एक उच्छृंखल बालक की एक और शरारत के बाद उसके पिता ने उसको गोदाम में एक मोटी लकड़ी से बाँध दिया। थोड़ी देर बाद जब पिता लौटे तो देखा कि वह पीठ पर भारी लकड़ी लादे, रस्सियों से बँधा, खेल के मैदान में पहुँच चुका है। पेरियार के जीवन की यह किंवदंती उनके जीवन का सारांश है।
पेरियार और अंबेडकर एक जैसे लक्ष्य के बावजूद दो विपरीत व्यक्तित्व थे। जहाँ अंबेडकर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े पढ़ाकू में रहे, पेरियार ने स्कूल शिक्षा भी पूरी नहीं की। अंबेडकर के तर्क ठोक-बजा कर, संदर्भ सहित सामने रखे जाते थे। पेरियार के तर्क स्वत:-स्फूर्त होते, जिनमें कई कुतर्क भी होते। अंबेडकर का उठना-बैठना अभिजात्य वर्ग और यूरोपियों के साथ था, जबकि पेरियार काफ़ी हद तक ज़मीनी नेता थे। ये उन दोनों की वेश-भूषा में भी नज़र आता। एक सूट-बूट में, दूजे धोती-कुर्ते में। अंबेडकर का लेखन पूरे भारत में बिना काट-छाँट के पढ़ा-पढ़ाया जाता है, क्योंकि उनमें मीमांसा है। पेरियार के कई तमिल भाषण हिंदी या अंग्रेज़ी अनुवाद हुए ही नहीं, क्योंकि वह बहुत ही अधिक कड़वी और घृणा-अपशब्दों से भरी गोली थी।
लेकिन, अगर हम राजनीतिक निष्कर्ष देखें, तो पेरियार की विरासत तमिलनाडु की राजनीति में कुंडली मार कर बैठी है। जबकि अंबेडकर की समृद्ध वैचारिक धारा के बावजूद राजनीतिक विरासत महाराष्ट्र या किसी अन्य प्रदेश में बहुत अधिक नहीं टिक पायी। इसे उलट कर यूँ भी लिखा जाता है कि अंबेडकर को थोड़ा बहुत हर प्रदेश के हर दल ने अपनाया, जबकि पेरियार तमिलनाडु तक ही सिमट कर रह गए।
इस टीप के साथ यह चेतावनी पुन: दूँगा कि इसके आगे जो लिखा जाएगा, वह हिंदी भाषी, पारंपरिक समाज, और उत्तर भारतीय, तीनों के लिए निगलना कठिन हो सकता है। मैं चूँकि इन तीनों से जुड़ा हूँ, तो मैंने पेरियार को पढ़ने के लिए मन के कई स्विच ऑफ़ कर दिए, फिर भी एक-दो फ्यूज़ उड़ गए।
पेरियार बचपन से ही ब्राह्मणों की धोती खोल कर उपहास करने वाले शरारती बालक थे। यहाँ धोती खोलने का अर्थ है उनके कर्मकांडों पर तीखी घृणा से भरी टिप्पणी करना। बात-बात पर सवाल करना। जैसे अपने पिता द्वारा मना करने के बावजूद दलित कुएँ से ही पानी पीना। यह ज़ंजीर से बाँधे जाने वाला कांड भी तभी हुआ था, जब वह जान-बूझ कर निम्न चेत्तियार जाति के घर में भोजन करने चले गए थे। समकालीन कथाकार नीलोत्पल मृणाल की पुस्तक ‘औघड़’ के बिरंची चरित्र में कुछ-कुछ पेरियार की छाप दिखती है।
एक क़िस्सा जो उनकी जीवनी में बहुधा वर्णित है, वह उनकी घर से भाग कर काशी यात्रा की है। वह अपने दो ब्राह्मण मित्रों गणपति और वेंकटरामन के साथ निकले, और पूरे रास्ते उनसे शास्त्रों पर तर्क-कुतर्क करते रहे। यह इतना लोकप्रिय हो गया कि इन तीनों की मंडली को विवाहों में प्रस्तुति करने के लिए बुलाया जाने लगा। गणपति अगर रामायण कथा कहते, तो पेरियार उस पर शरारती चुटीले प्रश्न करते, दर्शक उन ब्राह्मणों से हल माँगते। हल मिले न मिले, यह मनोरंजन का माध्यम बन गया।
इस यात्रा का अंत जब काशी में हुआ, तो पेरियार की यह शरारत गंभीरता में बदल गयी। वह एक आश्रम में ब्राह्मण भेष में रहने लगे। आश्रम के नियमों के तहत सुबह गंगा स्नान, मंदिर की सफाई आदि करते रहे। धीरे-धीरे वह मंदिरों में, घाट पर, श्मशान में, त्यौहारों में ब्राह्मणों के धन-व्यवहार से चिढ़ने लगे। उनके ब्राह्मण नहीं होने का पता लगने पर उन्हें आश्रम से निकाल दिया गया। जब वहीं मंदिर के बाहर भिक्षुकों की कतार में सम्मिलित हुए, तो उन्हें यह लगा कि ये ब्राह्मण इनके लिए क्या करते हैं? एक मृत व्यक्ति के क्रिया-कर्म के लिए इतनी माँगे क्यों रखते हैं? लोगों में भय पैदा कर उसके निवारण के नाम पर क्यों लूटते हैं?
वहाँ से लौट कर पेरियार अपने पिता का व्यवसाय संभालते हुए, ईरोड नगर निगम में शामिल हुए। विडंबना यह कि उनको ईरोड के देवस्थानम (मंदिर) का अध्यक्ष बना दिया गया। उस समय पेरियार ने नास्तिक होने के बावजूद यह कार्य मनोयोग से किया, और उन्होंने मंदिर में दान के लिए हुंडी की व्यवस्था की। उनका मानना था कि ब्राह्मण के हाथ में धन के बजाय दानपेटी में जमा की जाए, और कुल चंदे से पुरोहितों आदि को वेतन मिले। ईरोड के उस मंदिर को पैंतालीस हज़ार रुपए का लाभ हुआ। यह हुंडी मात्र में दान की प्रथा आज भी कमो-बेश दक्षिण भारत के मंदिरों में दिख सकती है। इन्हीं कार्यों के आधार पर पेरियार को बाद में निगम का अध्यक्ष चुन लिया गया।
जब पेरियार ईरोड में धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, उन्हीं दिनों 1916 में एक विदेश से लौटे बैरिस्टर और उनकी पत्नी मद्रास आ रहे थे। कांग्रेस के कुछ नेता और स्थानीय विद्यार्थी फर्स्ट-क्लास बॉगी के सामने उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन, वह दरवाजे पर दिखे ही नहीं। लोगों ने अंदर जाँचा, तो वहाँ भी नहीं मिले।
तभी उन्होंने देखा कि दूर थर्ड-क्लास बॉगी से काठियावाड़ी कुर्ता और धोती में एक व्यक्ति सर पर पगड़ी पहने चले आ रहे हैं।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/12/10_31.html
#vss
No comments:
Post a Comment