अभी लॉकडाउन ही है, तो टाइम पास करने के लिए सान्ध्य टाइम्स में छपे मेरे हेरिटेज कॉलम के ज़रिए जानते हैं कि 1803 से 1947 के बीच, अंग्रेजों की बढ़ती चहलकदमी के चलते हिन्दुस्तानी कश्मीरी गेट और सिविल लाइंस इलाकों को ’फिरंगी दिल्ली’ कहने लगे थे।
अंग्रेजों ने दिल्ली को ब्रिटिश इंडिया की राजधानी बनाने से दशकों पहले ही अपना लिया था। असल में, 1803 से ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली में पैर पसारने शुरू कर दिए थे। दिल्ली की गलियों और बाजारों में, यहां-वहां उसी दौर की अंगे्रजों की ढेरों निशानियां बिखरीं हैं। और दिल्लीवाले रोज-रोज उन्हें नजरअंदाज़ करते निकल जाते हैं। कहीं ट्राम का पिलर खड़ा है, तो कहीं अंग्रेजी काल का शेर मुंह नल। आज ऐसी ही चंद भूली-बिसरी निशानियों से रू-ब-रू करते हैं...
● ईसाइयों का पहला कब्रिस्तान
कश्मीरी गेट स्थित जनरल पोस्ट आॅफिस यानी जी पी ओ और लोथियान ब्रिज के बीच है लोथियान कब्रिस्तान। सामने से रोज हजारों लोग गुजरते हैं, लेकिन दिल्ली की भागदौड़ में कोई गौर तक नहीं करता। यह दिल्ली में ईसाइयों का पहला कब्रिस्तान है और है 1806 से। सबसे पुरानी कब्र 1808 की है। करीब 209 साल पहले दफन बंदे के बारे में जानकारी नहीं मिलती। बस इतना पता है कि उस जमाने मे अकबर शाह द्वितीय का शासन था और अंग्रेज दबे पांव दिल्ली पर कब्जा जमाने की फिराक में थे। सन् 1958 के बाद कब्रिस्तान में दफन करना बंद कर दिया गया। फिर भी, बीती दो सदियों के दौरान दफन शख्सियतों की कहानियां आज भी यहां जिंदा हैं। एक कब्र थाॅम्स डूंस की है, जिस पर आठ खम्भे और एक गुम्बदनुमा छत है। कब्र को जेम्स स्किनर ने बनवाया था।
‘कब्रों पर लगे शिलालेख जाहिर करते हैं कि एक सौदागर ने 4 शादियां कीं। उसने अपनी तीनों बीवियों को यहां दफनाया और चैथी बीवी ने उसे ही यहां दफना दिया। और एक कब्र है विधवा की, जो अपने तीन पतियों से ज्यादा जी और शानो-शौकत की जिन्दगी जीने के लिए खासी रईस हो गई।’, दिल्ली के चप्पे-चप्पे के जानकार आर वी स्मिथ अपनी किताब ‘द दिल्ली देट नो वन नोज’ में लिखते हैं। गौरतलब है कि यह ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे आॅफ इंडिया’ (ए एस आई) संरक्षित स्थल है।
● शेर मुंह वाला नल
पीने के पानी का कलात्मक शक्ल का नल देखा है कहीं ? दिल्ली में पीने के पानी के तो लाले हैं, फिर नलों के डिजाइन पर कौन गौर करे ? खैर, इंग्लैडं समेत समूचे यूरोपीय देशों में कलात्मक नल और उनके आगे बनी हौदी आज भी सड़क- चैराहे पर ध्यान खींचती है। दिल्ली को अपनाने वाले अंग्रेजों ने वैसे ही नल यहां भी लगवाए, जो अब कहां नज़र आते हैं? लेकिन कश्मीरी गेट की हेमिल्टन रोड पर बिजली घर के साथ सड़क किनारे अंग्रेजों के जमाने का खासमखास नल आज भी मौजूद है। शायद डिजाइन के लिहाज से, दिल्ली में यह अपनी किस्म का इकलौता नल होगा। देखने में लोहे का लगता है, मगर लोहे की बजाय गिल्ट या अन्य धातुओं मंे मिश्रण से, बनाया गया है। क्योंकि लोहे का होता, तो 100 सालों से ज्यादा वक्त पानी के सम्पर्क में रह-रह कर, जंग की चपेट में टूट या भुर चुका होता।
खासियत देखिए-किसी धातु का धारीदार खोखला सिलेंडरनुमा आकार का है और बीचोंबीच बब्बर शेर के मुंह की आकृति उभरी है। कभी शेर के मुंह से पानी की धार निकलती होगी। जबकि आज उसके ऐन तले सूराख कर, अलग से टूटी फिट कर दी गई है। अंदाजा है कि यह कम से कम 100 साल पुराना है।
● चावड़ी बाजार में ट्राम का खम्बा
कहना मुश्किल है कि दिल्ली में ट्राम फिर चलेगी या नहीं? लेकिन आजादी से पहले और बाद साठ के दशक तक दिल्ली की सड़कों पर ट्राम दौड़ती रही है। जग जाहिर है कि मार्च 1908 से 1963 तक ट्राम दिल्ली की सड़कों पर 15 किलोमीटर सफर तय करती थी। एक रूट था- जामा मस्जिद, चांदनी चैक, चावड़ी बाजार, कटरा बदियान, लाल कुंआ और फतेहपुरी। और दूसरा रूट पुरानी सब्जी मंडी, सदर बाजार, पहाड़गंज, अजमेरी गेट, बाड़ा हिन्दू राव और तीस हजारी तक का चक्कर लगता था।
ट्राम जाने के करीब 55 साल बाद दिल्ली के किसी रूट पर ट्राम की पटरियां दिखाई नहीं देतीं। लेकिन इकलौती निशानी चावड़ी बाजार में देख सकते हैं। क्या? ट्राम का पिलर या खम्बा! बिजली की तारों के गुच्छों के बीच एक अकेला-सा अलग-सा खड़ा ऊंचा खम्बा दिखाई देता है। यही पिलर दिल्ली की ट्राम की आखिरी बची निशानी है। उल्लेखनीय है कि ट्राम को ऊपर से विद्युत तारों के सहारे करेंट मिलता था और नीचे पटरी पर दौड़ती थी। ‘गो इन द सिटी’ के प्रिंसिपल एक्सप्लोरर गौरव शर्मा अपनी हर चावड़ी बाजार वाॅक के दौरान, मेट्रो स्टेशन की तरफ शुरू में ही, ट्राम का भूला-बिसरा खम्बा जरूर दिखाते हैं। और नजदीक ही ट्राम को विद्युत सप्लाई करने वाला बक्सा भी दिखाते हैं।
● फिरंगी दिल्ली का पहला सीवर
आजादी तक लोथियान कब्रिस्तान के सामने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की दीवार से इधर ‘फिरंगी दिल्ली’ कहलाती थी। सन् 1911 में हिन्दुस्तान की राजधानी कोलकाता से दिल्ली श्फ्टि होने से 100 साल पहले से कश्मीरी गेट की शानोशौकत पूरे शबाब पर थी। सिविल लाइंस को रिहायशी और कश्मीरी गेट को कमर्शिल पहचान मिली । कश्मीर गेट के नाम का रिश्ता बेशक मुगल बादशाह शाहजहां के जमाने से है, लेकिन अंग्रेजों ने इसे अपने ढंग से सजाया-संवारा। कश्मीरी दरवाजे का निर्माण प्राचीर युक्त शहर शाहजहानाबाद के एक प्रवेश द्वार के रूप में हुआ था, जब 1638 में शाहजहां अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली लाए थे।
कम ही दिल्लीवाले जानते होंगे कि इसी कश्मीरी दरवाजे के नीचे बहता है दिल्ली का पहला अंडरग्राउंड सीवर। कश्मीरी गेट की ज्यादातर हेरिटेज वाॅक्स में दिल्ली के पहले अंडरग्राउंड सीवर से जरूर रू-ब-रू करवाया जाता है। अंग्रेजों के जमाने से 1970 के दशक तक दरवाजे के नीचे से आने-जाने की सड़कें थीं और उन पर ही बाकायदा सारा टैªफिक दौड़ता था। इसके नीचे अंडरग्राउंड सीवर आर-पार जाता था, जो आज भी मौजूद है।
आजादी के बाद तक प्राचीन दीवार के संग-संग गंदा नाला बहता था। गंदा नाला नाम से पूरे इलाके को भी जाना जाता था। और फिर, कश्मीरी दरवाजा से एक किलोमीटर से कम दूरी पर ही मुगलाकालीन मोरी दरवाजा है। दरवाजा तो अब नहीं है, लेकिन मोरी का मतलब है गंदे पानी के निकास का छेद। मोरी दरवाजा नहीं रहा, मोरी भी बंद हो कर सीवर बन गए, लेकिन इलाका आज भी मोरी गेट ही कहलाता है।
● 1903 का सलाखों का गेट
सलाखों का गेट 1903 का! गेट के दोनों पल्लों पर बाकायदा साल दर्ज हैं। देखना है, तो चलिए कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से पैदल दूरी पर, कुदसिया बाग के सामने सिविल लाइंस की श्याम नाथ मार्ग स्थित ओबराय अपार्टमेंट्स में। अंग्रेजों के जमाने में यह स्विस होटल था, जो साठ के दशक के बाद ओबराय अपार्टमेंट्स में तब्दील हो गया। पुराने लोग इसे आज भी स्विस अपार्टमेंट्स के नाम से जानते हैं। भीतर 99 फ्लैट हैं। केन्द्रीय मंत्री विजय गोयल भी काफी अर्सा यहीं रहे हैं। भीतर तो सब कुछ 60 से 70 के दशक का है, लेकिन बाहरी गेट और आसपास के सीमेंटेड खम्भे समेत जालीदार दीवारें अंग्रेजी जमाने की ज्यों की त्यों खड़ी है।
लोहे का गेट काले रंग की सलाखों से बना है और हर सलाख के ऊपरी हिस्से पर सुनहरी रंग का एरो बना है। गेट के दोनों पलों पर बीचोंबीच एक प्लेट जुड़ी है, जिस पर लिखा है-‘कर्जन हाउस 1903’। जाहिर होता है कि गेट 1903 का है। उल्लेखनीय है कि 1903 में लाॅर्ड कर्जन ने दिल्ली दरबार का आयोजन किया था। दो हफ्तों तक जारी भव्य समारोहों में किंग एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी हुई थी। समारोह में आए गणमान्य मेहमानों के ठहरने के लिए ही स्विस होटल का निर्माण हुआ था। तब सिविल लाइंस में ही दो और होटल थे- पहला, सीसेल होटल, जहां आज सेंट जेवियर्स स्कूल है। और दूसरा, मेडेंस होटल, जो आज भी 1903 से हेरिटेज होटल है। दिलचस्प है कि 1970-80 का दशक आते-आते सी.पी. से सटी कर्जन रोड का नाम बदल कर कस्तूरबा गांधी मार्ग रख दिया गया था, लेकिन सिविल लाइंस के इस गेट पर आज भी ’कर्जन हाउस’ दमक रहा है।
गेट के पास पेड़ पौधों का पानी देते सबसे पुराने और बुजुर्ग माली विनोद कुमार ने बताया, ‘मैं 1975 से यहां माली का काम कर रहा हूँ। तब से हूँ, जब होटल अपार्टमेंट में बदल रहा था। आज भी अंग्रेजों के जमाने के गेट को देखने हेरिटेज प्रेमी खिंचे आते हैं।’ और बताया, ‘परिसर में, पहले एक प्राचीन कुआं भी था, जो अब बंद हो चुका है।’
(सान्ध्य टाइम्स में छपे मेरे हेरिटेज कॉलम से)
लेख और चित्र © अमिताभ एस
#vss
No comments:
Post a Comment