Wednesday, 3 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (19)


बाल्कन देशों पर इतिहास के सूरमाओं के भी हाथ-पाँव फूल जाते हैं। इसमें यही निर्णय करना कठिन है कि कौन, किस से, कब और क्यों लड़ रहा था। यह लड़ाई अब तक खत्म नहीं हुई। मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी की डिग्री सत्यापित नहीं हो पा रही, क्योंकि उनकी डिग्री जिस देश की है, वह देश ही नहीं रहा। आज पाकिस्तान से भी छोटे बाल्कन क्षेत्र में एक दर्जन देश घुसे हुए हैं! मैं यहाँ सुविधा के लिए नाम लिख देता हूँ- 

सर्बिया, अल्बानिया, मोंटेनिग्रो, कोसोवो, उत्तरी मैकडोनिया, क्रोएशिया, बुल्गारिया, बोस्निया-हर्ज़ेगोविना, रोमानिया, स्लोवानिया, ग्रीस। इनके अतिरिक्त तुर्की और हंगरी के क्षेत्र।

इसलिए जब भी कोई यूरोपीय यह कहता है कि भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्र अस्मिता की लड़ाई लड़ते रहते हैं, तो उन्हें सिर्फ़ बाल्कन दिखा कर चुप किया जा सकता है। भारत अगर उनकी तरह लड़ कर रहता तो आज न जाने कितने टुकड़ों में बँट चुका रहता। यूरोप के तीन बड़े विघटन (सोवियत, युगोस्लाविया और चेकोस्लोवाकिया) तो हमारी पीढ़ी ने देख लिए, एक और विघटन (स्पेन-कैटालोनिया) शायद देख लें। 

इन लड़ाइयों की जड़ उससे भी अधिक रूढ़ है। ये प्रगतिशील नज़र आते देश दर-असल अपनी जातीय/नस्लीय अस्मिता के लिए लड़ते रहे हैं। भले ही एक भूरी नस्ल को सभी गोरे या ईसाई नज़र आएँ, इनमें दर्जनों जातीय विभाजन हैं। इस हद तक कि नस्लीय नरसंहारों (ethnic cleansing) के सबसे अधिक उदाहरण यूरोप में ही मिलेंगे। एक सर्ब, एक रोमाँ और एक बुल्गार अगर आमने-सामने आ जाएँ तो मुमकिन है उनके दादा-परदादा एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे होंगे।

इस भूमिका के साथ मुद्दे पर आता हूँ कि यह ‘भानुमति का कुनबा’ आखिर विश्व-युद्ध की चिनगारी कैसे बन गया।

एक बार मानचित्र खोल कर देख लेना चाहिए कि हम कहाँ की बात कर रहे हैं। यह प्रायद्वीप यूरोप का वह हिस्सा है, जो एशिया से जुड़ता है। इन दो महादेशों को जोड़ते एक संकरे पुल पर है इस्तांबुल (तुर्की)। यह एक तरह का ‘चिकेन नेक’ है, और शब्दश: तुर्की का नाम जंगली मुर्गे से ही उपजा है। एक रोचक तथ्य यह भी है कि तुर्क भाषा में मुर्गे को ‘हिंदी’ बुलाते हैं, क्योंकि यह भारत से ही लाया गया था। 

अधिकांश बाल्कन देशों पर ऑटोमन तुर्कों का राज या प्रभाव हुआ करता था। इनके सुल्तान तो मुसलमान थे, लेकिन इन देशों में बड़ी जनसंख्या ईसाई थी। गाहे-बगाहे इनका धर्म के नाम पर दमन भी हुआ, लेकिन ये लोग अपनी ज़मीन को पकड़ कर रखने वाले जुझारू लोग होते हैं। ये पलायित होने के बजाय अपना प्रभाव बढ़ाते गए। इसमें अन्य ईसाई देशों की भी भूमिका थी, जो इन्हें सहयोग देते रहते।

इन देशों में एक बड़ी जनसंख्या स्लाव (slav) जाति की है, जो रूस ही नहीं, पूरे यूरोप की सबसे बड़ी जाति है। स्लाव शब्द की एक व्याख्या यह भी है कि यह संस्कृत के ‘श्रव्य’ से जुड़ा है, और इसका अर्थ है जिन्हें सुना जा सके। यानी जो बोल सकते हैं। इनके विपरीत एक दूसरी बड़ी जाति है जर्मन, जिसके लिए स्लाव देश एक शब्द प्रयोग करते हैं- नेम्तसे (nemtsy) जिसका अर्थ है गूँगे। यानी जो नहीं बोल सकते। ये शब्द मोटे तौर पर इनके स्वभावों की भी व्याख्या करते हैं। मुमकिन है ज़ाऱशाही और कम्युनिस्ट राज के बाद रूसियों की भी बोलती कुछ बंद हो गयी हो।

इन वाचालों और गूँगों के मध्य लड़ाई यूरोप में विश्व-युद्धों में तब्दील होती रही। स्लाव और जर्मनों की नस्लीय श्रेष्ठता की लड़ाई। दोनों स्वयं को आर्यों के निकट बताते रहे, और दोनों भारोपीय भाषा शाखाओं में ही हैं। संभवत: भारत से अधिक निकट होने के कारण स्लाव भाषाएँ संस्कृत से निकट हैं। जैसे संस्कृत का नभ (आकाश) रूसी में नेsब, द्वार शब्द रूसी में द्वेर है। किलाबंदी वाले शहरों को जहाँ रूस में ‘ग्राद’ (लेनिनग्राद, स्तालिनग्राद) लगाते हैं, वही भारत में कुंभालगढ़, चित्तौड़गढ़ हो जाता है। यहाँ तक कि रूस का मशहूर पेय ‘वोदका’ वैदिक कालीन शब्द ‘उदक’ से जन्मा है, जिसका अर्थ जल या तरल द्रव्य है।

लिथुआनिया का इतिहास अनूदित-संपादित कर रहे सुशांत झा ने मुझे एक बार कहा, “हमें पश्चिमी यूरोप और इंग्लैंड के बजाय इस पूर्वी यूरोप और केंद्रीय एशिया पर फोकस करना चाहिए, प्राचीन पेगन इतिहास की कई कहानियाँ एक जैसी मिल जाएँगी”

बहरहाल, ये कनेक्शन तो हज़ारों वर्ष पूर्व ही टूट गए होंगे। बाल्कन देश पेगन नहीं रहे, ईसाई या मुसलमान बन गए। बाल्कन युद्ध के बाद यूरोप ने अपनी सीमाएँ ऐसी बना ली, कि मुसलमान-बहुल मध्य एशिया से वह पूरी तरह अलग हो जाए। 

बाल्कन-युद्ध एक आखिरी निर्णायक क्रूसेड (धर्मयुद्ध) था, जो स्लाव ईसाईयों और तुर्क मुसलमानों के मध्य हुआ, भले इसकी व्याख्या किताबों में इस तरह नहीं होती। यह युद्ध विश्व-युद्ध के पन्नों में कहीं खो गया। लेकिन, इतिहास के पन्ने खोते नहीं, वहीं कहीं चिपके होते हैं। यह महज इत्तिफ़ाक़ नहीं कि वर्षों बाद जब सोवियत रूस बिखर गया, तो बाल्कन के भी टुकड़े-टुकड़े हो गए। 

1912 में बाल्कन को तीन तरफ़ से तीन शक्तियाँ खींच रही थी। बुझने से पहले आखिरी बार फड़फड़ाते तुर्क, सबसे बड़ी फौज शक्ति में तब्दील हुए जर्मन, और अपने अंत से बेखबर रूस के ज़ार। 

(द्वितीय शृंखला समाप्त, लेकिन तृतीय शृंखला अभी शेष है।)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha

रूस का इतिहास - दो (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/18.html 
#vss

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