Friday, 31 December 2021

अशोक पांडे - मोहम्मद सनाउल्लाह डार मीराजी.

एक मैला-कुचैला रांझा था. नाम मोहम्मद सनाउल्लाह डार. दुबली काया, लम्बे झूलते अधपके बाल, कानों में कुंडल, गले में रंगबिरंगे मनकों की मालाएं, तीखी मूंछें, कंधे पर थैला जिसके भीतर शायरी और अफ़साने लिखे कागजों का बण्डल और किसी तरह जुगाड़ी गई शराब की बोतल. हद दर्जे का गंदा, नाखूनों में अटका महीनों का मैल, आख़िरी बार कब नहाया था याद नहीं.

वह जेब में हमेशा तीन गोल पत्थर रखता था और उन पर सिगरेट की डब्बियों से निकली चमकीली पन्नियाँ इस सलीके से चिपकाए रखता कि वे चांदी के नज़र आते. कभी उन गोलों को आदम, हव्वा और उनकी औलाद यानी खुद बताता कभी मोहब्बत की नींव में लगने वाले तीन भारी पत्थर - हुस्न, इश्क़ और मौत. 

और कैसी अजब तो उसकी मोहब्बत, उसकी हीर! लाहौर के कॉलेज में पढ़ने वाली एक सादा-चेहरा बंगालन मीरा सेन जिसके वस्ल की चाहत में उसने अपनी जिन्दगी का भुरकस निकाल लिया. जब उसके हासिल होने की आस न रही उसने उसी महबूब के नाम पर अपना नाम रख लिया – मीराजी.

ज़माना हर अच्छी-बुरी चीज के किस्से माँगता है. उसे दूसरों की तबाही के किस्से सुनने का ख़ास शौक है. मीराजी उर्दू शायरी की तारीख में एक ऐसा ही मशहूर तबाह किस्सा है जिसकी सोहबत मंटो से भी रही, राजा मेहदी अली खान और अख्तर उल ईमान से भी. मंटो से लेकर एजाज़ अहमद तक जाने कितनों ने मीराजी का किस्सा लिखा और उसकी आवारगी , शराबनोशी, गन्दगी और सेक्स को लेकर उसके ऑब्सेशन का कल्ट बना दिया.

असल बात यह है कि मोहम्मद सनाउल्लाह डार उर्फ़ मीराजी अपने समय से आगे का एक जीनियस था जिसने उर्दू कविता में मॉडर्निज़्म की शुरुआत की. 1930 की दहाई में जब उर्दू लिटरेचर में एक नया आन्दोलन शुरू हो रहा था, तीन लोग उसका परचम उठाए आगे-आगे चल रहे थे – नून मीम राशिद, फैज़ अहमद फैज़ और मीराजी.   

उसने भाषा और विषयवस्तु की हर स्थापित तहजीब को नकारा. दुनिया भर का साहित्य पढ़ा. लाहौर की पंजाब मेमोरियल लाइब्रेरी का लाइब्रेरियन बताता था कि किताबें पढ़ने का उसके भीतर ऐसा जुनून था कि वह लाइब्रेरी खुलने से पहले पहुँच गेट खुलने का इन्तजार करता मिलता और उसके बंद हो जाने पर बाहर निकलने वाला आख़िरी होता. उसने खूब पढ़ा और पढ़कर जो हासिल किया उसे अपने लेखों के जरिये संसार में बांटा जिनमें वह पूरब और पच्छिम के शायरों से उर्दू संसार का परिचय कराया करता. ये आर्टिकल ‘मशरिक और मगरिब के नगमे’ के नाम से किताब की सूरत में छपे जिसके भीतर फ़्रांस के बौदलेयर और मालार्मे, रूस के पुश्किन, चीन के ली पो, इंग्लैण्ड के डी. एच. लॉरेंस और कैथरीन मैन्सफील्ड, अमेरिका के वॉल्ट व्हिटमैन और एडगर एलन पो और प्राचीन भारत के चंडीदास और विद्यापति जैसे नाम नमूदार होते है. मीराजी ने इन सबकी चुनी कविताओं का दिलकश अनुवाद भी किया. मिसाल के तौर पर उसके यहां विद्यापति की राधा उर्दू में अपने आप से यूं मुखातिब होती है:

कब तक इस दिल में उदासी ही रहेगी, कब तलक!
और मेरी रूह बारे-गम सहेगी, कब तलक!
माह से किस रोज़ नीलोफर मिलेगा, आह कब?
फूल भौंरे के मिलन से कब हिलेगा, आह कब?
गुफ्तगू करने को प्रेमी मुझसे किस दिन आएगा
और मिरे सीने को छूकर एक लज्ज़त पाएगा?
थाम कर हाथों को मेरे, चाह के आगोश में
कब बिठाएगा मुझे वो आरजू के जोश में!
हां उसी दिन, हां उसी दिन, सारे दुःख मिट जाएंगे
जब मुरारी मेरे बन कर घर हमारे आएँगे.  
 
मोहब्बत में मिली असफलता ने उसकी शायरी को आत्मा अता फरमाई. उसकी ग़ज़लों और नज्मों से जो शायर उभर कर आता है वह कभी घनघोर रूमान में तपा हुआ क्लासिकल प्रेमी है तो कभी आदमी-औरत के जिस्मानी रिश्ते की बखिया उधेड़ता कोई उस्ताद मनोवैज्ञानिक. उसके यहां अजन्ता की गुफाओं से लेकर धोबीघाट और मंदिर की देवदासियों से लेकर दफ्तरों में जिन्दगी घिसने वाले अदने क्लर्कों की आश्चर्यजनक आवाजाही चलती रहती है. मीराजी का कुल काम दो हजार से अधिक पन्नों में बिखरा पड़ा है. वह भी तब जब उसने ऐसी अराजक जिन्दगी जी कि कुल सैंतीस की उम्र में तमाम हो गया.  

तीस-पैंतीस बरस पहले गुलाम अली ने ‘हसीन लम्हे’ टाइटल से गजलों का एक यादगार अल्बम निकाला. उसमे उन्होंने मीराजी को भी गाया:

नगरी नगरी फिरा मुसाफिर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा, क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया

मीराजी के पुरखों का घर कश्मीर में था जहां से वे कुछ पीढ़ी पहले गुजरांवाला आ बसे थे. पिता मुंशी महताबुद्दीन रेलवे में ठेकेदारी करते थे जिनकी दूसरी बीवी सरदार बेगम से मीराजी हुए थे – लाहौर में 25 मई 1912 को. लाहौर से गुजरात, गुजरात से बम्बई, बम्बई से पूना और फिर वापस बम्बई जहाँ 3 नवम्बर 1949 को आख़िरी सांस – मोटामोटी इन जगहों पर मैट्रिक फेल मीराजी की मुख़्तसर जिन्दगी बनी-बिगड़ी. 

सैंतीस साल के इस अंतराल में एक बचपन था, क्रूर बाप के अत्याचारों की दबाई एक माँ थी, स्कूल के संगी थे, पहली मोहब्बत थी, रोजगार की तलाश थी, किताबें थीं, अपनी बेचैन रूह और उससे जनम लेने वाली शायरी थी. इसी अंतराल में मंटो ने होना था जो जब तक संभव हुआ उसकी रोज की दारू की खुराक के लिए हर रोज साढ़े सात रुपये अलग से जुगाड़ रखता, अख्तर उल ईमान ने होना था जिसने उसे उसकी गन्दगी और बास के बावजूद किसी सगे की तरह अपने घर में पनाह दी. इसी अंतराल में खुद मीराजी ने भी होना था, शायरी ने होना था, तसव्वुर के वीरान फैलाव ने होना था और सारी दुनिया की आवारागर्दियों ने होना था.

हमें दो मीराजी मिलते हैं – एक जो शायर है और उर्दू अदब में एक मॉडर्न आइकन का दर्जा रखता है; दूसरा वह जिसके बारे में शुरू में बताया गया – खुद को तबाह कर देने पर आमादा कभी न नहाने वाला नाकारा, बड़बोला शराबी. जहान भर के संस्मरण उसके इस दूसरे रूप का मजा लेते पाए जाते हैं. वही उसकी इमेज भी बनाई गई. सआदत हसन मंटो तक अपने संस्मरण ‘तीन गोले’ में ऐसा करने के लालच से न बच सके.     
 
एक नज्म मशहूर है – ‘तफ़ावुते-राह’ यानी रास्तों का अलग हो जाना. गाँव से आया एक नौजवान शहर में किसी रईस के घर माली का काम करने लगता है. उसे रईस की बेटी से मुहब्बत हो जाती है. इस वजह से नौकरी से निकाला जाता है. वापस गाँव लौट कर वह अपनी प्रेमिका के बारे में ही सोचता रहता है. पूरी नज्म उसकी कल्पनाओं से बुनी हुई है, जिनमें आधी रोशनी है आधा अन्धेरा:

"रास्ता मिलता नहीं मुझको, सितारे तो नजर आते हैं
पैराहन रंगे-गुले-ताज़ा से याद आता है
और ज़रकार नुक़ूश 
इक नई सुब्हे-हकीक़त का पता देते हैं."

फिर इस नई “सुब्हे-हकीक़त” में लड़की की शादी की ढोलक-शहनाई सुनाई देती है, उसका होने वाला पति दिखाई देता है जिसकी बहन उससे कह रही है –

“मेरे भैया को बड़ा चाव है – क्यों पूछता है!
अब तो दो-चार ही दिन में वो तिरे घर होगी!”

यहां तक आते-आते गाँव से आए उस भोले लड़के के भीतर दुनिया के आरपार झांक सकने वाले सूफी संत की समझदारी आ गयी है. सारी चीजों को एक झटके में सामने से हटाता हुआ वह किसी दरवेश की तरह नज्म के आखीर में कहता है –

“किसका घर, किसकी दुल्हन, किसकी बहन – कौन कहे!
मैं कहे देता हूँ, मैं कहता हूँ, मैं जानता हूँ!”

यही मीराजी है.

© अशोक पांडेय

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