मैं 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान गया था। वहां लगभग 45 दिन घूमता रहा था। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिला था। संस्थाओं में गया था।उन अनुभवों के आधार पर मैंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था जो ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश मित्रों के साथ साझा करना चाहता हूं। प्रस्तुत है पहला अंश-
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पाकिस्तान का मतलब क्या
1.
पाकिस्तान एक ऐसा शब्द है जो उत्तर भारत में रहने वाले लोगों के मन में कोई ‘विशेष बिम्ब’ बनाता है। विभाजन के बाद पाकिस्तान आये लोगों की बात छोड़ भी दें तो कम से कम उत्तर भारत में पाकिस्तान के तरह-तरह के मतलब हैं। पाकिस्तान से जन्मी सबसे पुरानी छवि जो मेरे मन में है वह शायद सन् 55 के आसपास की है जब मेरी उम्र दस साल रही होगी। पड़ोस का कोई ख़ानदान पाकिस्तान जा रहा था। घर के सामने नीम के बूढ़े और घने पेड़ की छाया मेें तीन इक्के खड़े थे। एक इक्के पर सामान लादा जा रहा था। दूसरे इक्के में चादर बाँध दी गयी थी क्योंकि उसमें ज़नानी सवारियों को जाना था। घर के मर्द पड़ोसी मर्दों से गले मिल रहे थे। ऐसा ग़मगीन माहौल था कि दिल बैठा जाता था। घर के अन्दर औरतें पड़ोसिनों से लिपट-लिपट कर सिसक रही थीं। सिसकियाँ और रोना चीख़ने में तब्दील हो रहा था। बच्चे घबराये हुए इधर-उधर भाग रहे थे। मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि ये सब क्या है? पाकिस्तान से जुड़ी दूसरी छवि यह है कि गर्मियों के दिनों की दोपहर में हम लोग घर के तहखाने में सोते थे जहाँ छत से लटका पंखा झलने के लिए नौकर पंखे की डोरी अपने पैर में लपेट कर कुछ फ़ासले पर लेट कर पैर चलाता था जिसके नतीजे में पंखा चलताथा और हवा होती थी। इन शान्त और ठंडी दोपहरों में कभी-कभी कोई नौकर हाथ में ख़त लिये यह कहता हुआ आता था कि पाकिस्तान से ख़त आया है। सब लोग उठ बैठते थे। हमारे अब्बा की फूफी (बुआ) के बड़े लड़के पाकिस्तान चले गये थे और वहाँ से उनके ख़तों का इन्तिज़ार पूरे घर को रहता था। कहते हैं, वसी चचा पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। लखनऊ यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री में एम.एस.सी. करने के बाद वे नौकरी की तलाश में थे। एक इंटरव्यू बोर्ड में बोर्ड के किसी सदस्य ने उन्हें बहुत प्यार से समझाया था - मियाँ जी आप यहाँ भारत में क्यों नौकरी के चक्कर में परेशान हो रहे हो? पाकिस्तान में न जाने कितनी नौकरियाँ आपका इन्तज़ार कर रही हैं। आप पाकिस्तान चले जाइए। यहाँ आपको नौकरी देने का मतलब किसी हिन्दू का हक़ मारना है... ”इस बातचीत के बाद वसी मामू समझ गये थे कि हिन्दुस्तान से उनका दाना-पानी उठ गया है। वे घर आये और अपना फै़सला सुना दिया। ख़बर बम की तरह फटी। लखनऊ के कूच-ए-मीरजान में लम्बी-चैड़ी हवेली, ख़ानदानी इमामबाड़ा; वालिद शहर के माने हुए वकील, ख़ानदानी रईस, यूनिवर्सिटी में पढ़ती बहनें और भाई सब हैरान हो गये। बहरहाल वसी मामू आसानी से नहीं जा सके। बहुत हाय-तौबा और रोने-धोने के बाद कराची सिधारे। उन्हीं के ख़त तपती हुई दोपहर में ठंडी हवा के झोंके की तरह आते थे और उन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था...उन्हें अच्छी नौकरी मिली थी। उन्होंने नाजिमाबाद में प्लाट भी ले लिया था और मकान बनवा रहे थे। उनके ख़तों में, नये लफ़्ज़ जैसे ‘नाजिमाबाद’ या रोचक प्रसंग जैसे उनका ‘पठान नौकर चाकू से नहीं क़रौली से सब्ज़ी काटता है’, दिमाग़ में चिपक कर रह गये हैं...पाकिस्तान से जुड़ा एक और प्रसंग वह नारा है जो पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीगी लगाया करते थे। नारा था, ‘हँस के लिया है पाकिस्तान। लड़कर लेंगे हिन्दुतान।’
पाकिस्तान का मतलब बताने के लिए एक नारा, ‘पाकिस्तान का मतलब क्या? ला इलाहा इल्लिलाह’। पाकिस्तान का मतलब, ‘अल्लाह एक है’ साबित करता था कि पाकिस्तान मुस्लिम देश है। इसके अलावा पाकिस्तान को ‘मुमकलते-खु़दादाद’ यानी ईश्वर प्रदत्त राज्य कहने वाले कम नहीं थे। दरअसल हँस के लिया है पाकिस्तान और ‘ईश्वर प्रदत्त राज्य’ का गहरा ताल्लुक भी है।
लेकिन पाकिस्तान का मतलब जल्दी ही बदला गया था। 1958 में जरनल अय्यूब खाँ के सत्ता सँभालने के बाद कहा जाता था ”पाकिस्तान का मतलब क्या? लाठी, गोली, मार्शल लाॅ।’
‘हँस के लिया है पाकिस्तान’ की तस्दीक़ अगर इतिहास से करें तो पता चलता है कि पाकिस्तान के प्रमुख निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना भारतीय राजनीति और सामाजिक जीवन से संन्यास लेकर 1932 में लन्दन चले गये थे। उस वक़्त तक जिन्ना और पाकिस्तान का कोई रिश्ता न था। 1934 में मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खँ के अनुरोध पर मुस्लिम लीग का नेतृत्व सँभालने मुहम्मद अली जिन्ना वापस आये थे।
सन् 1946 तक मुस्लिम लीग काँगे्रस के साथ मिल कर सरकार चलाने पर तैयार थी जो योजना सफल नहीं हो सके। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया। पाकिस्तान के इतिहासकार इसे ‘लम्बा संघर्ष’ मानते हैं। लेकिन लाहौर के प्रसिद्ध पंजाबी कवि मुश्ताक सूफी पूछते हैं, ”ये बताइये पाकिस्तान के आन्दोलन में मुस्लिम लीग के कितने लोग जेल गये थे? किस-किस की जायदाद ज़प्त की गयी थी? किसने ब्रिटिश हुकूमत के डंडे खाए थे? कितनों को फाँसी लगी थी? कितने लोगों को काले पानी भेजा गया था?“
सूफी साहब के इन सवालों के मेरे पास जवाब नहीं है क्योंकि मैं इतिहासकार नहीं हूँ। बहरहाल ‘हँस के लिया है पाकिस्तान’ का दूसरा पहलू ये है कि कुछ लोग काँगे्रस पर यह आरोप लगाते हैं कि उसने मुस्लिम लीग को पाकिस्तान तो ‘गिफ्ट’ किया था। इस ‘गिफ्ट’ की परिभाषा ‘मुमकलते-खु़दादाद’ तो नहीं हो सकती लेकिन इतना ज़रूर है कि खु़दा (अल्लाह) पाकिस्तान की संवेदना का प्रमुख हिस्सा रहा है।
मुश्ताक सूफी अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ”लाहौर की सबसे बड़ी और महँगी बाज़ार माल रोड पर पाकिस्तान बनने से पहले मुसलमान की सिर्फ एक दुकान थी। पुराने शहर की अनारकली बाज़ार में मुसलमानों की दो दुकानें थीं। आज सूरतेहाल उल्टी है। इसके अलावा पंजाब में ज़मीनें सिखों के पास थीं। अब मुसलमानों के पास हैं। ये सब बहुत जल्दी और ‘करप्ट’ तरीके से हुआ है...मतलब ये कि जायदादें हथियाने में गै़र क़ानूनी तरीके़ भी अपनाये गये थे और फिर वो हालात ही ऐसे थे कि क़ानूनी की पूरी पाबन्दी बहुत मुमकिन नहीं थी। लेकिन इस उथलपुथल, इस ‘अप साइड डाउन’ या कहें ‘डाउन साइड अप’ ने हमारे समाज पर, मेरे ख़याल से बहुत अच्छा असर नहीं डाला। जब चैलेंज नहीं होते तो समाजों में ‘नेगेटिव थिंकिंग’ पैदा हो जाती है।“
पाकिस्तान के इतिहासकार और बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि पाकिस्तान के लिए संघर्ष करने के दौरान यह चर्चा नहीं हुई कि पाकिस्तान का स्वरूप क्या होगा? राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का क्या माॅडल होगा? बहुत सरसरी ढंग से यह कहा जाता था कि पाकिस्तान इस्लामी मुल्क होगा, लेकिन उसे परिभाषित नहीं किया गया। पाकिस्तान के एक प्रखर बुद्धिजीवी मियाँ आसिफ रशीद ने बहुत विस्तार से इस समस्या पर विचार किया है। पाकिस्तान के स्वरूप पर चर्चा न किये जाने के कारणों से पहले वे अधिक बुनियादी मुद्दे पर ध्यान आकर्षित कराते हैं।“ कुरान शरीफ का उद्देश्य इस्लामी राज्य स्थापित करना नहीं है बल्कि न्याय तथा समता पर आधारित समाज का निर्माण है। हम यह कह सकते हैं कि जो भी समाज न्याय और समता पर केन्द्रित होगा वही इस्लामी समाज होगा चाहे वहाँ बहुसंख्यक मुसलमान हों या गै़र मुस्लिम।“
(दलीले सहर-मियाँ आसिफ रशीद-फिक्शन हाउस, लाहौर, पृ.-82)
मियाँ आसिफ रशीद ने मुस्लिम लीग के नेताओं को कटहरे में खड़ा किया है, ”पाकिस्तान आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग के नेतृत्व ने कभी यह सोचने की ज़हमत न की, कि पाकिस्तान बन जाने के बाद नये राज्य का क्या स्वरूप होगा, उसका राजनैतिक ढाँचा किन सिद्धांतों के अनुसार बनेगा और राज्य की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था क्या होगी, यद्यपि मुस्लिम लीग की विरोधी पार्टी कांग्रेस ने इन्हीं उद्देश्यों को सामने रखते हुए 1935 में प्रान्तीय चुनाव से पहले प्रो. के.टी. शाह के नेतृत्व में एक नेशनल प्लानिंग कमीशन स्थापित कर दिया था। 28 मई, 1937 को सर मुहम्मद इकबाल ने मुसलमानों की आर्थिक समस्याओं से लापरवाही बरतने वाली मुस्लिम लीग पर नुक्ता-चीनी करते हुए कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना को लिखा था, ‘लीग को आखि़रकार यह तय करना पड़ेगा कि क्या वह बदस्तूर हिन्दुस्तानी मुसलमानों के उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व करती रहेगी या मुस्लिम जनता का...’ मुस्लिम लीग नवाबों, राजाओं, खान बहादुरों और सरदारों के बोझ तले इतनी दबी हुई थी कि खु़द कायदे आज़म भी नये राज्य की ‘पहचान’ की व्याख्या करते हुए घबराते थे कि कहीं प्रभावशाली गुट नाराज़ न हो जाएँ और लीग में फूट न पड़ जाए।“
(दलीले सहर, मियाँ आसिफ रशीद ,फिक्शन हाउस, लाहौर, पृ.-15)
नये मुल्क पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक नीतियाँ निश्चित नहीं की गयी थीं लेकिन इससे बड़ी विडम्बना यह थी कि कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद सत्ता की सभी कुंजियाँ अपने पास रख ली थीं। वे गवर्नर जनरल थे, संविधान बनाने वाली संसद के अध्यक्ष थे, मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे और अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने के लिए उन्होंने 1935 के एक्ट कानून आज़दिए हिन्द 1947 में एक संशोधन कराया था जिसे 9 पी. कहा जाता है। इसके अन्तर्गत उन्हें यह अधिकार मिल गया था कि वे पाकिस्तान की किसी भी प्रान्तीय विधानसभा को भंग कर सकते थे। उन्होंने अपने इस अधिकार का प्रयोग भी किया था।
मियाँ आसिफ रशीद ने पाकिस्तान में संविधान बनाने की प्रक्रिया और उसके स्वरूप को भी एक बुनियादी भूल माना है। उनका कहना है कि भारत ने तीन साल के समय (1947-1950) के अंदर संविधान बना कर भारत को गणराज्य बना दिया था जबकि पाकिस्तान में यह प्रक्रिया लम्बी चली। नौकरशाही और सेना ने संविधान के रास्ते में रोड़े अटकाये। और पाकिस्तान का तीसरा संविधान 1973 में बना जो मूलतः ग़ैर लोकतान्त्रिाक है तथा ‘चेक एंड बैलेंस’ की व्यवस्था भी उसमें नहीं है। इसके अलावा पाकिस्तान में ‘इस्लाम’ का बढ़ता प्रभाव और केन्द्र-राज्य संबंधों की तनावपूर्ण स्थिति भी देश को लोकतान्त्रिाक आधार देने में बाधा बनती रही।
मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की विचारधारा की व्याख्या करते हुए कहा था, ”हम इस बुनियादी सिद्धान्त से आगे बढ़ रहे हैं कि हम सब नागरिक हैं और इस देश के नागरिक बराबर हैं।“ जिन्न लोकतंत्र, धार्मिक सद्भाव और धर्म निरपेक्षता के पक्के समर्थक थे, लेकिन वे अपने विचारों को व्यवहार में लागू न कर सके और अन्ततः सिर्फ तीस साल बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़ियाउल हकने देश को इस्लाम के आधार पर मुस्लिम देश बनाने की घोषणा कर दी। लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता से मुस्लिम देश बना दिये जाने की यात्रा बहुत लम्बी नहीं है लेकिन छलाँग ज़रूर लम्बी है।
मैंने धर्म का जितना सार्वजनिक प्रदर्शन पाकिस्तान में देखा वैसा इस्लामी गणराज्य ईरान में भी नहीं देखा था। जैसे ही आप सीमा पार करते हैं, पाकिस्तान के प्रवेश द्वार पर ‘बिसिम्ल्लाहे रहमाने रहीम’ लिखा दिखाई पड़ता है। उसके बाद जैसे-जैसे लाहौर के नज़दीक पहुँचते हैं वैसे चैराहों पर, इमारतों के ऊपर, घरों के ऊपर, दुकानों के अंदर और बाहर, छतों पर, पेड़ों के तनों पर, पार्कों और मैदानों में, बार्ग़ों और फुलवारियों में हर जगह अल्लाह, कलमा या क़ुरान की आयतें लिखी दिखाई देती हैं। पेड़ के तनों पर लिखा दिखाई देता है, ‘पत्ते-पत्ते पर अल्लाह का नाम लिखा है।’ अलीशान घरों के ऊपर ‘माशा-अल्लाह या सुभान अल्लाह’ दिखाई पड़ता है। इसके अलावा रंग-बिरंगे झंडे घरों और इमारतों पर लहराते नज़र आते हैं। मैंने किसी दोस्त से पूछा था कि इन रंगबिरंगे झंडों का क्या मतलब है? क्या ये किसी विशेष सम्प्रदाय या राजनैतिक दल के झंडे हैं? मुझे जवाब मिला था कि पाकिस्तान में धर्म और राजनीति एक-दूसरे में इतना घुल-मिल गये हैं कि कहाँ से क्या शुरू होता है और क्या कहाँ ख़त्म होता है, यह बताना मुश्किल है।
(जारी)
© असग़र वजाहत
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