गांधी हमेशा रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर करते थे। वे जब भारत आये तो उनसे उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा कि वे पहले भारत का भ्रमण करें। वे देश की यात्रा पर निकल गए। एक रेल यात्रा के बारे में उन्होंने जो लिखा है, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं। यह विवरण, 1918 में, उनके द्वारा की गयी एक रेल यात्रा की है।
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दक्षिण अफ्रीका से भारत आये मुझे ढाई साल हो चुके हैं। इसका चौथाई समय मैनें भारतीय रेलों के तीसरे दर्जे में सफर करते गुजारा है। यह मेरी चॉइस थी, जिससे आम भारतीय यात्रियों से मिलने, बात करने का अवसर मिलता है। लाहौर से कलकत्ता और कराची से केरल तक सफर किया, और भारत के सभी रेलवे सिस्टम में यात्रा कर चुका हूँ। उनके अफसरों को यात्रियों की अवस्था पर कई पत्र भी लिखे हैं। अब वक्त है कि यह बात प्रेस और जनता तक भी पहुचाई जाये।
इस महीने 12 तारीख को मैनें बॉम्बे से मद्रास का टिकट लिया, जिसमे 13 रुपए 9 आने चुकाए। डिब्बे में 22 यात्रियों के लिए सिर्फ बैठने की सीट थी। मुझे दो रातों का सफर करना था, लेकिन शायिका नही थी। पूना आते आते 22 लोग भर चुके थे, लेकिन इसलिए कि कुछ तगड़े लोग औरों को घुसने नही दे रहे थे। बैठे बैठे हम कुछ सो पाए, पर रायचूर के बाद स्थिति गम्भीर हो गयी। लोग घुसते गए।
रोकने वालों को रेलवे के आड़े हाथों लिया और डिब्बे में पैसेंजर ठूंस दिए। एक मेमन व्यापारी ने ज्यादा विरोध किया तो कर्मचारियों ने पहले उसे पकड़कर इन्सल्ट किया, फिर टर्मिनल आने पर अफसरों को सौप दिया। जमीन पर सोए लोगो, गंदगी औऱ भीड़ के बीच बाकी की यात्रा हुई।
पूरी यात्रा में कोच एक बार भी साफ नही हुई। पीने का पानी बेहद गंदा था, और आधी यात्रा के बाद खत्म हो गया। यात्रियों को बेचा जा रहा भोजन, चाय और रिफ्रेशमेंट बहुत गंदे थे, और गंदगी भरे हाथों से दिए जा रहे थे।
मद्रास पहुचने पर गाड़ी वाले ने निर्धारित से ज्यादा पैसे मांगे। मैनें कहा कि उसे निर्धारित पैसे लेने होंगे, या गाड़ी से उतारने के लिए उसे पुलिस बुलानी होगी।
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वापसी यात्रा भी कोई बेहतर नही थी। डिब्बा पहले ही भरा था। मुझे कोई सीट नही मिली। मेरा प्रवेश निश्चित ही निर्धारित यात्री संख्या के ऊपर था। 9 के केबिन में 12 यात्री थे। एक यात्री एक प्रोटेस्टेंट सहयात्री पर चिल्लाने लगा और लगभग धक्का देकर बाहर की कर दिया,पर लोगो ने बीच बचाव किया। शौचालय में पानी नही था। डिब्बा बड़ी बुरी हालत में था।
सहयात्री बहुरंगी थे। दो पंजाबी मुसलमान, दो शिक्षित तमिलियन, दो मुस्लिम व्यापारी मौजूद थे। उन सबने थोड़े आराम के लिए रेल कर्मचारियों को रिश्वत दी थी। एक पंजाबी तीन दिन से सफर कर रहा था, पर सो न पाया था, वो बुरी तरह थका था। एक ने बताया कि टिकट के लिए 5 रुपये रिश्वत दी है। दो को लुधियाना जाना था, काफी लंबा सफर था।
जो मैं बता रहा हूँ, यह एक्सेप्शन नही नॉर्मल है। रायचूर, ढोंध, सोनपुर, चक्रधरपुर, पुरुलिया, आसनसोल और दूसरे जंक्शन स्टेशनों पर मुसाफिरखाने देखे। ये टूटे फूटे, डरावने, गंदे और शोर से भरे थे। बेंच कम थी, लोग जमीनों पर गंदगी के बीच पसरे थे। मक्खियां झूम रही थी, लोग असभ्य गाली गलौज की भाषा मे बात कर रहे थे। जो हाल थे, उसे बताने की ताकत मेरे शब्दों में नही है। लोग यात्रा के दौरान उपवास रखते हैं, तो इसका मतलब अब समझ मे आता है।
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पहले दर्जे के किराए तीसरे दर्जे का पांच गुना है। पर क्या तीसरे दर्जे के लोगो को उन सुविधाओं का पांचवा भाग भी मिलता है? यह तो दसवां भाग भी नही है। जबकि असलियत यह है कि तीसरे दर्जे का यात्री पहले दर्जे को मिलने वाली सुविधाओं का भार उठाता है।
यात्रा के दौरान साफ सफाई, सभ्यता की एक बेहतरीन शिक्षा जो भारत के अशिक्षित और सफाई निस्पृह लोगो को दी जा सकती है, वह अवसर गंवा दिया जाता है।
दूसरे सुझावों के साथ मैं यह विनम्रता के साथ यह कहना चाहूंगा कि राजा, महाराज, इंपीरियल काउंसलर और अन्य जो उच्च दर्जे के डिब्बो में यात्रा करते हैं, उन्हें तीसरे दर्जे के डिब्बे में यात्रा करवाई जाए।
( मोहनदास करमचंद गांधी )
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