Tuesday, 28 January 2020

सीएए से क्या हमारी अंतरराष्ट्रीय साख भी गिरी है ? / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी को देश और अंतरराष्ट्रीय जगत में दो बड़ी घटनाएं हुयी, जिनसे भारत का सीधा संबंध है। देश मे हर साल की तरह गणतंत्र दिवस का भव्य आयोजन किया गया। राजपथ पर एक भव्य परेड हुयी और हमने सत्तर सालों में हुयी देश की प्रगति देखी। साल दर साल गणतंत्र दिवस की भव्यता बढ़ती ही जा रही है। यह गर्व का विषय है। 
पर राजपथ से लग्भग 15 किमी दूर शाहीन बाग नामक स्थान पर जहां 19 दिसंबर से आम जनता का नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन के विरोध में जो सत्याग्रह चल रहा है उसी जगह पर लग्भग लाखों की भीड़ ने जनतंत्र का महापर्व मनाया और संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया। यह जनता का उत्सव था और राजपथ के सरकारी आयोजन से अलग था।

अंतरराष्ट्रीय जगत में हुआ यह है कि, यूरोपीय यूनियन की सांसदों ने सीएए यानी नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 को “भेदभावपूर्ण” और “खतरनाक रूप से विभाजनकारी” बताते हुए एक प्रस्ताव पेश किया है, जिसमे कहा गया है कि
" इस कानून में, दुनिया की सबसे बड़ी अराजकता का माहौल पैदा करने की क्षमता है। " 
इस कानून के अंगर्गत समान सुरक्षा के सिद्धांत पर अमेरिका ने भी सवाल खड़े किए हैं। 24 देशों के यूरोपीय संसद के 154 सदस्यीय सोशलिस्ट्स और डेमोक्रेट्स ग्रुप के सदस्यों द्वारा यह प्रस्ताव पेश किया गया है, जिस पर अगले सप्ताह चर्चा होने की उम्मीद है। यह वही यूरोपीय यूनियन है जिसके कुछ सांसदों को कश्मीर का दौरा वहां के हालात का जायजा लेने और दुनिया को बताने के लिये दो बार कराया गया और हमारे सांसदों को एक बार भी  वहां नहीं जाने दिया गया।

यह एक सामान्य बात नहीं है। विशेषकर तब, देश के पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने यह चेतावनी दी थी, कि ' सीएए से हम विश्व बिरादरी में अलग थलग पड़ सकते हैं। ' यह प्रस्ताव यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों के भारत में नियुक्त अपने प्रतिनिधियों को यह भी निर्देश देता है कि, 
" वे भारतीय अधिकारियों के साथ अपनी होने वाली औपचारिक और अनौपचारिक बातचीत में, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव  के मुद्दे को भी शामिल करें। "
इस प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि,
" भारत ने अपनी शरणार्थी नीति में धार्मिक मानदंडों को शामिल किया है। लिहाजा, यूरोपीय संघ के अधिकारियों से शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार सुनिश्चित करने और भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त करने का आग्रह करता है। " 
प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि,
" सीएए के जरिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया गया है। इसके अलावा नागरिकता संशोधन कानून भारत के अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों और करार का भी उल्लंघन करता है जिसके तहत नस्ल, रंग, वंश या राष्ट्रीय या जातीय मूल के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। प्रस्ताव के मुताबकि यह कानून मानवाधिकार और राजनीतिक संधियों की भी अवहेलना करता है। "

यूरोपीय यूनियन का यह प्रस्ताव अकेली ऐसी घटना नहीं है जो भारत के अंतरराष्ट्रीय साख को आघात पहुंचाती है बल्कि सीएए को लेकर दुनियाभर की राजधानियों में जो आवाज़ें उठ रही हैं वे भी यही प्रतिबिंबित करती हैं कि इस अनावश्यक कानून के कारण, भारत विश्व बिरादरी में जिन मूल्यों के लिये जाना जाता रहा  और सम्मानित होता रहा है, उस पर यह एक प्रबल आघात है। न सिर्फ यूरोपीय यूनियन के देशों में बल्कि ब्रिटेन और अमेरिका के महत्वपूर्ण शहरों, विश्वविद्यालयों और बौद्धिक जगत मे भी यह धारणा बनने लगी है कि भारत अपने संविधान में स्थापित मूल्यों, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है,  से भटकने लगा है। देश के अंदर इस कानून का जो विरोध हो रहा है उसकी कोई चर्चा फिलहाल मैं नहीं कर रहा हूँ, बल्कि विश्व बिरादरी में इस कानून को लेकर जो प्रतिक्रिया हो रही है, उसपर बात कर रहा हूँ।

यूरोपीय यूनियन के प्रस्ताव का देश के अंदरूनी राजनीति में क्या असर पड़ता है या क्या असर नहीं पड़ता है, यह फिलहाल उतना महत्वपूर्ण विंदु नहीं है बल्कि यह विषय अधिक महत्वपूर्ण है कि विश्व कूटनीति में हमारी साख कहां पर है। यूरोपीय यूनियन का यह प्रस्ताव ही नहीं, बल्कि हाल ही में प्रकाशित प्रतिष्ठित ब्रिटिश मैगजीन ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने इनटॉलरेंट इंडिया नाम से कवर पेज स्टोरी छापी है। उसमें भी उन्हीं विन्दुओ को उठाया गया है जो यूरोपीय यूनियन ने एक प्रस्ताव के द्वारा कहा गया है। द इकॉनॉमिस्ट ने पत्रिका के बाजार में आने के एक दिन पहले अपने  कवर को ट्वीट करके कहा था, कि,
" भारत के 20 करोड़ मुस्लिमों में डर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू राष्ट्र का निर्माण कर रहे और बंटवारे को भड़का रहे। " 
‘द इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा है कि 
" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागरिकता संशोधन कानून के जरिए भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की अनदेखी कर रहे हैं। वे लोकतंत्र को ऐसा नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिसका असर भारत पर अगले कई दशकों तक रह सकता है।"
मौजूदा सरकार की नीतियों की समीक्षा में मैगजीन ने कहा है कि,
" मोदी सहिष्णु और बहुधर्मीय समाज वाले भारत को उग्र राष्ट्रवाद से भरा हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश में जुटे हैं।" 
सीएए के बारे में द इकोनॉमिस्ट का कहना है कि 
" नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) एनडीए सरकार के दशकों से चल रहे भड़काऊ कार्यक्रमों में सबसे जुनूनी कदम है। सरकार की नीतियों ने भले ही मोदी को चुनाव में जीत दिलाने में मदद की हो, लेकिन अब यही नीतियां देश के लिए राजनीतिक जहर साबित हो रही हैं। मोदी की नागरिकता संशोधन कानून जैसी पहल भारत में खूनी संघर्ष करा सकती हैं।"

इसी लेख में यह भी कहा गया है कि 
" भाजपा ने धर्म और पहचान के नाम पर लोगों को बांटा और परोक्ष रूप से मुस्लिमों को खतरनाक करार दिया। इसके जरिए पार्टी अपने समर्थकों को ऊर्जावान रखने और खराब अर्थव्यवस्था के मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाने में सफल हुई है। प्रस्तावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) भगवा पार्टी को अपना विभाजनकारी एजेंडा आगे बढ़ाने में मदद करेगा। एनआरसी की लिस्टिंग की प्रक्रिया सालों-साल चलती रहेगी, जिससे उनके बंटवारे का एजेंडा भी चलता रहेगा। भाजपा ने मुस्लिमों को मारने वाले उपद्रवियों को महत्व देने से लेकर कश्मीर घाटी में में रहने वालों के लिए सजा जैसा माहौल बनाया। उन्हें मनमाने तरीके से गिरफ्तार किया गया, कर्फ्यू लगाया और 5 महीने तक इंटरनेट बंद रखा गया। नागरिकता कानून मामले को भड़काना भी इसी तरह भाजपा का नया कार्यक्रम है।" 
इसी लेख में चेतावनी दी गई है कि, 
" एक समूह का लगातार उत्पीड़न सभी के लिए खतरा है और इससे राजनीतिक प्रणाली भी संकट में पड़ जाती है। जानबूझकर हिंदुओं को भड़काने और मुस्लिमों को उनके साथ लड़ाने का षडयंत्र कर के भाजपा देश में खूनी संघर्ष की पीठिका तय कर रही है।"

यही दो उदाहरण नहीं है जिनके कारण सीएए के कारण हमारी साख पर असर पड़ रहा है, बल्कि अमेरिका की कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और बौद्धिक संगठन भी बदलते भारत की इस मुद्रा पर हैरत में हैं। भारत दुनियाभर में चाहे वह कूटनीतिक मामला हो या बौद्धिक एक अलग और विशिष्ट क्षवि रखता रहा है। यूं तो उपनिवेशवाद के युग मे दुनियाभर मे  यूरोपीय ताकतों के कई उपनिवेश थे, पर भारत उन सबमे अनोखा और विशिष्ट था। यह विशिष्टता न केवल भारतीय सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, वांग्मय, परंपराओं  आदि को ही लेकर थी, बल्कि उपनिवेशवाद से मुक्त होने का जो अहिंसक और जनआंदोलन का मार्ग हमने चुना था, के कारण भी था।आज़ादी के बाद जो हमारा संविधान बना, और जिस सर्वधर्म समभाव के राह पर हम मजबूती से टिके रहे, तमाम चुनौतियों के साथ मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखते हुए तरक़्क़ी हमने किया, उससे भी विश्व बिरादरी में हमारी साख बनी। जब दुनिया शीत युद्ध के समय दो ध्रुवीय बन गयी थी, तब हमने एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों को मिलाकर एक नया अंतरराष्ट्रीय संगठन गुट निरपेक्ष आंदोलन बनाया जो एक मजबूत आवाज़ बनी। 1965, 1971 और 1999 के भारत पाक युद्धों, विशेषकर बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय जो भारत की भूमिका रही, उससे दुनियाभर में किसी देश की यह हैसियत नहीं रही है कि वह भारत को नजरअंदाज करे। उदार, पंथनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत दुनियाभर में अपनी पहचान बनाये रखने में सफल रहा।

1991 में देश ने आर्थिक नीतियों में बदलाव किया। सोवियत संघ के विघटन और चीन के उदय के बाद दुनिया लगभग एकध्रुवीय होने लगी थी। मुक्त बाजार, मुक्त अर्थव्यवस्था का दौर आ गया था। सामाजिक मुद्दे गौड़ होने लगे थे और आर्थिक विकास का मुद्दा प्रमुख हो गया था। भारत ने भी यही राह पकड़ी और इसका लाभ भी हुआ। लेकिन यूपीए 2 के अंतिम समय मे जो आर्थिक घोटाले प्रकाश में आये उससे तत्कालीन सरकार की किरकिरी हुई और 2014 ई में भाजपा की सरकार, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी। नरेंद मोदी सरकार जिन मुद्दों पर सवार होकर 2014 में सत्ता में आयी थी उनमे भ्रष्टाचार और आर्थिक विकास मुख्य मुद्दा था। 100 स्मार्ट सिटी, दो करोड़ नौकरियां, सबका साथ सबका विकास के आकर्षक वादों ने लोगों को खूब लुभाया। पर 2016 में अचानक की गयी नोटबंदी ने देश की आर्थिक प्रगति को बाधित कर दिया। उसी के बाद आर्थिक पराभव शुरू हो गया। आज यह स्थिति हो गयी है कि चाहे महंगाई हो, या आर्थिक विकास की दर, या बेरोजगारी के आंकड़े या सरकारी कंपनियों की दशा या बैंकिंग सेक्टर का एनपीए यह सब आर्थिक सूचकांक देश को गम्भीर आर्थिक संकट में फंसे होने का संकेत कर रहे हैं।

2014 में सत्ता में आने के बाद, सरकार से उम्मीद थी कि वह आर्थिक प्रगति और भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही को अपना मुख्य मुद्दा बनाएगी। पर काले धन पर तत्काल एसआईटी गठित करने के बाद भी सरकार ने इन मुद्दों पर, आगे कुछ नहीं किया। बल्कि सत्तारूढ़ दल ने गौरक्षा, घर वापसी जैसे, ऐसे मुद्दे पीठ पीछे उठाये जिससे न केवल सद्भाव को नुकसान पहुंचा बल्कि देश मे कानून व्यवस्था का जो मामला बिगड़ा उससे प्रधानमंत्री को खुद ही गौगुंडो के बारे में बोलना पड़ा। 1991 से लेकर अब तक हमारी अर्थनीति पूंजीवाद से प्रभावित रही है। लेकिन 2014 के बाद यह नीति गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म में बदल गयी। कुछ चुनिंदा पूंजीपति और सरकार के बीच एक गठजोड़ विकसित हो गया, जिससे जो आर्थिक विकास का मॉडल बना उसका परिणाम देश के सभी क्षेत्रों में आर्थिक दुरवस्था के रूप में देखने को मिला।  2014 के बाद प्रधानमंत्री ने दुनियाभर का दौरा किया, जहां ज़हां वे गये उन्होंने भारतीयों की अलग बैठक आयोजित की लेकिन जिस प्रकार से विदेशी निवेश की उम्मीद थी, वह तो पूरी हुई नहीं ऊपर से लोगों ने अपने पैसे निकालने शुरू कर दिए। एक एक कर के सभी वित्तीय संस्थान, बैंकों आदि की आर्थिक हालात खराब होती गयीं। मूडी, आईएमएफ जेसी संस्थाओ ने भी चेतावनी देनी शुरू कर दी। आज जब देश के सभी आर्थिक सूचकांक आर्थिक विपन्नता को दर्शा रहे हैं तो इन पूंजीपतियों की आय और लाभ अप्रत्याशित वृद्धि की ओर है।

इधर आर्थिक स्थिति गड़बड़ होने लगी और इससे जनता में कोई असंतोष न उपजे उसे भटकाने के लिये केवल राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से नया नागरिकता कानून जो प्रत्यक्षतः धर्म के आधार पर भेदभाव करता हुआ दिख रहा है को लाया गया। अभी हाल ही में दुनिया के बड़े उद्योगपतियों में से एक ने दावोस में कहा है कि, " भारत का राजनीतिक स्वरूप तानाशाही की ओर जा रहा है और आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है।" दुनियाभर में जब भी किसी देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगती है, युवाओं में बेरोजगारी, किसानों मज़दूरों में हताशा आने लगती है तो सत्ता भावुकता भरे मुद्दों का सहारा लेने लगती है ताकि रोजी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य के जनहितकारी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटे। सत्ता एक काल्पनिक दुश्मन गढ़ती है, और अपने सारे कुकर्मों और विफलताओं की जिम्मेदारी उसी दुश्मन के सिर पर थोप देती है। आज दुनियाभर में भारत के बारे में यही धारणा पनपने लगी है। भारत की अर्थव्यवस्था का असर विश्व की आर्थिकी पर भी पड़ता है,क्योंकि हम एक बड़ी और उभरती अर्थव्यवस्था है। इसी लिए दुनियाभर के अधिकतर देश भारत को एक शांत और समृद्ध देश के रूप में देखना चाहते हैं। इसका एक कारण हमारा एक संगठित और बड़ा बाजार होना भी है।

लेकिन इधर विश्व  भुखमरी सूचकांक हो या, खुशी सूचकांक, पासपोर्ट की ताकत से जुड़ा आंकड़ा हो या सुरक्षित देश का सूचकांक, या देश के अंदरूनी आर्थिक सूचकांक, उन सबमे निराशाजनक स्थिति है। जब यूके और यूएस सहित कई महत्वपूर्ण देश अपने  नागरिकों को भारत आने के संदर्भ में ऐडवाज़री  जारी करने लगें तो हमे यह मान लेना पड़ेगा कि दुनिया मे एक प्रगतिशील, सभ्य और सुसंस्कृत देश के रूप में हमारी साख नीचे जा रही है। भारत की आर्थिक मंदी, सामाजिक संकेतकों के लड़खड़ाते जाने, लोकतंत्र और भ्रष्टाचार के पैमाने पर गिरती रैंकिंग, सीएए/एनआरसी के खिलाफ देशव्यापी शांतिपूर्ण प्रदर्शनों, और सत्तातंत्र की ओर से आक्रामक, प्रतिशोधपूर्ण और भेदभावपूर्ण प्रतिक्रियाओं को दुनियाभर के अखबार जगह दे रहे हैं। सोशल मीडिया तो पल पल की खबर दे ही रहा है। हम कितना भी यह कहें कि हम कोई भी कानून लाने के लिये अधिकार सम्पन्न और संप्रभु हैं लेकिन इन कानूनों पर दुनिया मे बहस न हो, मीन मेख न निकाला जाय यह संभव भी नहीं है। शेखर गुप्त के एक लेख का यह अंश आज के समय के लिये प्रासंगिक है जिसे मैं यहां उध्दृत कर रहा हूँ। 
" शीतयुद्ध के बाद के तीन दशकों में दावोस समागम में भारत कभी पसंद का विषय रहा हो या नहीं, मगर उसकी ओर हमेशा उम्मीद भरी नज़रों से देखा जाता रहा है. जिस सहजता से वह अपनी विविधताओं को सहेजता रहा, लोकतांत्रिक तरीके से अपनी सरकारें बदलता रहा, अपने आर्थिक तथा रणनीतिक सोच को वैश्विक बनाता रहा, उस सबको यह समागम बड़े सम्मान भरे आश्चर्य से देखता रहा. बाल्कन से लेकर मध्यपूर्व और अफ्रीका के कुछ हिस्सों समेत कई देश और क्षेत्र यह सब कर पाने में विफल रहे, और इसी वजह से पिछले दो दशकों से दुनिया में कोहराम मचा है। "

1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था प्रभावशाली तरीके से आगे बढ़ी, उससे लोग हैरत में थे कि यह देश तो सामाजिक-राजनीतिक रूप से साल-दर-साल और मज़बूत ही होता जा रहा है और अब तो दुनिया की आर्थिक वृद्धि को गति दे रहा है। 2010 में द इकॉनॉमिस्ट  ने ही हमारी प्रगति की तुलना चीते से की थी। चीन बेशक भारत से बहुत आगे था, लेकिन वह अपनी अधिनायकवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण था, न कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण। आज जब उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था संविधान के मूल तत्वों के खिलाफ सरकार कुछ फैसले कर रही है तो उसका असर तो होगा ही। भारत एक ब्रांड की तरह है। जिसकी कुछ विशेषताएं हैं। यह विशेषता लोकतंत्र और संविधान के मौलिक अधिकार हैं। आज दुनियाभर में लोग यह बड़ी गंभीरता से देख रहे हैं कि हम अपने मूल रास्ते से भटक रहे हैं या नहीं। दुनियाभर में हनारी साख कैसे बनती है और हम कहां उस साख सूचकांक, हालांकि यह कोई औपचारिक सूचकांक नहीं है, में ठहरते हैं, यह विषय भी हमारे लिये महत्वपूर्ण है। यह धरती अब गोल नहीं रही, चपटी हो गयी है जैसा कि सूचना क्रांति पर महत्वपूर्ण किताब द वर्ल्ड इस फ्लैट लिखने वाले, टॉमस एल फ्रीडमैन कहते हैं। हम सब एक दूसरे के समाज और घरों में अपनी अपनी तरह से मौजूद हैं और सब, सबकी गतिविधियों से अनजान नहीं हैं।

© विजय शंकर सिंह

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