बचपन के एक मित्र और उसकी पत्नी से आज फ़ोन पर बात हुई. दोनों महाराष्ट्रियन ब्राह्मण हैं और विदेश रहते हैं. मित्र की पत्नी ने एक क़िस्सा सुनाया जो उन्हीं की आवाज़ में यहाँ दोहरा रहा हूँ —
मेरा जन्म एक संघी परिवार में हुआ. पिताजी खाँटी संघी थे. उनके कमरे में हेडगेवार और सावरकर की फ़ोटो टंगी थी. पिताजी बहुत कुशल मूर्तिकार थे. बड़ी बड़ी मूर्तियाँ बनाते थे. एक बार पिताजी ने सावरकर की मूर्ति बनानी शुरू की. मैंने देखा तो मुझसे रहा नहीं गया. मैंने उनसे कहा: “मैंने आजतक आपको किसी बात पर नहीं रोका. लेकिन मैं आपको ये मूर्ति नहीं बनाने दूँगी.”
पिताजी अचरज में आ गए. बोले, “क्यों?” मैंने कहा, क्योंकि सावरकर सही नहीं थे. उनका रास्ता ग़लत था. वो हीरो हो ही नहीं सकते. पिताजी इलाहाबाद के रहने वाले थे और इतिहास में एमए पास थे. अड़ियल थे और बहस भी करते थे. बोले, मैं नहीं मानता, साबित करो.
मैं उस समय उन्नीस साल की थी और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी. बचपन से ही मैं डिबेटर थी और हर साल हर प्रतियोगिता में फ़र्स्ट आती थी. मैंने रात भर बैठ कर सावरकर पर किताबें पढ़ डालीं. उस समय इंटरनेट भी नहीं था. फिर भी मैंने कई आलेख पढ़ लिए.
अगले दिन पिताजी और मेरा डिबेट हुआ. मैंने उनसे कहा, “उन्नीस सौ उन्नीस से लेकर उन्नीस सौ छियासठ में जब तक वो मर नहीं गए आप एक काम बता दीजिए सावरकर का जो ये साबित करता हो कि वो वीर थे.” तमाम और बातों के साथ मैंने कहा, “जो आदमी गाँधीजी की हत्या में लिप्त था वो महान कैसे हो सकता है?”
पिताजी निरुत्तर रहे.
आज भी हमारे घर में पिताजी की बनाई हुई सौ से अधिक मूर्तियाँ हैं. सावरकर की मूर्ति अकेली है जो अधूरी है. उस रोज़ बहस के बाद पिताजी ने उसे दोबारा हाथ नहीं लगाया.
( साभार अजित साही )
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