Monday, 7 October 2019

प्रधानमंत्री को लिखे पत्र पर मुकदमा और न्यायपालिका  / विजय शंकर सिंह

मुज़फ़्फ़रपुर बिहार के सीजेएम ने एक एडवोकेट सुधीर कुमार ओझा के प्रार्थना पत्र पर 49 बुद्धिजीवियों के विरुद्ध, प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिखने के आरोप में मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया है। दुनियाभर के लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले किसी भी देश में किसी भी अदालत ने ऐसा आदेश नहीं दिया होगा। आज का विमर्श न्यायपालिका के ऐसे ही हैरान करने वाले कुछ कदमों पर है। 

देश के 49 नामचीन हस्तियों, जो फ़िल्म, अकादमिक और विद्वत्ता के विभिन्न क्षेत्रों में अपना मज़बूत दखल रखते हैं ने जुलाई 2019 में प्रधानमंत्री को सम्बोधित करते हुए एक पत्र लिखा था, जिसमे उन्होंने प्रधानमंत्री से देश मे बढ़ रही भीड़ हिंसा पर रोक लगाने के लिये प्रभावी कदम उठाने का अनुरोध किया था। यह पत्र 23 जुलाई को लिखा गया था। प्रधानमंत्री  मोदी जी को पत्र लिखने वाले इन 49 महानुभावों में इतिहासकार रामचंद्र गुहा, अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप और मणि रत्नम समेत अलग-अलग क्षेत्रों की हस्तियां शामिल थीं। उन्होंने पत्र में लिखा है, कि, मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों पर हो रही लिंचिंग पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। इन दिनों "जय श्री राम" हिंसा भड़काने का एक नारा बन गया है। इसके नाम पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं। यह दुखद है।' 

इन बुद्धिजीवियों ने शांतिप्रिय और गर्वित भारतीय होने के नाते, बीते कुछ दिनों में देश में हुई भयंकर और दुखद घटनाओं से भी चिंता व्यक्त की है। उनके अनुुुसार, संविधान में देश को धर्म निरपेक्ष समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य कहा गया है जहां हर धर्म, लिंग और जाति के लोग एक समान हैं.'

चिट्ठी में प्रधानमंत्री मोदी के सामने मूलत: निम्न बातें रखी गईं

1. मुस्लिम, दलितों और अल्पसंख्यकों की लिचिंग बंद हो, क्योंकि एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से अब तक दलितों के साथ अत्याचार के 840 मामले सामने आए हैं। पत्र में दिए गए आंकडो के अनुसार, 1 जनवरी, 2009 से 29 अक्टबूर 2018 के बीच धर्म के नाम पर हिंसा और नफ़रती व्यवहार के 254 मामले सामने आए हैं। इनमें से 62% मामले मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हैं। 

2. बिना मतभेद, अहसमति के कैसा गणतंत्र ? सरकार से मतभेद होने पर या अपने विचार रखने पर लोगों को 'एंटी-नेशनल', 'अर्बन नक्सल' नहीं कहा जाना चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 19 किसी को भी अपनी बात रखने का अधिकार देता है।

पत्र में यह भी सुझाव दिया गया है कि, ' इन घटनाओं को गैर-जमानती अपराध घोषित करते हुए तत्काल अदालत द्वारा सुनवाई की जानी चाहिए। यदि हत्या की तुलना में यह बड़ा और अधिक जघन्य अपराध है। नागरिकों को डर के साए में नहीं जीना चाहिए। सरकार के विरोध के नाम पर लोगों को 'राष्ट्र-विरोधी' या 'शहरी नक्सल' नहीं कहा जाना चाहिए और न ही उनका विरोध करना चाहिए। अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। असहमति जताना इसका ही एक भाग है। ' 

पत्र का उद्देश्य भीड़ हिंसा पर रोक लगाना था, तो देश के पिछले कुछ सालों में हुयी भीड़ हिंसा से जुड़े आंकड़ों पर भी एक नज़र डालते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट्स के अनुसार, 2016 में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की 840 घटनाएं दर्ज हुईं। लेकिन इसके विपरीत, इन मामलों के दोषियों को मिलने वाली सजा का प्रतिशत कम हुआ। जनवरी 2009 से 29 अक्टूबर 2018 तक धार्मिक पहचान के आधार पर देश भर में, 254 घटनाएं दर्ज की गयीं। इसमें 91 लोगों की मृत्यु हुई जबकि 579 लोग घायल हुए। अगर धर्मवार आंकड़े देखें तो, मुस्लिमों, जिनकी संख्या, कुल जनसंख्या के 14% है, के खिलाफ 62% मामले, ईसाइयों जिनका कुल प्रतिशत, जनसंख्या के 2% है, के खिलाफ 14% मामले दर्ज किए गए। मई 2014 के बाद से जबसे एनडीए की सरकार सत्ता में आई, तब से इनके खिलाफ हमले के 90% मामले देश भर में दर्ज हुये है। 

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी अपनी एक रिपोर्ट में माना कि वर्ष 2014 से लेकर 3 मार्च 2018 के बीच नौ राज्यों में भीड़ हिंसा की 40 घटनाओं में 45 लोगों की मौत हो गई। हांलाकि मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि उनके पास इस बाबत विश्वनीय तथ्य नहीं हैं कि ये घटनाएं गौ रक्षकों की गुंडागर्दी, सांप्रदायिक या जातीय विलेष या बच्चा चुराने की अफवाह की वजह से ही घटी हैं। 12 राज्यों में ऐसी घटनाओं से संबंधित मुकदमों में दो आरोपियों को सजा सुनाई गई। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्था ‘इंडियास्पेंड’ की रिपोर्ट है कि वर्ष 2012 से 2019 में अब तक सामुदायिक घृणा से प्रेरित 128 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 47 लोगों की मृत्यु हुई है। ‘इंडियास्पेंड’ के मुताबिक, 2010 के बाद से नफरत जनित अपराधों की 87 घटनाएं हुई हैं। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने गौ रक्षकों पर कार्रवाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के मद्देनजर अपने लिखित जवाब में इन आंकड़ों का उल्लेख किया है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील अनुकूल चंद्र प्रधान ने अदालत में कहा, कि ' लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है और सरकारें इस समस्या से निपटने के लिए शीर्ष अदालत द्वारा जुलाई, 2018 में दिए गए निर्देशों पर अमल के लिए कोई कदम नहीं उठा रहीं। ' 

इस पत्र के सार्वजनिक होते ही देश मे दो प्रकार की प्रतिक्रियाएं हुयी। एक सरकार के पक्ष में तो दूसरी सरकार के विपक्ष में। 49 नामचीन हस्तियों के पत्र के विरोध में 62 अन्य नामचीन लोगो ने पत्र लिख कर उनकी निंदा की और कहा कि 49 लोगों द्वारा लिखा गया पत्र, पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, और उसे केवल दलितों और अल्पसंख्यक तक ही सीमित रखा गया है। 49 को अगर अपनी बात पत्र लिखकर कहने का अधिकार है तो वही अधिकार 62 लोगों को भी प्राप्त है। इस पत्र पर प्रधानमंत्री या उनका कार्यालय कोई जवाब दे पाता, उसके पहले बौद्धिकोंं-सिनेमा से जुड़े लेखक-कलाकारों के 62 लोगों के अन्य एक समूह ने प्रतिक्रियात्मक पत्र जारी कर दिया। समूह-62 ने 49 बौद्धिकों पर सवाल दागे कि माओवादी हिंसा, कश्मीरी अलगाववादियों की कारगुजारियों और देशद्रोह के मामलों पर आप लोगों की चुप्पी क्यों? 

पर समस्या, 49 के उत्तर में 62 का खड़े हो जाना नहीं, बल्कि समस्या यह है कि, 49 महानुभावों द्वारा लिखे गए पत्र को देश की क्षवि खराब करने का षडयंत्र बताते हुये, अदालत में उन 49 लोगो के खिलाफ कार्यवाही हेतु प्रार्थनापत्र दिया गया।  प्रधानमंत्री को लिखे गए इस पत्र के बारे में सुधीर कुमार ओझा के इस प्रार्थनापत्र पर  उन 49 बुद्धिजीवियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करके जांच करने का आदेश सीजेएम मुजफ्फरपुर द्वारा दिया गया।  यह संभवतः देश के न्यायिक इतिहास की पहली घटना होगी जब किसी नागरिक द्वारा अपने ही प्रधानमंत्री को पत्र लिखने पर किसी अदालत में कोई प्रार्थनापत्र दायर  हुआ हो और अदालत ने उस पर संज्ञान लेते हुए मुक़दमा दर्ज करने का आदेश दिया हो। अब यह प्रकरण एक न्यायिक प्रक्रिया का भाग बन गया है। इसका निस्तारण अब न्यायिक रास्ते से ही होगा। 

इस संबंध में जो एफआईआर दर्ज हुयी है वह आइपीसी की धारा 124A, सेडिशन या देशद्रोह, 153B, 160, 190, 290, 297 और 504, जो देशद्रोह और देशविरोधी कृत्यों से जुड़े अपराध हैं से संबंधित हैं। प्रार्थना पत्र देने वाले मुजफ्फरपुर के वकील ओझा ने अपने प्रार्थनापत्र में यह लिखा है कि, कुल 49 बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखा है उसमें यह अंकित है कि इस सरकार के कार्यकाल में देश मे हिंसा की बाढ़ आ गयी है। अखबारों और टीवी चैनलों पर जो इस पत्र के हवाले से दिखाया गया उससे देश की क्षवि को बहुत नुकसान हुआ है। यह मिथ्या आरोपों से देश को दुनिया मे बदनाम करने की एक साजिश है, अतः यह देशद्रोही गतिविधि है। एडवोकेट ओझा ने अखबारों से बात करते हुए कहा कि, " हर व्यक्ति को प्रधानमंत्री को पत्र लिखने का अधिकार है, लेकिन मीडिया के माध्यम से झूठा आरोप लगा कर सरकार को बदनाम करने का अधिकार नहीं है। अगर वे भीड़ हिंसा के बारे में शिकायत भी कर रहे थे तो उन्हें सरकार के कदम की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। 

सुधीर कुमार ओझा मुजफ्फरपुर के जिला न्यायालय में 1996 से वकालत कर रहे हैं और वे ऐसे मामलों में अदालत में प्रार्थनापत्र और याचिकाएं दायर करते रहते हैं। उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल गांधी, राज ठाकरे, अमिताभ बच्चन, लालू यादव आदि लोगो के खिलाफ भी समय समय पर दरख्वास्तें दी है। न्यायिक रूप से सक्रिय रहने का उनका अपना अलग अंदाज़ है और न्यायिक तोष का, जो संवैधानिक अधिकार, देश के हर नागरिक को प्राप्त है, यह उन्हें भी प्राप्त है। लेकिन यह दायित्व सीजेएम का है कि वह उन प्रार्थनापत्रों पर क्या और किस तरह से सोचते हैं और क्या न्यायिक निर्णय पारित करते हैं। पूरे प्रार्थनापत्र में जो मुख्य आरोप है वह यह है कि 49 लोगो ने अपने पत्र में सरकार की आलोचना, भीड़हिंसा के संदर्भ में सार्वजनिक की जिससे देश की क्षवि धूमिल हुयी और यह कृत्य देश विरोधी है। 

सितंबर 2018 में ही सुप्रीम कोर्ट ने भीड़ हिंसा की घटनाओं पर चिंता व्यक्त की थी, और ऐसी घटनाओं पर सरकार को कड़े कानून बनाने का निर्देश दिया था। शीर्ष अदालत ने 17 जुलाई, 2018 को सरकारों को तीन तरह के उपाय, जो एहतियाती, उपचारात्मक और दंडात्मक-होंगे, करने के निर्देश दिए थे। राज्य सरकारों से कहा था कि वे प्रत्येक जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों को नोडल अधिकारी मनोनीत करें। यदि वह निर्देशों का पालन करने में विफल रहता है तो इसे जान-बूझकर लापरवाही करने या कदाचार का कृत्य माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि गोरक्षा के नाम पर हिंसा और भीड़ हिंसा में हत्या की घटनाओं पर अंकुश के लिए उसके निर्देशों पर अमल किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से कहा कि वे गोरक्षा के नाम पर हिंसा और भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं पर अंकुश के लिए उसके निर्देशों पर अमल किया जाए और लोगों को इस बात का एहसास होना चाहिए कि ऐसी घटनाओं पर उन्हें कानून के कोप का सामना करना पड़ेगा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की पीठ ने इस तथ्य का संज्ञान लिया कि उसके 17 जुलाई के फैसले में दिए गए निर्देशों पर अमल के बारे में दिल्ली, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, तेलंगाना और मेघालय सहित आठ राज्यों को अभी अपनी रिपोर्ट दाखिल करनी है। इस फैसले में न्यायालय ने स्वंयभू गोरक्षकों की हिंसा और भीड़ द्वारा लोगों को पीट कर मार डालने की घटनाओं से सख्ती से निबटने के बारे में निर्देश दिए गए थे। 

पीठ ने इन निर्देशों में से एक एक विंदु पर अमल के बारे में केंद्र सरकार से भी जवाब मांगा था. इस निर्देश में केंद्र और सभी राज्यों को टेलीविजन, रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक तथा प्रिंट मीडिया के माध्यम से गोरक्षा के नाम पर हत्या और भीड़ द्वारा लोगों की हत्या के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने के लिए कहा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वह भीड़ की हिंसा के ख़िलाफ़ उसके फ़ैसले का व्यापक प्रचार करें. इसमें कहा गाया था कि वे इस सूचना को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करें ताकि लोगों को पता चले। सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई के अपने फ़ैसले में भीड़ की हिंसा को 'मोबोक्रेसी' बताते हुए कहा था कि देश के क़ानून को ख़त्म करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। 

सरकार ने इन निर्देशों पर अमल भी किया। केंद्र सरकार ने 23 जुलाई 2018 को केंद्रीय गृह सचिव की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय कमेटी बनाई। इस कमेटी ने चार हफ्तों में अपनी रिपोर्ट दी। कमेटी की सिफारिशों पर विचार के लिए सरकार ने तत्कालीन गृह मंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्री समूह (जीओएम) का गठन किया। जीओएम की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चार जुलाई 2018 को कहा कि राज्य सरकारों को परामर्श जारी किया गया है। भारतीय संवैधानिक प्रणाली के मुताबिक ‘पुलिस’ और ‘कानून व्यवस्था’ राज्य के विषय हैं। अपराध पर नियंत्रण, कानून व्यवस्था की बहाली और नागरिकों के जीवन और सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है।

देश मे बढ़ रहे भीड़ हिंसा और अराजक माहौल का संज्ञान सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों को है। सुप्रीम कोर्ट ने भीड़ हिंसा पर कानून बनाने के निर्देश दिए और कुछ राज्यों, जैसे पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश और राजस्थान में नए और कड़े कानून बने भी। कुछ राज्यो में कानून बनने की प्रक्रिया  चल भी रही है। भारत जैसे देश के लिये सड़कों पर किसी व्यक्ति की हत्या और वह भी धर्म, जाति सम्प्रदाय और क्षेत्र के नाम पर भीड़ द्वारा कर दिया जाय एक संवेदनशील और सभ्य समाज के लिये चिंताजनक है और इस चिंता में सुप्रीम कोर्ट तथा सरकार दोनो की ही चिंताएं शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश देखें तो अदालत ने भीड़ हिंसा को रोकने के लिये सरकार को जनजागरूकता अभियान चलाने हेतु विभिन्न संचार माध्यमों के उपयोग करने को भी कहा है। सुप्रीम कोर्ट का हर आदेश स्वभावतः सार्वजनिक होता है और उसकी रिपोर्टिंग देश भर के अखबार और मीडिया तंत्र मामले की गंभीरता को देखते हुये करते हैं। इसे देश और दुनिया मे सभी लोग पढ़ते हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं। क्या इससे देश की विपरीत क्षवि नहीं बनती है ? नही, बल्कि इससे यह क्षवि बनती है कि सरकार और अदालत अपने दायित्वों  के प्रति सजग है। अतः एडवोकेट ओझा का यह कहना कि इस पत्र से सरकार की क्षवि जानबूझकर कर खराब करने की कोशिश की गयी है महज अपने पक्ष को बल देने का एक निर्बल प्रयास है। सीजेएम मुज़फ़्फ़रपुर को इस विंदु पर भी मुक़दमे दायर करने का आदेश देते समय ध्यान देना चाहिए था। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, संविधान का एक मौलिक अधिकार है। 49 बुद्धिजीवियों द्वारा लिखा गया, पत्र उसी मौलिक अधिकार के अंतर्गत सरकार को दिया गया है। अगर देश मे भीड़ हिंसा की घटनाएं न हुयी होतीं, बुद्धिजीवियों के पत्र में झूठे आंकड़े दिए गए होते, या सुप्रीम कोर्ट और सरकार के संज्ञान में यह सब बातें नहीं होतीं तो निश्चय ही यह पत्र एक प्रोपेगेंडा होता और तब यह तर्क दिया जा सकता था कि यह पत्र सरकार के प्रति दुर्भावना से प्रेरित और एक प्रकार का दुष्प्रचार है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है। 

हाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुयी हैं, जिनमें न्यायपालिका के संबंध में कुछ हैरान करने वाली खबरें आयी हैं । हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों ने इधर हाल के कुछ मुक़दमों में खुद को सुनवायी से अलग कर के कुछ चिंताजनक संकेत दिए हैं। उदाहरण के लिए अहमदाबाद हाईकोर्ट में पूर्व आईपीएस अफसर संजीव भट्ट के जमानत का मामला देखें। पहले इस मुकदमे में जानबूझकर तारीखें दी गयी और फिर जज ने सुनवाई से खुद को अलग कर लिया। कई तारीखों के बाद जमानत का अनुरोध खारिज़ कर दिया। जमानत का अनुरोध स्वीकार करना और न करना यह अदालत का कानूनी अधिकार है, पर बिना किसी उचित कारण के मुक़दमे की सुनवाई से अलग हट जाने पर जज और न्यायपालिका पर अनेक सवाल खड़े करता है। 

ऐसा ही एक मामला है भीमा कोरेगांव मामले में अभियुक्त गौतम नवलखा का। गौतम नवलखा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कई जजो ने खुद को सुनवायी से अलग किया। जब इस प्रवित्ति पर कुछ पूर्व जजों ने भी टिप्पणी की तो गौतम नवलखा की याचिका सुनी गयी। अधिकतर जज, वकीलों की पृष्ठभूमि के होते हैं, और जब वे वकील से जज बनते हैं तो उन मामलों में जिनमे वे वकालत कर चुके होते हैं,  न्यायिक सिद्धांतों के अनुसार जज नहीं हो सकते हैं, अतः वे उन मुकदमों की सुनवायी से खुद को अलग कर लेते हैं। पर एक ही मामले में लगातार जज के सुनवायी से अलग हटते रहने के कारण तरह तरह की अफवाहें फैलती हैं और न्यायपालिका की विपरीत क्षवि बनती है। यह सब खबरें सोशल मीडिया पर अलग अलग तरह से लोग साझा करते हैं, और इससे न्यायपालिका के बारे में कोई सार्थक संदेश नहीं जाता है। 

न्यायपालिका का एक बोध वाक्य यह भी है कि न्याय हो यह तो आवश्यक है ही, न्याय होता हुये दिखे भी, यह ज़रूरी है। लोगों की आस्था और विश्वास कानून पर बना रहे इसके लिये जरूरी है कि न्यायपालिका को संरक्षक की भी भूमिका अदा करनी है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट का वैधानिक दायित्व ही है, संविधान की रक्षा करना। देश का कोई भी कानून अगर वह संविधान की किसी धारा का उल्लंघन करता है तो वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया जा सकता है। न्यायपालिका को विधि की पवित्रता और नागरिकों के संवैधानिक अधिकार पर निगरानी रखनी ही पड़ेगी अन्यथा लोकतंत्र एक मज़ाक़ बन कर रह जायेगा। 

© विजय शंकर सिंह

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