पिछले सौ सालों में वैश्विक पूंजीवाद ने अपने संकट के समाधान के लिए तीन अलग-अलग समय पर तीन विभिन्न तरीकों को अपना राजनीतिक हथियार बनाकर वैश्विक पूंजीवाद की गतिशीलता और मुनाफे को बनाए रखा है। लेकिन सामान्य मेहनतकश लोगों के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और त्रासदपूर्ण भी रहे।इन सौ सालों में पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को जितना फायदा हुआ, और व्यवस्था के शीर्ष पर जिस ऊंचाई तक ले पहुंचे वह कल्पनातीत है। आज स्थिति यह है कि दुनिया के पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों में न सिर्फ दुनिया की सरकारें हैं, बल्कि संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का संचालन,निर्देशन , संरक्षण और नियंत्रण भी उनके ही हाथों में है। दूसरी तरफ बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम की जिंदगी उसी अनुपात में दूभर और नारकीय बनती चली गई, और आज वे पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों की कठपुतली बनकर गुलामी की जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
विश्व पूंजीवाद ने अपने संकट के समाधान के लिए सबसे पहले युद्ध और शांति को अपना राजनीतिक हथियार बनाकर उसे विश्व राजनीति के विमर्श का मुख्य विषय बनाया। विश्व पूंजीवाद के समक्ष सबसे पहला और सबसे गहरा संकट आया था बीसवीं सदी के शुरुआत में, जब वैश्विक बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए जर्मनी, इटली और जापान ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का प्रयत्न किया। इनके इन प्रयासों को ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका ने कभी भी समर्थन नहीं किया, और इनमें से जर्मनी और इटली को प्रादेशिक विस्तार के लिए अफ्रीका में और जापान को चीन में जरुर कुछ हिस्सेदारी मिली। पर, उस हिस्सेदारी से तीनों में से कोई भी संतुष्ट नहीं था, और उनकी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का कोई ओर-छोर नहीं था।
वैश्विक पूंजीवाद द्वारा संचालित साम्राज्यवाद की यथास्थितिवाद में सबसे पहले जर्मनी ने परिवर्तन चाहा, और उसका परिणाम था प्रथम विश्व युद्ध, जिसमें जर्मनी की हार हुई, और ब्रिटेन-फ्रांस और अमेरिका विजयी हुए। ब्रिटेन और फ्रांस के साथ इटली और जापान भी थे, जो अपने लिए क्रमशः अफ्रीका और चीन में विशेष और बड़ी हिस्सेदारी चाहते थे, जो उन्हें नहीं मिला, और इसी का परिणाम था हिटलर (जर्मनी ), मुसोलिनी (इटली) और तोजो (जापान) का धुरी राष्ट्रों का संघ जिसने तब के स्थापित साम्राज्यवादी व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी बलपूर्वक बढ़ाने के लिए कृत-संकल्प थे, और जो अंततः द्वितीय विश्व युद्ध का कारण भी बना। इन दोनों विश्व युद्धों में कुल मिलाकर करीब पंद्रह करोड़ लोग मारे गए, अरबों-खरबों डालर की आर्थिक क्षति हुई, कितनी नई-नई बीमारियां पैदा हुईं, और युद्ध और शांति की यह राजनीति भी अंततः पचास साल भी नहीं कायम नहीं रह सकी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सैंकड़ों नए राज्यों के वैश्विक मानचित्र पर उदय होने के बाद और अमेरिका और सोवियत संघ के बीच उन राज्यों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने की कोशिश ने संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति की राजनीति के साथ ही साथ शीतयुद्ध की राजनीति का भी श्रीगणेश किया, जिसने करीब चालीस वर्षों तक विश्व राजनीति को प्रभावित किया।
कुल मिलाकर युद्ध और शांति की राजनीति भी अंततः वैश्विक पूंजीवाद के संकट का स्थायी समाधान करने में विफल रहा, और १९९० के आते-आते वैश्विक पूंजीवाद एक बार फिर गहरे संकट में फंसे गया। इससे निजात पाने के लिए एक तरफ तो निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के साथ ही विश्व व्यापार संगठन और डंकल ड्राफ्ट , तो दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को विश्व राजनीति के विमर्श का मुख्य विषय बनाया गया। वैश्विक पूंजीवाद की इन नीतियों ने वैश्विक स्तर पर विकासशील और अविकसित राज्यों की सरकारों पर दबाव डालकर दुनिया के विकसित राज्यों के हक में इन सिद्धांतों और कार्यक्रमों को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया, ताकि उन राज्यों की पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमाकर विकसित राज्यों की अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सके। इस दूसरे दौर में अमेरिका और यूरोपीय राज्यों की अपेक्षा चीन अपनी अर्थव्यवस्था संभालने और संवारने में ज्यादा सफल हुआ, और आज वह अमेरिका के बाद वैश्विक पूंजीवाद का सबसे बड़ा खिलाड़ी सिद्ध हुआ है।
लेकिन, इस दौर में भी विकसित राज्यों, खासकर अमेरिका और यूरोप को वह सफलता नहीं मिली, जैसा उन्होंने अनुमान लगाया था। फिर भी राजनीतिक स्तर पर पूरी दुनिया की राजनीति में आतंकवाद को केन्द्रीय बिन्दु के रूप में प्रक्षेपित और स्थापित करने में सफल रहा। इस दौर में कम्युनिस्टों और मुसलमानों को प्रताड़ित करने के लिए विशेष रूप से लक्षित किया गया, और यह नीति अफ्रीका और एशिया के राज्यों की राजनीति का केन्द्र बिन्दु ही नहीं, आधारस्तम्भ भी बन गया। वैश्विक आतंकवाद को समाप्त करने क्रम में पूरी दुनिया में मुसलमानों और कम्युनिस्टों को लक्षित और लांक्षित किया गया, और उन्हें प्रताड़ित करने के अवसर पैदा किए गए।
इसी के साथ ही लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को भी अप्रासंगिक सिद्ध करने का दुश्चक्र रचा गया, और उन व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों को हर तरीके से दंडित किया गया, जो संविधान, लोकतंत्र, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता और लोक-कल्याणकारी राज्य के सिद्धांतों को लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे थे, या फिर इसके लिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने, संघर्ष करने, हड़ताल करने और जनांदोलन करने के अपने अधिकारों की वकालत कर रहे थे। ऐसे लोगों के साथ ही सरकार का विरोध करने वाले पत्रकारों को भी या तो जेल में डाल दिया गया, या फिर उन्हें मार दिया गया। इस दूसरे दौर में भी जनता के अधिकारों में कटौती की गई। बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम का शोषण और दमन के साथ ही जनजातीय समुदाय के लोगों का विस्थापन का क्रम भी जोर-शोर से जारी रहा। वैश्विक स्तर पर शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था की हिमायती सरकारों के खिलाफ आंदोलनों की संख्या भी कम होती चली गई, और उसी अनुपात में मेहनतकशों के खिलाफ दमनचक्र भी तेज होता गया।
फिर भी बात कुछ बनती नजर नहीं आ रही थी। अनुमान के अनुपात में सफलता नगण्य रही। जनसमस्याओं का समाधान घोषणाओं से संभव नहीं था, और सरकारी घोषणाएं जनता के आक्रोश को दबाने में सफल होती नजर नहीं आ रही थीं। विज्ञान, ज्ञान-विज्ञान, प्रयोग और नये-नये आविष्कारों के बावजूद भी पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को आशातीत सफलता नहीं मिली। सामान्य लोगों के बीच वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ असंतोष और आक्रोश बढ़ता जा रहा था, और सरकारों के पास कोई समाधान था नहीं।
ऐसी ही परिस्थितियों में वैश्विक पटल पर कोरोनावायरस का आगमन होता है एक वैश्विक महामारी के रूप में, जो लाइलाज था, और जिसके इलाज के लिए दुनिया के डाक्टर और अस्पताल तैयार भी नहीं थे। ऐसी ही स्थिति में दुनिया के विकसित राज्यों के अरबपतियों-खरबपतियों , विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया की बड़ी फार्मा कंपनियों ने आपस में मिलकर एक "नई विश्व व्यवस्था" की स्थापना की चाल चली, जिसमें पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों एवं उच्च वर्ग को छोड़कर बाकी अन्य किसी को भी न तो संवैधानिक अधिकारों की कोई गारंटी होगी, न नौकरी, व्यवसाय या रोजगार की कोई संभावना होगी, और न ही सरकारों पर इसकी कोई जिम्मेदारी होगी कि वह जन-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करे और बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के अधिकारों की गारंटी दे।
सरकार की प्राथमिकता सूची से बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को गायब कर दिया गया। पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा ही प्रस्तुत लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, लोक-कल्याणाकारी राज्य, उदारवाद, विश्व शांति और सुरक्षा, समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना, सामाजिक और धार्मिक सौहार्द और सहिष्णुता और भाईचारे की भावना को फालतू और अप्रासंगिक करार दिया दे दिया गया। एक नए संदर्भ में बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम एवं लघु और सीमांत किसानों के लिए गुलामी की नई दास्तां लिखी जा रही है। मध्यमवर्ग अपनी स्थिति की सुरक्षा से चिंतित और भविष्य में दुखद आशंका की संभावना से इतना डर गया है कि वह चाहकर भी जनांदोलन और जनसंघर्ष के लिए अगुआ बनने को तैयार नहीं है। जीवन की बेहतरी के लिए आवश्यक सारी सुविधाएं उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यम वर्ग के लिए आरक्षित और सुरक्षित की जा रही हैं। गरीब मेहनतकशों के लिए आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया जा रहा है, या यूं ही भूख और रोग से मरने के लिए तैयार किया जा रहा है।
कोरोना का लहर के रूप में आना और जाना , उसके विषाणुओं का नए-नए रूपों में आने और भविष्य में भी इस क्रम के जारी रहने का संकेत भी दिया जा रहा है। नागरिक के रूप में लोगों की आजादी का आज कोई भी मोल नहीं रह गया है। इंसान की जिंदगी उसकी खुद की न होकर सरकार के हाथों में कैद हो गई है। मनोवैज्ञानिक तौर पर सामान्य लोगों को इतना डरा दिया गया है कि वे घर में कैद होकर रहने के लिए तैयार हो गए हैं। लोगों का खाना-पीना, उठना-बैठना, घूमना-फिरना, बातचीत करना, हंसना-मुस्कुराना, रोना-गाना, मनोरंजन, खेलकूद, शिक्षा और स्वास्थ्य सब कुछ सरकार के इशारों से तय होगा। जनता की न कोई मांग होगी, न वे सरकार के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं, न विरोध कर सकते हैं, न हड़ताल कर सकते हैं और न ही कोई आंदोलन या जनसंघर्ष ही कर सकते हैं। हमारे जीवन के पल-पल की जानकारी सरकार के अधीन होगी। हमें कहीं भी बिना किसी कारण के भी मारा जा सकता है।
पूरी दुनिया पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों में सौंप देने की तैयारी हो रही है। कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होगा, न नौकरी या रोजगार की गारंटी होगी, न अधिकार की, न ही किसी सुविधा की और न ही भावी पीढ़ी के सुखमय जीवन के लिए कोई व्यवस्था ही होगी। संक्षेप में, दुनिया की पूरी आबादी को दुनिया के मुट्ठीभर पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों सौंप देने की तैयारी है, और अब सरकारें भी जनता के वोट से नहीं , पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों की राय से बनाई जाएंगी। वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था अपनी असफलता का ठिकरा बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम पर फोड़ना चाहता है, और इसकी सजा भी उसे देने की तैयारी है। हम अब मनुष्य से नीचे कीट-पतंगों की श्रेणी में शामिल किए जाएंगे, और हमारे साथ उन्हीं की तरह व्यवहार भी किया जाएगा। भविष्य अभी अंदर में है। बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के भीतर-भीतर गुस्सा सुलग रहा है, एक कश्मकश चल रही है और उनका सामुहिक आक्रोश क्या स्वरूप लेगा, यह कहना अभी जल्दबाजी और कठिन है। फिर भी, जिन मेहनतकशों ने धरती पर मानव सभ्यता का निर्माण और विकास किया, वह इतनी जल्दी हार मान लेगा, यह संभव नहीं है। जीने के लिए मनुष्य अपनी शक्ति के अंतिम दम तक लड़ता है। विश्वास है वह हार नहीं मानेगा, बल्कि अपनी जीत का नया इतिहास रचेगा।
राम अयोध्या सिंह
© Ram Ayodhya Singh
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