‘उखाड़ दो ये मस्जिदें, ये मीनारें
चलो जलाएँ सर्बियन मशाल
और सजाएँ ईस्टर के अंडे
रक्त में नहाएँ हम, हमारा धर्म
जीतेगा जो, जीएगा वही
नहीं रह सकते हम साथ
नहीं मनेगा अब ईद,
मनेगा सिर्फ़ बड़ा दिन’
- मोन्टेनीग्रो का एक गीत
बाल्कन युद्ध एक क्रूसेड ही था। कुछ पिद्दी ईसाई देश मिल कर बूढ़े शेर ऑटोमन तुर्क को आखिरी शिकस्त देने निकले थे। कुछ ही वर्ष पहले तुर्की में युवा क्रांति (1908) हुई थी, और शाही लोकतंत्र की बहाली हुई थी। सुल्तान की शक्ति कमजोर पड़ गयी थी। इन बाल्कन देशों ने एक समूह बना कर निर्णय लिया कि तुर्की पर आक्रमण कर उनकी ज़मीन आपस में बाँट लेंगे।
8 अक्तूबर, 1912 को इन सभी में सबसे छोटे देश मोन्टेनीग्रो ने ज़ंग छेड़ दी, और तुर्क शासित अल्बानिया में घुस गयी। इसके साथ ही ग्रीस, सर्बिया और बुल्गारिया ने भी आक्रमण कर दिया। तुर्क जो कभी इस इलाके के दादा हुआ करते थे, वह इस आक्रमण को झेल नहीं पाए। उनकी हार हुई।
इस युद्ध के साथ ही यूरोप में मुसलमानों की सत्ता हमेशा के लिए खत्म हुई। अब यूरोप पूरी तरह ईसाई शासित बन चुका था। लेकिन, अब इन ईसाइयों को आपस में लड़ना था। सर्बियाई चाहते थे कि वह बाल्कन पर राज करेंगे, बुल्गार चाहते कि वह राज करेंगे, और ग्रीस इनके बीच मुँह ताक रहा था कि मेरा क्या होगा।
इतिहास के किसी भी युद्ध में पहली बार आधुनिक हवाई आक्रमण हुआ। यह बुल्गारिया की तरफ से था, और दुबारा बाल्कन युद्ध छिड़ गया। बुल्गारिया की तो एक चौथाई पुरुष जनसंख्या युद्ध ही लड़ रही थी, और लगभग यही हाल अन्य देशों का भी था। अगर यह युद्ध अधिक देर चलता तो शायद ये देश साफ हो गए रहते।
उस समय अन्य बड़े देशों जर्मनी और इंग्लैंड ने हस्तक्षेप किया, और बाल्कन युद्ध रुकवाया गया। लेकिन, मामला इतना सुलझा नहीं था। सर्बिया का तो नाम ही है- बारूद का ढेर (Powder keg of europe), जो कभी भी फट सकता है।
विंस्टन चर्चिल ने एक बार चिढ़ कर कहा था, “ये छोटे-मोटे बाल्कन देश जिनकी कोई औक़ात नहीं, वे इतिहास में इतनी जगह क्यों बटोर लेते हैं?”
सर्बिया और रूस एक ही स्लाव जाति के देश थे, और इस नाते रूस उनका स्वघोषित अभिभावक था। बाल्कन युद्ध से पहले 1908 में ऑस्ट्रिया-हंगरी ने तुर्कों से आधा सर्बिया छीन लिया था, जो बोस्निया-हर्ज़ेगोविना कहलाता है। हालाँकि बोस्निया मुसलमान बहुल था, लेकिन सर्बिया इसे अपना हिस्सा मानती थी। उसने रूस से शिकायत की, तो ज़ार ने टाल-मटोल कर दिया कि अभी युद्ध करना कठिन है। मूल बात यह थी कि ऑस्ट्रिया के साथ शक्तिशाली जर्मनी थी, जिससे लड़ने की औक़ात रूस में थी नहीं।
रूस ने दूसरी तरकीब अपनायी। इसने सर्बिया में राष्ट्रवाद का इंजेक्शन देना शुरू किया। रूस मन में यह चाहती थी कि ये सभी बाल्कन देश अब उसके साम्राज्य में मिल जाएँ। इसके लिए वह एक स्लाव जाति का एकल राष्ट्रवाद चाहती थी। वह चाहती थी कि पूरा बाल्कन एक साथ युगो-स्लाव कहलाए।
जैसे ही नस्लीय राष्ट्रवाद अपने चरम पर पहुँचता है, अशांति भी आ ही जाती है। ‘पाउडर केग’ तो फटने के लिए तैयार ही बैठा था, बस एक तीली फेंकनी थी।
14 जून 1914 को ऑस्ट्रिया के युवराज फर्डिनांड अपनी पत्नी सोफिया के साथ बोस्निया की राजधानी साराजेवो के दौरे पर आए। उनका काफ़िला जैसे-जैसे गुजर रहा था, सर्बियाई चरमपंथियों अपनी पोजीशन ले रहे थे। भीड़ इतनी अधिक थी कि वे हमला नहीं कर पा रहे थे। आखिर एक ने करीब आकर युवराज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन बम टकरा कर दूर गिर गया। हमलावर ने जल्दी से साइनाइड मुँह में ली, और पास ही नाले में कूद गया। उसे नाले से निकाल कर गिरफ़्तार कर लिया गया।
फर्डिनांड गुस्से में टाउन हॉल पहुँचे और मेयर से कहा, “क्या बम से स्वागत करने मुझे बुलाया था?”
उन्होंने कहा, “अभी आपकी जान को खतरा है। आप कहीं बाहर न निकलें।”
“मगर वह हमलावर तो पकड़ा गया। क्या पूरा शहर आतंकियों से भरा पड़ा है? मुझे कोई खतरा नही”
जब वह लौट रहे थे, तो चरमपंथियों ने बेहतर योजना बना रखी थी। इस बार सीधे उनके पास आकर गोली मारी गयी, जो युवराज और उनकी पत्नी की जान ले गयी।
इस घटना के पीछे ‘ब्लैक हैंड’ नामक एक चरमपंथी संगठन का हाथ था। सवाल यह था कि उस ब्लैक हैंड के पीछे असली हैंड किसका था। आखिर कौन सा देश था जो ऑस्ट्रिया के युवराज को मारना चाहता है? बोस्निया? सर्बिया? या...रूस?
यूरोप का पाउडर-केग फट चुका था। प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो रहा था।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - दो (19)
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