साल 1937 में कांग्रेस में एक विघटन हुआ और जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, मीनू मसानी और डॉ राममनोहर लोहिया के समाजवादी साथियों ने एक नया दल बनाया, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी। इसी दल में सीपीएम के कद्दावर नेता, ईएमएस नम्बूदरीपाद भी थे जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। ये सभी युवा थे और दुनियाभर में फैल रही समाजवादी विचारधारा से जुड़े थे। लेकिन आज़ादी की साझी लड़ाई चलती रही।
1940 में सुभाष बाबू भी कांग्रेस से अलग हुए और अपना एक नया दल खड़ा किया जिसका नाम पड़ा, फॉरवर्ड ब्लॉक। हमारे संघी मित्र सुभाष के केवल उसी रूप के साथ अपने को पाते हैं जिसमे गांधी जी ने सुभाष बाबू को 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने को बाध्य कर दिया था। पर वे सुभाष और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के टकराव जो साम्प्रदायिक मुद्दे पर था पर सुभाष का नाम नहीं लेते हैं। यहां वे खुद को असहज पाते हैं।
1947 के बाद इन समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने सोशलिस्ट पार्टी बनाई और कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े और अपना अलग अस्तित्व बरकरार रखा। केरल के पहले समाजवादी नेता प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के थानुपिल्लै थे जिनकी सरकार द्वारा छात्रों के आंदोलन पर गोली चलाई गई और डॉ लोहिया चाहते थे कि थानुपिल्लै मुख्यमंत्री के रूप में जिम्मेदारी लेते हुये त्यागपत्र दे दे। डॉ लोहिया, किसी भी अहिंसक आंदोलन पर गोली चलाने के खिलाफ थे। वे इसे सत्ता का दमन मानते थे। थानुपिल्लै के त्यागपत्र के सवाल पर लोहिया अलग थलग पड़ गये और उनके अन्य साथी जिसमे जेपी भी थे, ने लोहिया का विरोध किया, और लोहिया ने पार्टी छोड़ कर एक नयी पार्टी बनाई संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, यानी संसोपा। यहां से जेपी और लोहिया की राह अलग अलग हो गई।
इसके कुछ समय बाद जयप्रकाश नारायण ने भी सक्रिय राजनीति छोड़ दी और वे सर्वोदय के सामाजिक कार्य मे लग गए। जेपी के इसी स्वरूप की कटु आलोचना करते हुये लोहिया ने उन्हें मठी गांधीवादी कहा है। लोहिया खुद को कुजात गांधीवादी और जवाहरलाल नेहरु को सरकारी गांधीवादी कहते थे। वैचारिक प्रखरता और जुझारूपन समाजवादी आंदोलन के नेताओ में जितना डॉ लोहिया में था, उतना किसी मे नहीं था। भारतीय समाजवादी आंदोलन एक प्रकार से डॉ लोहिया का ही आंदोलन कहा जा सकता है।
जेपी, इसके बाद, लंबे समय तक राजनीति की मुख्य धारा से दूर रहे। लग्भग सक्रिय राजनीति से सन्यास की उनकी दशा थी वह। लेकिन झोपड़ी चुनाव चिह्न लिये प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 1967 के चुनाव तक सक्रिय ज़रूर रही। 1967 के 12 अक्टूबर को डॉ लोहिया की 57 साल की उम्र में मृत्यु हो गयी । फिर तो समाजवादी आंदोलन बिखर ही गया। आचार्य नरेंद्र देव पहले ही नहीं रहे, जेपी अन्यमनस्क हो गए थे, अशोक मेहता जैसे कुछ समजवादी कांग्रेस में चले गए। प्रखर और जुझारू संघठन तथा संसद की बहस को अपनी तरफ मोड़ देने की क्षमता रखने वाले कुछ सांसदों के बावजूद यह पार्टी बिखरती चली गयी। आंदोलन और चिन्तन का जो तेवर लोहिया में था, उसका अभाव साफ दिख रहा था ।
जेपी के बारे में कहा जाता है कि वह अगर कांग्रेस में होते तो जवाहरलाल नेहरू के स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते । 1973 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो को लेकर एक व्यापक छात्र आंदोलन शुरू हुआ जो बाद में बिहार होते हुये उत्तर प्रदेश और फिर 1974 तक आते आते पूरे उत्तर भारत मे फैल गया। उस समय, जेपी पर सबकी निगाह गयी और उन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण किया। उनके साथ आचार्य जेबी कृपालानी भी जुड़े। फिर तो सभी विरोधी दल धीरे धीरे जुड़ते गये।
1975 में चुनाव में सरकारी सेवक यशपाल कपूर द्वारा प्रचार में दुरुपयोग करने के आरोप पर, समजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर, इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया और तब यह आंदोलन जिसे सम्पूर्ण क्रांति कहा जाता था, ने इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की मांग को मुद्दा बनाकर एक व्यापक जनांदोलन छेड़ दिया।
26 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की और सभी बड़े नेता, जेपी सहित जेलों में बंद हो गए। भारी संख्या में अन्य विरोधी दलों के कार्यकर्ता भी जेलों में डाल दिये गए और यह स्थिति 1977 में चुनाव की घोषणा होने तक बनी रही।
1977 में जब चुनाव की घोषणा हुई तो संसोपा, स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ ओर मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली कांग्रेस एस, ने मिल कर एक पार्टी बनाई, जनता पार्टी, जिसकी प्रेरणा के केंद में जेपी थे। पर विभिन्न वैचारिक पीठिका पर बनी जनता पार्टी तीन साल में ही बिखर गयी। जेपी भी बीमार हो गए थे और फिर वे इस बीमारी से उबर नहीं पाए और 8 अक्टूबर 1979 को पटना में उनकी मृत्यु हो गयी।
जेपी और इंदिरा गांधी में तमाम विरोध के बावजूद दोनों में आत्मीय और पारिवारिक सम्बंन्ध था। वे इंदिरा गांधी को अक्सर विभिन्न मसलों पर अपनी राय भी देते रहते थे। ऐसा ही एक पत्र उनका कश्मीर के संबंध में है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं। कश्मीर मसले पर जेपी ने इंदिरा गांधी को लिखे पत्र में क्या कहा था, यह जानना दिलचस्प है।
आज केंद्र सरकार द्वारा धारा 370 और 35 ए हटाये जाने को लेकर संसद से सड़क तक बहस हो रही है। कुछ सरकार के इस फैसले के साथ हैं तो कुछ उसकी तीखी आलोचना कर रहें हैं । सबके अपने अपने तर्क हैं ।ऐसे में कश्मीर समस्या के संदर्भ में करीब साठ साल पहले शेख अब्दुल्ला की रिहाई की मांग के समर्थन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण ने एक लंबा पत्र लिखा था, जिसके कुछ अंश आप यहां पढ़ सकते हैं।
".कश्मीर के सवाल को लेकर यह देश 19 वर्षों से परेशान है. इसकी कीमत हमने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से चुकाई है. हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, लेकिन कश्मीर में ताकत के बल पर शासन करते हैं। हम अपने आपको बहलाते रहे हैं कि बख्शी साहब के नेतृत्व में हुए दो आम चुनावों ने जनता की इच्छाओं को व्यक्त कर दिया है और ये कि जनता के एक छोटे हिस्से, पाकिस्तान समर्थक गद्दारों को छोड़कर बाकी लोगों के लिए सादिक सरकार लोकप्रिय बहुमत पर आधारित सरकार थी। हम लोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद को येन-केन-प्रकारेण दबाव डाल कर स्थापित करने का प्रयास करने देते हैं।
‘कश्मीर ने दुनिया भर में भारत की छवि को जितना धूमिल किया है, उतना किसी और मसले ने नहीं किया है. रूस समेत दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जो हमारी कश्मीर संबंधी नीतियों की तारीफ करता हो, यद्यपि उनमें से कुछ देश अपने कुछ वाजिब कारणों से हमें समर्थन देते हैं.
‘यह बात कोई मायने नहीं रखती कि कितना अधिक, कितने जोर से और कितने लंबे समय से हम इस बात पर गुमान करते रहें कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसलिए कोई कश्मीर समस्या नहीं है। इसके बावजूद यह तथ्य अपनी जगह मौजूद है कि देश के उस हिस्से में हम एक गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या का सामना करते आ रहे हैं। वह समस्या इसलिए नहीं है कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है, बल्कि इसलिए है क्योंकि वहां जनता में गहरा और व्यापक राजनीतिक असंतोष है। देश की जनता को कश्मीर घाटी की वास्तविक स्थिति के बारे में अंधकार में रखा जा सकता है. लेकिन नई दिल्ली स्थित सभी विदेशी दफ्तर और सभी विदेशी संवाददाताओं को सच का पता है। हमें भी तथ्यों की जानकारी है, लेकिन हम उनका सामना नहीं करना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि कोई (शायद सादिक साहब या कासिम साहब) एक दिन जादू की छड़ी घुमाएगा और पूरी घाटी में एक मनोवैज्ञानिक बदलाव हो जाएगा…”
‘कुछ ऐतिहासिक घटनाओं ने, जिनमें से कुछ हमारे नियंत्रण में हैं और कुछ नहीं हैं, ने हमारी कार्यकुशलता (जो भारत सरकार को अब तक आ जानी चाहिए थी) को संकुचित करने का काम किया है. उदाहरण के लिए, अब राज्य के किसी भी हिस्से का किसी भी तरह से अलग होने का प्रयास अव्यावहारिक है, इस संदर्भ में यह बात मायने नहीं रखती कि यह लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के कितने अनुरूप है. जो भी समाधान होगा, वह अधिग्रहण की परिधि में ही होगा"
जेपी का यह पत्र बताता है कि कश्मीर की समस्या का हल सेना या सैन्य बल नहीं है। दुनिया मे कोई भी इलाका केवल सेना या सैन्यबल के दम पर जबरन अपना बना कर नहीं रखा जा सकता है। जनता और अलगाववादी तत्वो को कुशलता से अलग कर के ही अलगाववादी तत्वो के खिलाफ अभियान छेड़ा जा सकता है। पर इसके लिये कश्मीर की जनता का विश्वास प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है। 11 अक्टूबर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
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