लेनिन लगभग एक दशक से युद्ध की भविष्यवाणी कर रहे थे। 1913 की जनवरी में उन्होंने मैक्सिम गोरकी को चिट्ठी लिखी, “हमारी क्रांति के लिए एक युद्ध का होना ज़रूरी है।”
आखिर 1914 में जाकर यह भविष्यवाणी सत्य हुई। ऑस्ट्रिया के एक पहाड़ी गाँव में लेनिन कुछ पेड़-पौधों का अवलोकन करते हुए काग़ज़ पर नोट्स ले रहे थे कि एक ग्रामीण चिल्लाया, “यह रूसी है। हमारी जासूसी कर रहा है।”
कुछ ही देर में गाँव में खबर फैल गयी कि वहाँ एक रूसी परिवार रह रहा है, जिसमें एक आदमी शक्ल-सूरत से जासूस दिखता है। लेनिन के घर पुलिस पहुँच गयी, और वहाँ रूसी भाषा में लिखे कई काग़ज़ात मिल गए। हालाँकि वे ज़ार-विरोधी लेख थे, लेकिन भाषा समझ न आने पर इसे जासूसी दस्तावेज करार दिया गया। लेनिन को पाकेटमारों और शराबियों के साथ जेल में बंद कर दिया गया। आखिर एक समाजवादी नेता ने पैरवी लगायी और पुलिस चीफ़ को समझाया, “आपने जिस आदमी को जेल में बंद कर रखा है, पूरे रूस में इससे बड़ा ज़ार-विरोधी कोई नहीं। इसे रिहा कीजिए।”
युद्ध के समय राष्ट्रवाद इस चरम पर होता है कि शत्रु देश का हर व्यक्ति शत्रु ही नज़र आता है। रूस में भी यही स्थिति थी। जर्मनों और ऑस्ट्रियाई लोगों को ढूँढ-ढूँढ कर पीटा जा रहा था, गिरफ़्तार किया जा रहा था या भगाया जा रहा था। यह खबर भी फैलाई जा रही थी कि ज़ारीना एक जर्मन जासूस है, और वह हमारी सभी खबरें लीक कर रही है। एक यह भी कारण था कि ज़ार निकोलस को स्वयं जनता के बीच आकर जर्मनी के ख़िलाफ़ युद्ध का आह्वान करना पड़ा।
ज़ार निकोलस ने कहा, “हम जर्मनी के ख़िलाफ़ इस युद्ध में पूरी ताकत से लड़ेंगे और उन्हें हराएँगे। हमारी राजधानी का नाम पीटर्सबर्ग एक जर्मन नाम है, जो आज से बदल दी जाएगी। आज से इसका नाम होगा- पेट्रोग्राद।”
भले ही जनता में ज़ार के प्रति असंतोष रहा हो, लेकिन इस युद्ध ने उनमें नयी ऊर्जा का संचार कर दिया। वे ‘ज़ार अमर रहें, रूस अमर रहे’ चिल्लाने लगे।
युद्ध की शुरुआत में रूस की सेना ने पूरे जोश में ऑस्ट्रिया को पीछे धकेल दिया, और गैलिसिया तक घुस गयी। लेकिन, जब जर्मन सेना आयी, तो उसके सामने रूसी सेना कहीं नहीं टिक पायी।
एक जर्मन फौजी ने अपने संस्मरण में लिखा, “रूसी हज़ारों की तादाद में आते थे, लेकिन सभी पुतलों की तरह गिरते जाते थे। हमें उनकी लाशों को स्वयं ही रास्तों से हटाना पड़ता था ताकि आगे बढ़ सकें। आगे बढ़ते ही फिर से हज़ार रूसी सामने आ जाते थे। हम मारते जाते, वे मरने के लिए खड़े होते जाते।”
यह बात सत्य थी कि रूस में संख्या-बल था, किंतु उनमें युद्ध-कौशल नहीं बचा था। उनके विपरीत जर्मनी ने बिस्मार्क के समय से ही अपनी सैन्य-क्षमता को फोकस बना रखा था, और यूरोप की सबसे शक्तिशाली सेना बन गए थे।
रूस की सेना का कमान ज़ार निकोलस के चचेरे भाई निकोलासा ने संभाल रखा था, जिनको मीडिया खूब अटेंशन दे रही थी। भले ही युद्ध में हार हो रही थी, लेकिन उनकी वीर-गाथाएँ लिखी जा रही थी। वहीं, ज़ारीना ने स्वयं घायल फौजियों की देख-भाल के लिए स्त्रियों की टीम तैयार की, और वह युद्ध-अस्पताल में एक नर्स की भूमिका निभाने लगी। ऐसा करते हुए वह स्वयं पर जर्मन जासूस होने का दाग़ भी मिटा रही थी।
युद्ध की पहली खेप में रूस के दो लाख से अधिक फौजी मारे गए, और जर्मन सेना को रोकना नामुमकिन हो रहा था। उसी वक्त रासपूतिन साइबेरिया से लौटे, और उन्होंने ज़ारीना से कहा, “अब समय आ गया है कि ज़ार स्वयं युद्ध की कमान लें। ज़ार के फ्रंट पर जाने से फौज का मनोबल बढ़ेगा।”
हालाँकि रासपूतिन के जीवनीकार डग्लस स्मिथ लिखते हैं कि इस फैसले में रासपूतिन का हाथ नहीं था, ज़ार ने यह निर्णय स्वयं लिया। जो भी सच रहा हो, अगस्त 1915 में ज़ार निकोलस ने युद्ध की कमान ली और फ्रंट पर गए।
अब रूस की गद्दी पर बैठी थी ज़ारीना अलेक्सांद्रा, और उनके पीछे खड़े थे रासपूतिन।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रूस का इतिहास - तीन (2)
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