Friday, 24 January 2020

शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ हुयी घटना अनुचित है / विजय शंकर सिंह

सीएए एनआरसी के विरोध में दिल्ली के शाहीनबाग में चल रहे प्रतिरोध सत्याग्रह में न्यूज़ नेशन के पत्रकार दीपक चौरसिया के साथ धक्का मुक्की और रोके जाने की घटना अनुचित है। भले ही यह घटना आंदोलन में शामिल कुछ थोड़े लोगों का ही काम हो, पर इसकी बदनामी के दाग, न केवल शाहीनबाग पर बल्कि देश मे जगह जगह हो रहे इसी तरह के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों पर भी पड़ सकते है। बात मीडिया की ही नहीं है, बात उन आदर्शों की है जिनके नाम पर यह आंदोलन चल रहा है। गांधी के तरीकों पर चले आंदोलन गांधी के ही समय मे अहिंसक नहीँ रह पाए। न पहला असहयोग आंदोलन और न ही अंतिम भारत छोड़ो आंदोलन। पर हिंसा न हो यह सतर्कता तो किसी भी सत्याग्रह से जुड़े आंदोलन के लिये एक अनिवार्य शर्त है। इसे हर संभव प्रयास से बनाये रखना होगा।

यह घटना कितनी सच है, कितनी प्रायोजित यह तो धीरे धीरे सबको पता चल ही जायेगा, लेकिन अगर यह घटना प्रायोजित हो तब भी इस घटना का घटित होना, आंदोलन को ही बदनाम करेगा और पुलिस तथा आंदोलन विरोधियों को ऐसे आदोलनों के खिलाफ मुखरित होने का अवसर देगा। साथ ही, देश भर में हो रहे इस प्रकार के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों को संदिग्ध ही बनाएगा। दीपक अगर गोदी मीडिया हैं तो भी वे तो सरकार के गोद मे बैठे ही हैं। सड़कों पर तो जनता ही है जो अपने अधिकार के लिये विपरीत मौसम में भी डटी है। यह कहा जा रहा है कि उन्हें कवरेज करने से रोका गया क्योंकि उनके चैनल ने आंदोलन के बारे में गलत खबरें जैसे पांच सौ रुपये लेकर सड़क पर बैठने की बात प्रसारित की थी। या जो सच मे जो हुआ है उसे बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है। इन सब पर, अलग अलग तथ्य आ रहे हैं। पर यह सब तमाशे, दीपक चौरसिया को तो टीआरपी दे देंगे पर आंदोलन को विवादित ही बनाएंगे। ऐसे विवाद से बचा जाना चाहिये।

शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन अगर सबसे अधिक किसी को असहज करता है तो, सरकार और पुलिस को असहज करता है जो उस आंदोलन को खत्म करना तो चाहते हैं पर आंदोलन के शांतिपूर्ण और स्वयंस्फूर्त होने के कारण ऐसा कुछ नहीं कर नहीं पाते हैं जिससे कानून को बाईपास कर के किया जा सके। ऐसे समय एक मौके की तलाश रहती है कि कब कोई आंदोलन एक भीड़ में तब्दील हो और भीड़ को लठिया कर भगा दिया जाय। लेकिन शाहीनबाग में यह हो नहीं पा रहा है। महिलाओं और बच्चों के इस आंदोलन के खिलाफ बिना किसी उत्तेजना के बल प्रयोग करना कानूनी और नैतिक रुप से औचित्यपूर्ण भी नहीं होता है। अगर सरकार का कोई व्यक्ति या सत्तारूढ़ दल का कोई नेता या सीएए एनआरसी समर्थक भी ऐसे आंदोलनों में आकर सीएए एनआरसी के पक्ष में कुछ समझाना चाहे तो उसकी बात भी सुनिए और उसका जवाब दीजिए। इस तरह की मारपीट, किसी भी आंदोलन की कुंठा का भी संकेत दे सकती है।

रवीशकुमार ने इस घटना पर एक लेख लिखा है जिसे पढा जाना चाहिये। उनके अनुसार,
" शाहीन बाग़ को ही इम्तहान देना है। इसलिए मीडिया हो या कोई और हो उसके साथ किसी तरह की धक्का मुक्की या हिंसा नहीं होनी चाहिए। पत्रकार भले वो स्टुडियो से हिंसा की भाषा बोलते रहें। जो आंदोलन की ज़मीन पर उतरता है उसे ही अपने भीतर आत्म बल विकसित करना होता है। उसे ही संयम रखना होता है। इसलिए मेरी राय में उत्तम तो यही होगा कि दीपक चौरसिया के साथ हुई घटना की मंच से निंदा की जाए। इससे एक काम यह होगा कि वहाँ मौजूद सभी लोगों में अहिंसा के अनुशासन का संदेश जाएगा। जब शाहीन बाग़ कश्मीरी पंडितों पर चर्चा कर सकता है और उनके साथ खड़े होने का एलान कर सकता है तो मुझे उम्मीद है कि यह भी करेगा। पत्रकार के साथ हिंसा हो यह अच्छी बात नहीं। मैं अगर या मगर लगा कर, तब और अब लगा कर यह बात नहीं कहना चाहता। "

उन्होंने मीडिया का अध्ययन करने वाले विनीत कुमार की भी एक पोस्ट साझा की है।  विनीत कुमार के अनुसार,
“ शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ जो हुआ गलत हुआ. हम इसकी निंदा करते हैं.

कारोबारी मीडिया को पता है कि हम चाहे लोकतंत्र और नागरिकों के खिलाफ कितने खड़े हो जाएं, कॉर्पोरेट की बैलेंस शीट दुरूस्त रखने और अपनी कुंठा की दूकान चलाने के लिए चाहे जिस हद तक गिर जाएं, समाज का संवेदनशील और तरक्कीपसंद तबका ये हम पर हुए हमले, हिंसा की जरूर आवोचना करेगा. उसे खुद को मानवीय दिखने के लिए ऐसा करना जरूरी होगा.

यही कारण है कि सालभर तक जिस कारोबारी मीडिया की कारगुजारियों को जो लोग सिर झुकाकर झेलते हैं या फिर जमकर आलोचना करते हैं, दोनों एक स्वर में ऐसे मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा करते हैं. कोई विकल्प भी नहीं है उनके पास.

राजदीप सरदेसाई को विदेश में जिस तरह जलील करते हैं, हमले करते हैं, एक तबका इस पर जश्न मनाता है और दीपक चौरसिया या फिर जी न्यूज के  मीडियाकर्मी पर हुए हमले की निंदा करता है. ऐसा क्यों है ?

यदि आप मानवीय संवेदना के पक्षधर हैं तो आपको समान रूप से सबका विरोध करना चाहिए. लेकिन नहीं. आप ऐसा नहीं कर सकते. अब किसी भी मीडियाकर्मी पर हमला एक राजनीतिक गुट के प्रतिनिधि पर हमला है और आपको उस हिसाब से विरोध या जश्न के साथ होना होता है. बाकी संवेदनशीलता का फायदा तो उन्हें मिलता ही है.

इससे पहले कि आप मुझे इस हमले का समर्थक मान लें, मैं आपसे बस एक सवाल पूछना चाहता हूं कि दीपक चौरसिया ने पिछले एक साल-दो साल- तीन साल...में ऐसी कौन सी रिपोर्टिंग की है जो जनतंत्र को मजबूत करता है ?

अपील : इस हमले का विरोध करते हुए मेरी अपील होगी कि कारोबारी मीडिया के मीडियाकर्मियों को मारिए नहीं, हमले मत कीजिए. आपको लगे कि वो नागरिक के खिलाफ काम कर रहा है, नाम लेना बंद कर दीजिए. एक पब्लिक फेस, मीडियाकर्मी के लिए गुमनामी से बड़ी मौत कुछ नहीं. शाहीनबाग में उन पर हमला करके एक मरे चुके ज़मीर के मीडिया कारोबारी को हमलावरों ने लोगों की निगाह में जिंदा कर दिया जो कि गलत हुआ।”

अब दीपक चौरसिया से जुड़ी घटना को ही लें। आंदोलन का उद्देश्य, उसकी गम्भीरता, रचनाशीलता, और व्यापकता पर कल की घटना के बाद से बात कम हो रही है, बल्कि बात हो रही है तो आंदोलन के अनियंत्रित  भीड़पने की। एक अनियंत्रित भीड़पने की क्षवि किसी भी आंदोलन को न केवल बदनाम करती है बल्कि वह उसे खोखला कर के, उस आंदोलन को तोड़ने के लिये आधार बना देती है। जन आंदोलन विशेष कर गांधीवादी आधार पर कोई आंदोलन चलाना, उसे जारी रखना और लक्ष्य तक पहुंचने तक अहिंसक बनाये रखना आसान काम नहीं है। फिर भी जो लोग यह आंदोलन चला रहे हैं उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये कि लंबे समय से वे इस सर्द रात में मौसम की परवाह किये बगैर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिये सड़कों पर बैठे हैं। धैर्य सबके बस की बात नहीं होती है। अधिकारसंपन्नता स्वभातः अधीर होती है।

© विजय शंकर सिंह 

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