दिल्ली सरकार ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-1980, के अंतर्गत तीन माह के लिये अधिकृत किये जाने वाले आदेश को जारी किया है। यह कोई नयी बात नहीं है। यह कानून 1980 से लागू है। यह देश की सुरक्षा के लिए सरकार को अधिक शक्ति देने से संबंधित एक कानून है। यह कानून केंद्र और राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध, डिटेंन करने का आदेश देता है। 23 सितंबर 1980 को यह कानून भारत सरकार ने लागू किया था। इसका उद्देश्य,
“to provide for preventive detention in certain cases and for matters connected therewith”.
कुछ मामलों में किसी कि, अगर आवश्यकता हो तो निरोधात्मक निरुद्धि का अधिकार देता है।
अब इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था और तब तक देश मे ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतोष भी बढ़ने लगा था। देश के बाहर आज़ाद भारत की सरकार बनाने के उपक्रम भी शुरू हो गए थे और 1907 के सूरत अधिवेशन के बाद कांग्रेस के तेवर जो राजभक्ति की तरफ झुके थे, बदलने लगे थे। कांग्रेस तब तक ब्रिटिश के साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध मे थी। लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों ने युवाओं को मोहित करना शुरू कर दिया था। तभी 1915 में डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाया गया जिसमें सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने का स्वेच्छाचारी प्राविधान था। तब ब्रिटिश सरकार ने यह तर्क दिया कि यह एक अस्थायी और आपात प्राविधान है जो विश्वयुद्ध के कारण लाया गया है। तब इसका कारण यह बताया गया था,
" for the purpose of securing the public safety and the defence of British India and as to the powers and duties of public servants and other persons in furtherance of that purpose..."
( जनता की सुरक्षा और ब्रिटिश भारत की रक्षा के लिये सरकार अपने लोकसेवकों को यह शक्ति और अधिकार प्रदान करती है। )
वैसे 1812 में बंगाल की सरकार ने इसी प्रकार का एक कानून सबसे पहले बनाया था।
1915 का बना यह कानून 1975 में भी, आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों को निरुध्द और गिरफ्तार करने का एक उपकरण बना रहा। बाद में यह कानून हटा दिया गया। ऐसा नहीं है कि 1915 का ही कानून 1975 में भी लागू किया गया था। बल्कि बीच बीच मे इस कानून में थोड़ी बहुत तब्दीलियां भी की गयीं। 1915 के डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स एक्ट जिसे संक्षिप्त रूप से डीआईआर कहा जाता है का जबरदस्त विरोध किया गया। रोलेट की अध्यक्षता में एक कमेटी भी इस पर पुनर्विचार के लिए बनी थी। प्रखर वकील, एमए जिन्ना जो तब कांग्रेस के एक बड़े नेता बन चुके थे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ा था। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के आधीन 1939 ई में, पुनः यह कानून, नए सिरे से लाया गया, क्योंकि तब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। 1962 में जब भारत चीन युद्ध शुरू हुआ तो पुनः यह कानून कुछ नए फेरबदल के साथ लाया गया। यही कानून 1980 तक बना रहा। 1980 में डीआईआर एक्ट समाप्त कर दिया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 बना।
1915, 1939 और 1962 , अधिकतर रूप से यह कानून युद्ध की पृष्ठभूमि में ही लाया गया था। 1965, 1971 के युद्धों के समय भी यह कानून लागू रहा। मुख्य रूप से यह एक आपातकालीन व्यवस्था है जो युद्ध और संकटकाल में राज्य को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने के लिये असीमित शक्ति देती है। अतः यह भी अपेक्षा की गयी है कि यह कानून आपात स्थिति मे ही सरकार द्वारा प्रयुक्त हो, न कि यह एक सामान्य रूप से किसी निरोधात्मक प्राविधान की तरह लागू किया जाय। क्योंकि यह कानून व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है। इमरजेंसी के दौरान, 1975 से 76 में इस कानून का बहुत दुरुपयोग हुआ। इसीलिए इसे बदल कर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 लाया गया।
रासुका के प्राविधान इस प्रकार हैं।
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● अगर सरकार को लगता कि कोई व्यक्ति उसे देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले कार्यों को करने से रोक रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने की शक्ति जिला मैजिस्ट्रेट या पुलिस आयुक्त, जहां जैसी स्थितियां हो, को दे सकती है।
● सरकार को अगर यह लगता है, कि कोई व्यक्ति कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उसके सामने बाधा खड़ा कर रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● अगर उसे लगे कि वह व्यक्ति आवश्यक सेवा की आपूर्ति में बाधा बन रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● इस कानून के तहत आर्थिक अपराधी और जमाखोरों की भी निरुद्धि की जा सकती है।
● अगर सरकार को ये लगे तो कोई व्यक्ति अनावश्यक रूप से देश में रह रहा है और वह लोक व्यवस्था ( Public Order ) के लिए खतरा बन रहा है तो उसकी भी गिरफ्तारी कर उसे, निरुद्ध कर सकती है।
निरुद्धि का आधार और समयावधि.
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● इस कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को पहले तीन महीने के लिए निरुद्ध किया जा सकता है। फिर, आवश्यकतानुसार, तीन-तीन महीने के लिए उसके निरुद्धि की अवधि बढ़ाई जा सकती है।
● एक बार में ही तीन महीने से अधिक की अवधि नहीं बढ़ाई जा सकती है। हर तीन माह बाद समीक्षा करके ही यह अवधि बधाई जा सकती है।
● राज्य सरकार को निरुद्धि का आधार, बताना होगा, कि किस आधार पर यह निरुद्धि की गयी है।
निरुद्धि का अनुमोदन.
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● जब तक राज्य सरकार इस निरुद्धि का अनुमोदन नहीं कर दे, तब तक यह निरुद्धि बारह दिन से अधिक समय तक नहीं हो सकती है।
● अगर निरुद्धि का आदेश देने वाला अधिकारी पांच से दस दिन में अपना पक्ष, निरुद्धि का आधार स्पष्ट करते हुए, दाखिल करता है तो इस अवधि को बारह की जगह पंद्रह दिन की जा सकती है।
● अगर उस रिपोर्ट को राज्य सरकार स्वीकृत कर देती है तो इसे सात दिनों के भीतर केंद्र सरकार को भेजना होता है। इसमें इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि किस आधार पर यह आदेश जारी किया गया और राज्य सरकार का इसपर क्या विचार है और यह आदेश क्यों जरूरी है।
( यह उन मामलों में हैं जहां सीधे केंद के आधीन कानून व्यवस्था का विषय हो। जैसे दिल्ली )
निरुद्धि का आदेश और नियमन
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● सीआरसीपी, 1973 के तहत जिस व्यक्ति के खिलाफ आदेश जारी किया जाता है, उसकी निरुद्धि भारत में कहीं भी हो सकती है।
● निरुद्धि के आदेश का नियमन किसी भी व्यक्ति पर किया जा सकता है।
● उसे एक जगह से दूसरी जगह पर भेजा जा सकता है।
● पर संबंधित राज्य सरकार के संज्ञान के बगैर व्यक्ति को उस राज्य में नहीं भेजा जा सकता है।
निरुद्धि की अवैधता
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● गिरफ्तारी के आदेश को सिर्फ इस आधार पर अवैध नहीं माना जा सकता है कि इसमें से एक या दो कारण नहीं हैं। अगर यह चारो कारण हैं तो निरुद्धि अवैध मानी जायेगी। निरुद्धि की अवैधता का निर्णय सरकार ही करेगी।
(1) अस्पष्ट हो
(2) उसका अस्तित्व नहीं हो
(3) अप्रसांगिक हो
(4) उस व्यक्ति से संबंधित नहीं हो
● इसलिए किसी अधिकारी को उपरोक्त आधार पर निरुद्धि का आदेश पालन करने से नहीं रोका जा सकता है।
● निरुद्धि के आदेश को इसलिए अवैध करार नहीं दिया जा सकता है कि वह व्यक्ति उस क्षेत्र से बाहर हो जहां से उसके खिलाफ आदेश जारी किया गया है।
● अगर वह व्यक्ति फरार हो तो सरकार या अधिकारी,
(1) वह व्यक्ति के निवास क्षेत्र के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट को लिखित रूप से रिपोर्ट दे सकता है।
( 2) अधिसूचना जारी कर व्यक्ति को तय समय सीमा के अंदर बताई गई जगह पर उपस्थित करने के लिए कह सकता है।
( 3) अगर, वह व्यक्ति उपरोक्त अधिसूचना का पालन नहीं करता है तो उसकी सजा एक साल और जुर्माना, या दोनों बढ़ाई जा सकती है।
सलाहकार समिति का गठन
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● इस अधिनियम के उद्देश्य से केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आवश्यकता के अनुसार एक या एक से अधिक सलाहकार समितियां बना सकती हैं।
● इस समिति में तीन सदस्य होंगे, जिसमें प्रत्येक एक उच्च न्यायालय के सदस्य रहे हों या हो या होने के योग्य हों. समिति के सदस्य सरकार नियुक्त करती हैं।
● संघ शासित प्रदेश में सलाहकार समिति के सदस्य किसी राज्य के न्यायधीश या उसकी क्षमता वाले व्यक्ति को ही नियुक्त किया जा सकेगा, नियुक्ति से पहले इस विषय में संबंधित राज्य से अनुमति लेना आवश्यक है।
सलाहकार समिति का महत्व
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● इस कानून के तहत निरुद्ध किसी व्यक्ति को तीन सप्ताह के अंदर सलाहकार समिति के सामने उपस्थित करना होता है।
● सरकार या निरुद्धि का आदेश देने वाले वाले अधिकारी को यह भी बताना पड़ता है कि उसे क्यों निरुद्ध किया गया है ।
● सलाहकार समिति उपलब्ध कराए गए तथ्यों के आधार पर विचार करती है या वह नए तथ्य पेश करने के लिए कह सकती है। ● सुनवाई के बाद समिति को सात सप्ताह के भीतर सरकार के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करना होता है।
● सलाहकार बोर्ड को अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखना होता है कि निरुद्धि के जो कारण बताए गए हैं वो निरुद्धि के लिये कानूनी रूप से पर्याप्त हैं या नहीं।
● अगर सलाहकार समिति के सदस्यों के बीच मतभेद है तो बहुमत के आधार निर्णय माना जाता है।
● सलाहकार बोर्ड से जुड़े किसी मामले में निरुद्ध व्यक्ति की ओर से कोई वकील उसका पक्ष नहीं रख सकता है और सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट गोपनीय रखने का प्रावधान है। निरुध्द व्यक्ति स्वयं ही अपना पक्ष रखता है। एक पक्ष जिला मैजिस्ट्रेट और एसपी का होता है दूसरा निरुध्द व्यक्ति का होता है। इसमे न तो सरकारी वकील रहते हैं और न हीं निरुध्द व्यक्ति के वकील।
सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट पर कार्रवाई
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● अगर सलाहकार बोर्ड व्यक्ति की निरुद्धि के कारणों को सही मानता है तो सरकार उसकी निरुद्धि को उपयुक्त समय, जितना पर्याप्त वह समझती है, तक बढ़ा सकती है। ● अगर समिति निरुद्धि के कारणों को पर्याप्त नहीं मानती है तो निरुद्धि का आदेश रद्द हो जाता है और व्यक्ति को रिहा करना पड़ता है।
गिरफ्तारी की अधिकतम अवधि
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● अगर, निरुद्धि के कारण पर्याप्त साबित हो जाते हैं तो व्यक्ति को गिरफ्तारी की अवधि से एक साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।
● समयावधि पूरा होने से पहले न तो निरुद्धि को समाप्त किया जा सकता है और न ही उसमें फेरबदल हो सकता है।
निरुद्धि के आदेश की समाप्ति
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● निरुद्धि के आदेश को रद्द किया जा सकता है या बदला जा सकता है, जो सरकार ही करेगी,
(1) इसके बावजूद, कि निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के उसके अधीनस्थ अधिकारी ने की है।
(2) इसके बावजूद कि यह निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के हुई हो।
यह कानून, सामान्य गिरफ्तारी से अलग है, क्योंकि,
● सामान्य गिरफ्तारी में पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को, चौबीस घँटे के अंदर निकटतम मैजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, जो बाध्यता इस कानून में नहीं है । ( धारा 56 और 76 सीआरपीसी )
● सामान्य गिरफ्तारी में, सीआरपीसी की धारा 50 के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तार करने का काऱण बताना पड़ता है और उसे जमानत के लिये अदालत से अपनी प्रार्थना करने का अधिकार होता है जो इस कानून में नहीं है।
● संविधान के अनुच्छेद 22 (1) जो मौलिक अधिकारों के अंतर्गत है हर व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह आपना पक्ष रखने के लिये कानूनी सहायता ले सकता है और वकील एख सकता है, लेकिन इस कानून में यह सुविधा प्रतिबंधित है।
उपरोक्त कारणों के ही कारण इस कानून को स्वेच्छाचारी बताया जाता है और इसकी निंदा की जाती है। लेकिन जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, यह कानून, अत्यंत आपात स्थिति में ही अपवादस्वरूप लागू करने के लिये ही बनाया गया है न कि रूटीन कानून व्यवस्था के मामलों में। मुझे अपने साथी जिला मैजिस्ट्रेट के साथ कई बार एडवायजरी बोर्ड के समक्ष उपस्थित होना पड़ा है और बोर्ड को यह विश्वास दिलाना पड़ा है कि यह लोक व्यवस्था के भंग होने का मामला था। ऐडवाज़ारी बोर्ड का जोर इसी बात पर रहता है कि जब कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के सारे प्राविधान विफल हो जांय तभी यह कानून अमल में लाया जाय, क्योंकि यह व्यक्ति के मौलिक और अन्य कानूनी अधिकारों का हनन करता है जो उसे एक नागरिक होने के कारण प्राप्त हैं।
© विजय शंकर सिंह
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