Saturday, 14 September 2019

हिन्दीदिवस - निज भाषा उन्नति अहै... / विजय शंकर सिंह

भाषा नीति पर बोलते हुये एक बार डॉ लोहिया ने कहा था कि,
" भारत मे राजकाज और लोकभाषा सदैव अलग अलग रही है। जब सरकार की भाषा संस्कृत थी तो लोकभाषा पाली और प्राकृत थी। मध्यकाल में जब राजकाज की भाषा फ़ारसी हुयी तो लोकभाषा हमारी देसी भाषाएं बनी रहीं। जब अंग्रेजी राज में राजकाज की भाषा अंग्रेजी बनी तो जनता की भाषा हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाएं बनी। '
इस विडंबना का परिणाम यह हुआ कि जो भाषा जिस युग मे राजकाज से जुड़ी रही उसका विकास, स्वीकार्यता, और वर्चस्व उस  युग मे बना रहा और जनभाषा अपनी जगह ही सम्प्रेषण का माध्यम तो बनी पर उन्हें वह स्वीकार्यता उनकी व्यापकता के बावजूद भी नहीं मिल सकी। क्यों ?

इसका सबसे बडा कारण है भाषा का रोजी रोटी से न जुड़ना। जब भाषाएं रोजगार से जुड़ती हैं तो उनका स्वाभाविक और स्वतः विकास होता रहता है। भाषाएं सदैव विकासशील ही बनी रहती हैं। वह संतृप्त कभी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये हिन्दी सिनेमा को लिया जा सकता है। देश के सभी सिने उद्योगों में हिन्दी सिनेमा का प्रमुख स्थान है। न केवल आर्थिक कमाई में बल्कि लोकप्रियता में भी। लोकप्रियता का आलम यह है कि, अभिनय, कथ्य आदि की दृष्टि से उत्कृष्ट बांग्ला सिनेमा और तकनीकी, एक्शन, मायथालॉजी से भरा तमिल सिनेमा के बावजूद हिन्दी सिनेमा उनके इलाके में भी उन्हें चुनौती दे रहा है। तमिल के महान अभिनेता जेमिनी गणेशन को छोड़ दें तो लगभग सभी प्रथम श्रेणी के तमिल अभिनेताओं ने हिन्दी फिल्में की हैं और उनमें वे बेहद लोकप्रिय हुए हैं। रजनीकांत, कमल हासन के नाम इस संदर्भ में लिये जा सकते हैं। बांग्ला के तो सभी बड़े कलाकार हिन्दी फिल्मों में काम कर चुके हैं। हिन्दी सिनेमा का हिन्दी के प्रसार के योगदान में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां भाषा के प्रसार के कारण, हिन्दी को महत्व मिला फिर जब सिनेमा का विस्तार हुआ तो, भाषा का प्रसार भी हुआ। हिन्दी सिनेमा को भाषा के इस व्यापक प्रचार प्रसार का श्रेय देना चाहिये।

हिन्दी के प्रति एक धारणा यह है कि यह एक बोली है, और इसे आसानी से सीखा जा सकता है। आधुनिक हिन्दी बहुत पुरानी भाषा नहीं है, बल्कि दो सौ साल पहले यह खड़ी बोली आधुनिक हिन्दी के रूप में स्वीकार की गयी और एक नए कलेवर में यह भाषा बनी। भाषाएं सम्प्रेषण का माध्यम हैं। लोग अपनी बात कहने के लिये किसी न किसी माध्यम का प्रयोग करते हैं और वही माध्यम भाषा बन जाती है। इतिहास में इसे पहले हिंदवी कहा गया, फिर आंचलिक रूप से ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, खड़ी, शूरसेनी,बुंदेली, छत्तीसगढ़ी आदि आदि स्थानीय बोलियों के सहित्य सामने आए। सबसे अधिक समृद्ध बोली तब ब्रज और अवधी बनी। खड़ी बोली एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रही। मैथिली, बांग्ला के अधिक निकट रही, बनिस्पत हिन्दी के।लेकिन 200 साल पहले खड़ी बोली का प्रसार बढ़ा और वह सभी प्रचलित लोक बोलियों को पछाड़ते हुये एक नए रूप में अवतरित हुयी जो हिन्दी कहलायी।

जब आधुनिक हिन्दी का स्वरूप बन रहा था तो देश मे एक और भाषा जन्म ले चुकी थी, जो उर्दू के नाम से प्रसिद्ध हुयी। उर्दू का शाब्दिक अर्थ लश्कर यानी फौजी टुकड़ी होता है। भारत मे बाहर से आने वाली हमलावर सेनाएं, ईरान,तुर्क, मंगोल, आदि इलाक़ो से आई और एक फौजी भाषा के रूप में उर्दू का जन्म हुआ। आज भी फौजी भाषा अलग स्वरूप में है। उसका भी यही कारण है कि वह भारत के हर भूभाग का प्रतिनिधित्व करती है।  यह सम्मिलन ( अमलगमेशन ) दक्षिण में हुआ तो इस भाषा का जन्म भी दक्षिण, या दक्खिन या, दकन या डेक्कन ही माना गया। फिर यह भाषा वहाँ से चारों तरफ फैली। लेकिन दक्षिण में द्रविड़ भाषा परिवार की तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी समृद्ध और अलग भाषाएं थी तो उर्दू वहां उतना अतिक्रमण नहीं कर पायी पर उत्तर भारत मे यह भाषा सामान्य बोलचाल में  हिन्दी के साथ इतनी घुलमिल गयीं कि लिपि भेद हटा दिया जाय तो दोनों ही भाषाएं एक साथ जुड़वा लगती हैं।

जब हिन्दी भाषा का आधुनिक स्वरूप आकार ग्रहण कर रहा था तो हिन्दी का स्वरूप क्या हो, इस पर एक लंबी बहस चली। एक स्वरूप तो फ़ारसी, तुर्की, अरबी मिश्रित उर्दू का था, तो दूसरी संस्कृत की विरासत लिये हिन्दी का था। बोलचाल में तो लोग अपनी सुविधा, क्षमता और ज्ञान के अनुसार, जो हिन्दी बोलते थे उसमे इन सभी भाषाओं के शब्द समाविष्ट थे। पर साहित्य की भाषा क्या हो, इस पर एक लंबी और विद्वतापूर्ण बहस बनारस में हुई। यह हिन्दी के दो बड़े विद्वानों के बीच विचार संघर्ष का अवसर था। ये विद्वान थे, राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द, और लक्ष्मण सिंह।

राजा लक्ष्मण सिंह  भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पूर्व की हिन्दी गद्यशैली के प्रमुख लेखक थे। वे हिन्दी को संस्कृत भाषा के अनुकूल संस्कृतनिष्ठ बनाने की बात करते थे। इन्होने आगरा से प्रजा-हितैषी पत्र निकाला और कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम्, रघुवंश एवं मेघदूतम् का हिन्दी में अनुवाद किया। लेकिन राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, ने बोलचाल में प्रयुक्त नागरी लिपि के हिन्दी का पक्ष लिया, जिसमे सभी भाषाओं के शब्दों को समेटने की बात कही गयी।

भाषाई विवाद के पूर्व फ़ारसी और नागरी लिपि के उपयोग को लेकर एक अन्य विवाद भी तब खड़ा हो गया था। उर्दू की बोली, व्याकरण तो हिन्दी की तरह है लेकिन उसकी लिपि फ़ारसी है। फ़ारसी लिपि इसलिए अपनायी गयी थी कि फ़ारसी ही मध्यकाल जिसे सल्तनत और मुग़ल काल के कालखंड के लिये कहा जाता है, तब की राजकाज की भाषा थी। लेकिन, हिन्दी जो तब आकर ग्रहण कर रही थी की लिपि देवनागरी या नागरी लिपि थी और आज भी है ।

प्रारम्भिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वालों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे हिन्दी और नागरी के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और सुनिश्चित नहीं गढ़ा जा सका था। खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल ही चल रही थी। वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी; मगर नहीं हो पा रही थी। क्योंकि एक तरफ अँग्रेजों के आधिपत्य के कारण अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया जा रहा था तो दूसरी तरफ राजकीय कामकाज में, कचहरी में फ़ारसी और उर्दू समादृत थी।

कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्द जी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है,

" जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू न गयी हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।"

तब अंग्रेजों की सरकार थी और सरकारी नौकरियों में नागरी लिपि को लागू करने की माँग भी वाजिब और लोकतांत्रिक थी। इस माँग को सबसे पहले 1868 ई. में राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' ने उठाया। उन्होंने 1868 ई. में युक्त प्रांत की सरकार को एक मेमोरेंडम - 'कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर प्रोविंसेज ऑफ इंडिया' दिया। उनके मेमोरेंडम का यह अंश पढें,

" जब मुसलमानों ने हिंदोस्तान पर कब्जा किया, उन्होंने पाया कि हिंदी इस देश की भाषा है और इसी लिपि में यहाँ के सभी कारोबार होते हैं। ......लेकिन उनकी फारसी शहरों के कुछ लोगों को, ऊपर-ऊपर के दस-एक हजार लोगों को, छोड़कर आम लोगों की जुबान कभी नहीं बन सकी। आम लोग फारसी शायद ही कभी पढ़ते थे। आजकल की फारसी में आधी अरबी मिली हुई है। सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओ के बीच सामी तत्वों को खड़ा कर उन्हें अपनी आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो आर्य हैं, क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का। फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं। अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की रचनाओं का आदर समान रूप से हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है। ......मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी जगह हिंदी लिपि को लागू किया जाए। "

इस मेमोरेंडम के बाद नागरी लिपि ने फ़ारसी लिपि का स्थान लिया और हिन्दी को राजकाज के क्षेत्र में प्रवेश मिला।

लिपि के बाद भाषा की शुद्धता के बारे में भी विवाद हुआ। एक पक्ष उस हिन्दी को मान्यता देना चाहता था, जो उर्दू फ़ारसी सभी भाषाओं के शब्दों को लेकर प्रवाहित हो, तो दूसरा पक्ष संस्कृत से आये शब्दों को ही हिन्दी मे अपनाने पर ज़ोर दे रहा था। तब हिन्दी के गद्य और पद्य की भाषा भी अलग अलग थी। गद्य तो खड़ी बोली में रचे जा रहे थे पर पद्य पर ब्रज और अवधी का वर्चस्व था। इसका कारण छंद विन्यास और ब्रज का स्वाभाविक भाषायी सौंदर्य और साहित्य की एक दीर्घ परंपरा थी।

हिन्दी को आधुनिक स्वरूप में लाने का श्रेय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को जाता है। भारतेंदु निश्चय ही आधुनिक हिन्दी के शैशव काल मे एक शिखर पुरुष थे, पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा को एक दिशा और समृद्धि दी। उनके द्वारा संपादित पत्रिका सरस्वती का योगदान हिन्दी भाषा के विकास में नहीं भूला जा सकता है। इन्होंने लेखकों का एक समूह ( स्कूल ) तैयार किया जिन्होंने भाषा को न केवल विचार प्रवाह दिया बल्कि भाषा को शाब्दिक रूप से भी समृद्ध किया। फिर हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास लिखा गया। यह लिखा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने। फिर यह भाषा छायावाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, नकेनवाद आदि न जाने कितने पड़ाव पार करते हुये प्रसाद, पंत, निराला, प्रेमचंद, आदि मूर्धन्य साहित्यकारों की लेखनी से समृद्ध होती चली गयी और जब भारत आज़ाद हुआ तो इसे राजभाषा के रूप में मान्यता मिली।

अक्सर हम देखते हैं कि अपनी भाषायी अस्मिता को लेकर हम हिन्दी भाषी एक हीन ग्रन्थि से ग्रस्त हो जाते हैं। अक्सर हम यह जानते हुये भी कि सामने वाला व्यक्ति हिन्दी भाषी है हम वार्तालाप अंग्रेजी में ही शुरू करते हैं। कभी कभी तो यह भी कह देते हैं कि अंग्रेजी में बात करना अधिक सुविधाजनक है। जब यह बात हम कहते हैं तो खुद को एक मिथ्या गर्व के वशीभूत भी पाते हैं। जबकि बांग्ला, तमिल, मराठी, पंजाबी, गुजराती आदि अन्य भारतीय भाषाएं जो प्रसार में हिन्दी से कहीं कम हैं के बोलने वाले अपनी ही भाषा मे आपस में संवाद करना अधिक पसंद करते हैं। अपनी भाषा की अस्मिता का यह अभाव हमने देखा है।

भाषाएं वही विकसित और समृध्दि के सोपान पर चढ़ती जाती हैं जो, सरल और सर्वग्राही हो। जब कोई भाषा किसी इतर भाषा के शब्द को अपने मे समेटने से परहेज करने लगती है तो वह थम जाती है। वह शुद्ध भले ही बनी रहे पर उसका प्रसार बाधित हो जाता है। भाषाएं नदी की तरह है। अगर यह  सदानीरा और सतत प्रवाहमयी है तो भरी भरी और सबको सींचती और तृप्त करती चलती रहती है अन्यथा एक बड़े झील की तरह, भले ही सुंदर और आकर्षक बनी रहे,  सिमट कर ही रह जाती है। क्लिष्ठता भाषा का सौंदर्य भले ही बढ़ा दे, पर वह भाषा को लोकप्रिय, और व्यापक स्वीकार्यता होने से रोकती भी है। भाषा अगर सरल, जन को छूती हुयी बढ़ती है तो वह स्वतः स्वीकार्य और अन्य भाषाओं के शब्दों से अपने को समृद्ध करती जाती है।

अंग्रेजी के वैश्विक प्रसार का एक बड़ा कारण यह भी है कि उसने अपनी सरलता और सर्वग्राह्यता नहीं छोड़ी है। आज अंग्रेजी के तीन मान्यता प्राप्त शब्दकोशों, ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और वेबस्टर में से ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ने, दूसरी भाषाओं के शब्दों को, जो स्थानीय बोलचाल में आ जाते हैं, अपनी अंग्रेजी का अंग मानते हुए अपनी भाषा मे समेट लिया है। उन्होंने इस तरह अपना शब्द भंडार बढ़ाया है। विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग और उसे अपनाने से किसी भाषा की शुचिता नहीं प्रभावित होती है, बल्कि वह भाषा और समृद्ध होती है। भाषाएं, वाग्देवी की वरदान हैं। यह हमें जोड़ती हैं और हमारे मनोभावों को संप्रेषित करने में सहायक होती हैं। जिस शब्द से हम अपनी बात स्पष्टता और समर्थपूर्ण व्यक्त कर सकें वह शब्द किसी भी भाषा का हो उसे अपनाने में हमे गुरेज और परहेज नहीं करना चाहिये।

आज हिन्दी दिवस है। बहुत सी बोलियों और भाषाओं वाले हमारे देश में आजादी के बाद भाषा को लेकर एक बड़ा सवाल आ खड़ा हुआ। आखिरकार 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। हालांकि शुरू में हिंदी और अंग्रेजी दोनो को नए राष्ट्र की भाषा चुना गया और संविधान सभा ने देवनागरी लिपि वाली हिंदी के साथ ही अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया, लेकिन 1949 में आज ही के दिन संविधान सभा ने हिंदी को ही भारत की राजभाषा घोषित किया। हिंदी को देश की राजभाषा घोषित किए जाने के दिन ही हर साल हिंदी दिवस मनाने का भी फैसला किया गया, हालांकि पहला हिंदी दिवस 14 सितंबर 1953 को मनाया गया। आप सबको हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment