कांग्रेस बन तो गयी, अधिवेशन भी होने लगे, लेकिन करना क्या है, यह स्पष्ट नहीं था। भारतीयों के लिए चुनाव-व्यवस्था तो थी नहीं। दूसरी बात यह थी कि यह ब्रिटिश राज के साथ मिल कर काम करना चाहते थे। पारसी और ब्राह्मण नेता, दोनों का कंफर्ट ज़ोन यही था, क्योंकि ये लोग जमीनी आंदोलनकारी नहीं थे। यह तो उनका एक पार्ट-टाइम काम था कि वकालत आदि के साथ कुछ राजनैतिक चर्चा भी हो जाएगी। उनमें कुछ नेता अंग्रेज़ों से वेतन भी पाते थे, अथवा उनसे संबंध थे, तो यूँ विरोध संभव नहीं था।
लेकिन, बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंदमठ (1882) के बाद से ही कुछ राष्ट्रवादी माहौल बनने लगा था। ‘भारतमाता’ का कंसेप्ट उभर रहा था, जिसमें दयानंद सरस्वती और विवेकानंद जैसे विचारकों का भी प्रभाव था। 1893 में बाल गंगाधर तिलक ने पूना में गणपति महोत्सव आयोजित कर दिया, जिसमें ‘गणपति बप्पा मौर्या’ के साथ ब्रिटिश-विरोधी नारे भी लगने लगे। उसी वर्ष अरविंद घोष भी अपनी आवाज़ बुलंद करने लगे। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं को अंग्रेज़ों से भीख मांगने वाला कहा जाने लगा। पंजाब के लाला लाजपत राय ने कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होने से इंकार कर दिया।
तमिल ब्राह्मण भी तीन फांकों में बँट गए। मयलापुर के ब्राह्मण अंग्रेज़ों के समर्थक थे। एगमोर के ब्राह्मण कुछ संवाद स्थापित करना चाहते थे। उनका नेतृत्व ‘द हिंदू’ अखबार के संपादक कस्तूरी रंगा आयंगार कर रहे थे। वहीं सेलम के ब्राह्मण घोर राष्ट्रवादी बनते जा रहे थे, और वे ‘वंदे मातरम’ का गान कर रहे थे। इनका नेतृत्व सी. राजागोपालाचारी (राजाजी) कर रहे थे।
1905 में जब बंगाल विभाजन हुआ, तो साथ ही साथ 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस भी विभाजित हो गयी। लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, और बाल गंगाधर तिलक (लाल-बाल-पाल) कहलाए ‘गरम दल’। जबकि दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले और रासबिहारी घोष जैसे कहलाए ‘नरम दल’।
इस मध्य 1906 में मार्ले-मिंटो सुधार के तहत पहली बार ब्रिटिश राज में भारतीय प्रतिनिधियों के लिए चुनाव हुए। हालाँकि यह आम चुनाव नहीं थे, और इन्हें निगम आदि के प्रतिष्ठित समूहों द्वारा ही चुना जाता। चूँकि वहाँ भी ब्राह्मणों का ही दबदबा था, तो मद्रास प्रेसिडेंसी से ब्राह्मण ही चुने जाते रहे।
1916 में तमिलनाडु के ग़ैर-ब्राह्मण समुदाय के कद्दावर नेता टी.एम. नायर और त्यागराज चेट्टी मद्रास के गवर्नर से मिलने पहुँचे।
उन्होंने कहा, “सर! काउंसिल में हमारे समुदायों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं। उस पर ब्राह्मणों ने कब्जा जमा रखा है, जबकि जनता हमारे साथ है।”
“क्योंकि आप चुनाव में जीत नहीं रहे”
“चुनाव-प्रक्रिया तो आपको मालूम ही है। जब अधिकांश मजिस्ट्रेट ब्राह्मण ही हैं, तो चुना कौन जाएगा?”
“फिर तो आपके समुदाय को ऊँचे पदों तक पहले पहुँचना होगा”
“आपने मुसलमानों को 1909 से अलग प्रतिनिधित्व देना शुरू किया है, तो हमारी भी जातिगत प्रतिनिधि दें”
“इस तरह संभव नहीं। हिंदू नेता ही नहीं मानेंगे। कांग्रेस चाहे तो अन्य जाति के नेता जोड़ सकती है”
“कांग्रेस कुछ नहीं करेगी। हमें ही करना होगा। हमने अपना दल बनाया है साउथ इंडियन लिबरेशन फेडरेशन। हम ‘जस्टिस’ नाम से अखबार भी निकाल रहे हैं।”
“यह तो और भी अच्छा है। वैसे आपको एक अंदर की खबर बता रहा हूँ। चुनाव प्रक्रिया बदलने वाली है। संभव है कि जल्द ही आम चुनाव हों।”
“अगर ऐसा हुआ तो हमें ये ब्राह्मण नहीं हरा सकते”
जब कांग्रेस को यह खबर मिली कि उन्हें ब्राह्मणवादी दल का तमगा मिल रहा है, तो उन्होंने एक ग़ैर-ब्राह्मण चेहरा ढूँढना शुरू किया।
उनके नेता केशव पिल्लई ने कहा, “एक आदमी है ईरोड निगम में। थोड़ा सनकी है। ब्राह्मणों से नफ़रत करता है। ऐसे माहौल में हमारे लिए वह उपयुक्त रहेगा।”
“क्या नाम है?”
“रामास्वामी नायकर। उम्र लगभग पैंतीस वर्ष। अभी से पेरियार (श्रेष्ठ) कहलाने लगा है”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (9)
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