबुद्ध आधुनिक और विधिसम्मत राज व्यवस्था माना जाता है उस काल खंड में विशेषकर ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज में, शोषण, आर्थिक लूट, और दमन की जितनी भी घटनाये हुयी हैं वह सब कानून बना कर उनकी आड़ में ही हुयी है। चाहे वह लार्ड डलहौजी की डॉक्टरीन ऑफ लेप्स हो, या निलहे किसानों का शोषण, या ढाका के बुनकरों के कौशल की हत्या। कानून आप को संरक्षित तो करता है पर यह संरक्षण आप को निरुद्ध भी कर के आप की आज़ादी को प्रतिबंधित भी कर सकता है अगर सत्ता निरंकुश, और स्वेच्छाचारिता की भावना से ग्रसित है तो।
© विजय शंकर सिंह
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