14 अप्रैल, देशव्यापी लॉक डाउन के इक्कीस दिनों की बंदी का अंतिम दिन होता अगर यह लॉक डाउन 30 अप्रैल तक नहीं बढ़ा दिया गया होता तो। लेकिन सरकार ने इस लॉक डाउन की अवधि को 30 अप्रैल तक और बढ़ा दिया है। हालांकि सरकार ने आज से चरणबद्ध तरीके से कुछ कार्यालय और प्रतिष्ठान खोलने की बात की है और कुछ दिशा निर्देश भी दिए हैं।
दुनिया भर की राजनीति, अर्थिकी, सामाजिकी और मनोवैज्ञानिक पटल पर यह वायरस आपदा अपना महत्वपूर्ण प्रभाव डालने जा रही है। डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ इसके उपचार में, तो चिकित्सा वैज्ञानिक इसकी वैक्सीन खोजने में लगे हैं तो अर्थ विशेषज्ञ कोरोनोत्तर विश्व मे संभावित अर्थ व्यवस्था, समाज वैज्ञानिक इसका सामाजिक संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और मनोवैज्ञानिक इस थोपे गए एकांत, से जुड़ी समस्याओं पर शोध कर रहे हैं। हाल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा वायरस या महामारी हो जिसने विश्व को इतना अधिक प्रभावित किया है जितना कोरोना कर रहा है।
1918 में फैले प्लेग ने देश मे कहर तो ढाया था, पर संचार और परिवहन के अभाव में उसका प्रभाव उतना व्यापक नहीं हो सका जितना कि इस समय कोरोना का है। नवंबर दिसंबर के समय जब वुहान से वायरस से पीड़ित लोगों और उनके जबर्दस्ती घरों में बंद कर देने वाली खबरें आने लगी थीं तो लगा था यह केवल अभक्ष्य चीजे खाने वाले चीनियों की समस्या है और यह उस पीली भूमि तक ही सीमित रहेगी। पर यह तो पुराना रेशम मार्ग और अब बनने वाले ओबीओआर द्वारा इटली, स्पेन, जर्मनी और पूरे यूरोप को संक्रमित करता हुआ ब्रिटेन और अमेरिका तक पहुंच गया। फ़िर वहां से भारत आया। शुरू में इसे एक जैविक युद्ध और मनुष्य निर्मित त्रासदी कहा गया बाद में पता लगा कि यह एक प्रकृति प्रदत्त घातक वायरस है जो फ्लू के लक्षणों से मिलता जुलता है और श्वसन तत्र को संक्रमित कर के मार देता है। नया वायरस है तो इसका कोई वैक्सीन ही नहीं है। हालांकि विषाणु वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे हैं, पर अभी तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है।
जब रोग का उपचार स्पष्ट और अचूक नहीं होता है तब उसके निरोधात्मक उपायों पर ही जोर दिया जाता है। भारतीय आयुर्विज्ञान के निदान का आधार उपचारात्मक कम और निरोधात्मक अधिक है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये भी कई औषधियां हैं और लोग उसका उपयोग कर भी रहे हैं। कोई भी महामारी बराबर नहीं रहती है और बचेगी यह भी नहीं। आगे चल कर कोई न कोई वैक्सीन विकसित हो जाएगी या कोई विशिष्ट प्रकार की सामुदायिक रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाएगी जिससे समाज इस रोग से कम ही प्रभावित होगा। लेकिन इसका असर विश्व आर्थिकी पर जो पड़ेगा उसे लेकर दुनियाभर में सरकारे कुछ न कुछ सोच रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था आईएमएफ ने एक टास्क फोर्स का गठन किया है। इस टास्क फोर्स का उद्देश्य है कि बिगड़ती हुयी अर्थ व्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए। इस टास्क फोर्स में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी हैं। रघुनाथ राजन पहले भी आईएमएफ के साथ रह चुके हैं औऱ वे एक काबिल अर्थ विशेषज्ञ है। यह अलग बात है कि, सरकार से मतभेद के चलते उनको आरबीआई में दुबारा कार्यकाल नहीं मिला। भारत को भी चाहिए कि आर्थिकी को संभालने के लिये भारत मे भी प्रतिभाशाली अर्थशास्त्रियों की एक कमेटी का गठन किया जाय जिसमें प्रोफेशनल हों और वे भारतीय चुनौतियों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाये ।
संयुक्त राष्ट्र की कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवेलपमेंट ( अंकटाड ) ने ख़बर दी है कि कोरोना वायरस से प्रभावित दुनिया की 15 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत भी है। चीन में उत्पादन में आई कमी का असर भारत से व्यापार पर भी पड़ा है और इससे भारत की अर्थव्यवस्था को क़रीब 34.8 करोड़ डॉलर तक का नुक़सान उठाना पड़ सकता है। यूरोप के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन यानी ओईसीडी ने भी 2020-21 में भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की गति का पूर्वानुमान 1.1 प्रतिशत घटा दिया है। ओईसीडी ने पहले अनुमान लगाया था कि भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.2 प्रतिशत रहेगी लेकिन अब उसने इसे कम करके 5.1 प्रतिशत कर दिया । यह अनुमान मार्च के तीसरे हफ्ते का है। अब तो यह और भी नीचे आ गया होगा।
आज की ताज़ा स्थिति यह है कि, आवश्यक सेवाओ, के अतिरिक्त सभी काम बंद हैं। सारे कारोबार थम गये है, दुकानें बंद हैं, और सभी प्रकार की आवाजाही बंद है। हमारी अर्थव्यवस्था के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें गिरावट की दर कोरोना प्रकोप के ही समय से नहीं बल्कि 2016 में हुयी नोटबन्दी के समय से ही आने लगी थी। 2016 के इस अनावश्यक निर्णय के बाद भी सरकार ने कोई ऐसा प्रयास नहीं जिससे यह गिरावट थमे या स्थिति सुधरे।पिछले चार साल से अधोगामी होता हुआ जीडीपी का आंकड़ा तो यही बता रहा है। इस प्रकार, पहले से मुश्किलें झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना वायरस का हमला एक बड़ी मुसीबत लेकर आया है।
पिछले साल के ही आर्थिकी सूचकांक को देखें तो ऑटोमोबाइल सेक्टर, रियल स्टेट, लघु उद्योग समेत तमाम असंगठित क्षेत्र में सुस्ती छाई हुई थी। बैंक एनपीए की समस्या से अब तक निपट रहे हैं। हालांकि, सरकार निवेश के ज़रिए, नियमों में राहत और आर्थिक मदद देकर अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने की कोशिश कर रही थी पर बहुत अधिक सफलता सरकार को नहीं मिली है। इस बीच कोरोना वायरस के कारण पैदा हुए हालात ने जैसे अर्थव्यवस्था का चक्का जाम कर दिया है। न तो कहीं उत्पादन है और न मांग, लोग घरों में हैं और कल कारखानों तथा दुकानों पर ताले लगे हुए हैं। यह स्थिति अभी 30 अप्रैल तक तो रहेगी ही।
बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने एक अप्रैल से शुरू हो रहे वित्तीय वर्ष (2020-21) के लिए भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के वृद्धि दर अनुमान को घटाकर 5.2 प्रतिशत कर दिया गया है। ज़ाहिर है इस रेटिंग को घटाने के पीछे कोरोना एक मात्र कारण नहीं होगा बल्कि फरवरी से पहले आर्थिकी के जो कारण होंगे वे भी होंगे। कोरोना के प्रभाव की समीक्षा अभी 30 जून के आर्थिक परिणामो के बाद ही होगी। लेकिन इस लगातार चल रही बंदी से वे इस अनुमान की तुलना में कम ही होंगे। इससे पहले 6.5 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान लगाया था था. यह रेटिंग्स मार्च के आखिरी सप्ताह में जारी की गई है, तब तक लॉक डाउन हो चुका था। साथ ही इससे अगले साल 2021-22 के लिए रेटिंग एजेंसी ने 6.9 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान लगाया है. इससे पहले ये अनुमान 7 प्रतिशत था। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स के आंकड़ो पर यकीन करें तो एशिया-प्रशांत क्षेत्र को कोविड-19 से क़रीब 620 अरब डॉलर का नुकसान हो सकता है।
सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए की है. इससे लोग अपने घरों में रहेंगे, फिजिकल डिस्टेंसिंग बनी रहेगी जिससे वायरस कम से कम फैलेगा। इस लॉकडाउन या देशव्यापी बंदी का असर देश के वित्तीय क्षेत्र पर क्या पड़ेगा इस पर आर्थिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार पूजा मेहरा का आकलन है कि,
"लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ेगा और हमारी अर्थव्यवस्था का 50 प्रतिशत जीडीपी अनौपचारिक क्षेत्र से ही आती है। यह क्षेत्र लॉकडाउन के दौरान काम नहीं कर सकता है। न तो ऐसे में कच्चा माल ख़रीदा जा सकता है और न ही, बनाया हुआ माल बाज़ार में बेचा जा सकता है, तो उनकी कमाई ही बंद ही हो जाएगी, जिसका असर मालिको से लेकर अकुशल श्रमिको तक के आर्थिक स्वास्थ्य पर पड़ेगा।"
आगे वे एक लेख में कहती है,
"हमारे देश में छोटे-छोटे कारखाने और लघु उद्योगों की बहुत बड़ी संख्या है. उन्हें नगदी की समस्या हो जाएगी क्योंकि उनकी कमाई नहीं होगी. ये लोग बैंक के पास भी नहीं जा पाते हैं इसिलए ऊंचे ब्याज़ पर क़र्ज़ ले लेते हैं और फिर क़र्ज़जाल में फंस जाते हैं। "
ज्ञातव्य है कि 2016 के नोटबन्दी के बाद से देश मे नकदी की समस्या बढ़ गयी थी और उस समय जो आर्थिक अधोगति शुरू हुयी उसका सबसे अधिक प्रभाव रियल स्टेट, कंस्ट्रक्शन सेक्टर पर पड़ा जो अनौपचारिक क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता है। इसके अतिरिक्त अनौपचारिक क्षेत्रों में फेरी वाले, विक्रेता, कलाकार, लघु उद्योग और सीमापार व्यापार शामिल हैं। यह सेक्टर सच मे भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है। इसके अतिरिक्त लॉकडाउन के कारण संगठित कंपनियों को नुक़सान पहुंच सकता है। उनकी भी हालत खराब हो सकती है।
लॉक डाउन जन्य बंदी और कोरोना आपदा पर एक शोधपरक लेख लिखने वाले विवेक कौल का कहना है कि,
"लॉकडाउन से लोग घर पर बैठेंगे, इससे कंपनियों में काम नहीं होगा और काम न होने से व्यापार कैसे होगा और अर्थव्यवस्था आगे कैसे बढ़ेगी ? लोग जब घर पर बैठते हैं, टैक्सी बिज़नेस, होटल सेक्टर, रेस्टोरेंट्स, फ़िल्म, मल्टीप्लेक्स सभी प्रभावित होते हैं। जिस सर्विस के लिए लोगों को बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती है उस पर बहुत गहरा असर पड़ेगा। जो घर के इस्तेमाल की चीज़ें हैं जैसे आटा, चावल, गेहूं, सब्ज़ी, दूध-दही वह तो लोग ख़रीदेंगे ही लेकिन लग्ज़री की चीज़ें हैं जैसे टीवी, कार, एसी, इन सब चीज़ों की खपत काफ़ी कम हो जाएगी। इसका एक कारण तो यह भी है कि लोग घर से बाहर ही नहीं जाएंगे इसलिए ये सब नहीं खरीदेंगे। दूसरा यह होगा कि लोगों के मन में नौकरी जाने का बहुत ज़्यादा डर बैठ गया है उसकी वजह से भी लोग पैसा ख़र्च करना कम कर देंगे। सच कहें तो, लॉकडाउन और कोरोना वायरस के इस पूरे दौर में सबसे ज़्यादा असर एविएशन, पर्यटन, होटल सेक्टर पर पड़ने वाला है। "
वास्तविकता यह है कि जो बीमार है सेल्फ़ आइसोलेशन में हैं और जिनका अपना कारोबार या दुकान है वो बीमारी के कारण उसे चला नहीं पाएंगे। जो ख़र्चा बीमारी के ऊपर होगा वह बचत से ही निकाला जाएगा। अगर यह वायरस नियंत्रण में नहीं आया तो यह असर और बढ़ सकता है। विवेक कौल एविएशन सेक्टर के बारे में बताते हैं,
"एविएशन सेक्टर का सीधा-सा हिसाब होता है कि जब विमान उड़ेगा तभी कमाई होगी लेकिन फ़िलहाल अंतरराष्ट्रीय यात्राओं पर रोक लगा दी गई है. घरेलू उड़ानें भी सीमित हो गई हैं. लेकिन, कंपनियों को कर्मचारियों का वेतन देना ही है। भले ही वेतन 50 प्रतिशत कम क्यों न कर दो। हवाई जहाज़ का किराया देना है, उसका रखरखाव भी करना है और क़र्ज़ भी चुकाने हैं.। वहीं, पर्यटन जितना ज़्यादा होता है हॉस्पिटैलिटी का काम भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ता है. लेकिन, अब आगे लोग विदेश जाने में भी डरेंगे. अपने ही देश में खुलकर घूमने की आदत बनने में ही समय लग सकता है. ऐसे में पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र को बहुत बड़ा धक्का पहुंचेगा। "
अब थोड़ी बात बैंकिंग सेक्टर की। 2016 के नोटबन्दी को आर्थिकी में एक घुमाव विंदु के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकार ही बेहतर बता सकती है कि उसके इस मास्टरस्ट्रोक से देश की अर्थव्यवस्था को क्या लाभ पहुंचा और उसे हमे क्या मिला पर एक बात ध्रुव सत्य है कि इस निर्णय से बैंकों की हालत इतनी खराब हो गयी कि पीएमसी और यस बैंक जैसे निजी बैंक डूब गए, एलआईसी में सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचने लगी और कई बैंक मिलाकर एक किये गए तथा इनकी राशि जो एनपीए हुयी वह तो हुयी ही। बैंकिंग सेक्टर पर इसका क्या असर पड़ेगा, इस पर अर्थ विशेषज्ञों के राय की बात करें तो उनके आकलन के अनुसार,
" जो अच्छा बैंक है उसे ज़्यादा समस्या नहीं होनी चाहिए। बैंक का कोराबार यह होता है कि वे, पैसा जमा करते हैं और लोन देते हैं। लेकिन, अभी बहुत ही कम लोग होंगे जो बैंक से लोन ले रहे होंगे। इससे कमज़ोर बैंकों का बिज़नेस ठप्प पड़ सकता है। कई लोगों का क़र्ज़ लौटान भी मुश्किल हो सकता है जिससे बैंकों का एनपीए भी बढ़ जाए। "
यह आकलन फाइनेंशियल एक्सप्रेस का है।
उधर इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन ने कहा था कि
" कोरोना वायरस सिर्फ़ एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट नहीं रहा, बल्कि ये एक बड़ा लेबर मार्केट और आर्थिक संकट भी बन गया है जो लोगों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा। कोरोना वायरस की वजह से दुनियाभर में ढाई करोड़ नौकरियां ख़तरे में हैं। "
श्रम पर काम करने वाले एक अर्थशास्त्री के हवाले से यह कहा गया है कि,
"जो सेक्टर इस बुरे दौर से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे वहीं पर नौकरियों को भी सबसे ज़्यादा ख़तरा होगा। एविएशन सेक्टर में 50 प्रतिशत वेतन कम करने की ख़बर तो पहले ही आ चुकी है। रेस्टोरेंट्स बंद हैं, लोग घूमने नहीं निकल रहे, नया सामान नहीं ख़रीद रहे लेकिन, कंपनियों को किराया, वेतन और अन्य ख़र्चों का भुगतान तो करना ही है। यह नुक़सान झेल रहीं कंपनियां ज़्यादा समय तक भार सहन नहीं कर पाएंगी और इसका सीधा असर नौकरियों पर पड़ेगा। हालांकि, सरकार ने कंपनियों से लोगों को नौकरी से ना निकालने की अपील है लेकिन इसका बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा। "
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि,
" दुनिया ने 2008 की मंदी का दौर भी देखा था जब कंपनियां बंद हुईं और एकसाथ कई लोगों को बेरोज़गार होना पड़ा। ये उससे भी ख़राब दौर हो सकता है। उस समय एयर कंडिशनर जैसी विलासिता की कई चीज़ों पर टैक्स कम हुए थे। तब सामान की कीमत कम होने पर लोग उसे ख़रीद रहे थे लेकिन लॉकडाउन के बाद अगर सरकार टैक्स ज़ीरो भी कर दे तो भी कोई ख़रीदने वाला नहीं है। यह स्थितियां सरकार के लिए भी बहुत चुनौतीपूर्ण हैं। 2008 के दौर में कुछ कंपनियों को आर्थिक मदद देकर संभाला गया था। लेकिन, आज अगर सरकार ऋण दे तो उसे सभी को देना पड़ेगा। क्योंकि हर सेक्टर में उत्पादन और ख़रीदारी प्रभावित हुई है। "
कारण लोगो के पास धन नहीं है औऱ सामने एक अनिश्चितता का वातावरण है। मध्यम वर्ग ने अपने लिये फ्लैट, प्लाट और गाड़ियां जो लोन पर ले रखी हैं, उनकी अदायगी की समस्या जब सिर पर हो तो लोग खर्च कहां से करेंगे। इस मितव्ययिता का असर बाजार और अंततः घूमफिर कर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
इस आपदा का असर, पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। चीन और अमेरिका जैसे बड़े देश और मज़बूत अर्थव्यवस्थाएं इसके सामने लाचार हैं। इससे भारत में विदेशी निवेश के ज़रिए अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने की कोशिशों को भी धक्का पहुंचेगा, जो हमारा एक पसंदीदा शगल है। विदेशी कंपनियों के पास भी पैसा नहीं होगा तो वो निवेश में रूचि नहीं दिखाएंगी। वैसे भी बजट के बाद जो गिरावट शेयर बाजार मे आयी है, उसी से यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि विदेशी निवेशकों की रुचि अब हमारी आर्थिकी में कम हो गयी है।
लेकिन आगे की योजना जिसे अंग्रेजी में रेनी डे प्लानिंग कहते हैं उसे तो करनी ही पड़ेगी। भारत की अर्थ व्यवस्था के साथ सबसे खूबसूरत बात यह है कि हमारी आर्थिकी का आधार कृषि है लेकिन पाश्चात्य औद्योगिकीकरण के अतार्किक नशे में हमने कृषि सेक्टर को अक्सर नज़रअंदाज़ किया है। पर्याप्त मात्रा में कृषिभूमि, तरह तरह के मौसम, बहुफसलो से प्रसादित यह सेक्टर सबसे बड़ा असंगठित क्षेत्र है और सबसे उपेक्षित भी। आज हम कितना भी औद्योगिकीकरण कर ले लेकिन जब एक भी मानसून गड़बड़ाने लगता है तो सरकार के अर्थ प्रबंधकों की पेशानी पर बल पड़ने लगता है।
दुनियाभर में अर्थ व्यवस्था के मूलतः दो मॉडल है। एक पूंजीवादी मॉडल जो मूलरूप से निजी पूंजी और लाभ पर आधारित है दूसरा समाजवादी मॉडल जो लोककल्याण सार्वजनिक भागीदारी पर आधारित है। हमने 1947 के बाद दोनों को मिला कर एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का नया मॉडल चुना जो 1991 तक आते आते मुक्त बाजार और वैश्वीकरण के दौर में पूंजीवादी मॉडल में बदल गया। इससे यह लाभ तो हुआ कि ढेरों नौकरियों का सृजन हुआ औऱ आर्थिक विकास भी हुआ। पर 2012 तक इस मॉडल की खामी भी सामने आने लगी जब अमीर और गरीब के बीच का आर्थिक अंतर बहुत बढ़ गया। देश की पूरी संपदा सिमट कर कुछ घरानों में आ गयी और लोकतंत्र एक गिरोहबंद पूंजीवाद से डिक्टेटेड लोकतंत्र में बदल गया। अब जब कोरोना आपदा में यह तंत्र प्रभावित होने लगा तो देश के बहुसंख्यक आबादी की तो बात ही छोड़ दीजिए, सबसे पहले यह कॉरपोरेट ही अपना दुखड़ा लेकर बैठ गया। कॉरपोरेट आज की तिथि में सबसे बड़ा और असरदार दबाव ग्रुप है और लोककल्याणकारी कदमो का सबसे बड़ा विरोधी भी है। इसी आपदा में राहत पैकेज को देखें तो, 'क्रिएटिव अकाउंटिंग और और विंडो ड्रेसिंग को छोड़ दें तो पैकेज 1.7 लाख करोड़ रुपए के बजाय 1 लाख करोड़ रुपए के करीब है। यह पैकेज देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.5 प्रतिशत है। पिछले साल आर्थिक मंदी की आहट पर केंद्र द्वारा दी गई कॉरपोरेट टैक्स छूट से भी यह कम राशि है।'
विकासशील आर्थिकी पर काम करने वाले अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज इस आपदा और लॉक डाउन के संबंध में कहते हैं,
" पूरी संभावना है कि लॉकडाउन और आर्थिक मंदी से खाद्य प्रणाली बाधित होगी। इस समय हमारे सामने अजीब से हालात हैं। कमी और अधिकता (सरप्लस) दोनों स्थितियां हैं क्योंकि आपूर्ति श्रृंखला टूट रही है। खाद्य महंगाई नियंत्रित है क्योंकि अधिकांश लोग जरूरत से अधिक खरीदारी में असमर्थ हैं। लॉकडाउन में छूट मिलने के साथ इस स्थिति में बदलाव आ सकता है। इसके बाद जो लोग सक्षम हैं, वे खरीदारी के लिए निकल सकते हैं।"
मतलब आपूर्ति श्रृंखला से वे लोग अधिक प्रभावित होंगे जिनके पास काम नहीं है। अगर आने वाले कुछ महीनों तक लॉकडाउन जारी रहता है तो इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी देखने को मिलेंगी।
सबसे पहले तो भारत को स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है। पूंजीवाद के प्रबल समर्थक भी यह स्वीकार करते हैं कि बाजार की प्रतिस्पर्धा स्वास्थ्य सेवाओं, विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य को दुरुस्त करने का गलत तरीका है। अधिकांश समृद्ध देश इस तथ्य को मानने लगे हैं और उन्होंने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। यही बात सामाजिक सुरक्षा पर भी लागू होती है। एक सबक यह हो सकता है कि हम एकजुटता के मूल्य को समझें जिसे जाति व्यवस्था और अन्य सामाजिक विभाजनों द्वारा लगातार क्षीण किया जा रहा है। जब स्वास्थ्य सुविधाओं की बात की जाती है तो उसका आशय स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर, यानी अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और ब्लॉक स्तर तक सामान्य अस्पताल है न कि बीमा और आयुष्मान जैसी योजनाओं का सृजन जो अंततः कॉरपोरेट को ही लाभ पहुंचाती हैं। अब देखना है कि सरकार इस आर्थिक समस्या का सामना कैसे करती है। लेकिन मेरा दृढ़ मत है कि गिरोहबंद पूंजीवादी मॉडल के अनुसार इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं होगा।
( विजय शंकर सिंह )
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