Saturday, 14 September 2019

सुखदेव और राजगुरू, भगत सिंह के साथी / विजय शंकर सिंह

मार्च 23, को भगत सिंह का शहादत दिवस होता है। इसी दिन लाहौर के सेंट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने फांसी की सज़ा दी थी। भगत सिंह केवल भावुक क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि वे प्रखर और प्रबुद्ध विचारशील और मार्क्सवादी अध्येता भी थे। भारत की आज़ादी उनका लक्ष्य नहीं था। यह उस महान लक्ष्य का एक पड़ाव था, जहां वे पहुंचना चाहते थे। वह लक्ष्य था, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का खात्मा, उपनिवेशवाद की मृत्यु और शोषण मुक्त समता मूलक समाज की स्थापना करना। यह लक्ष्य सरल और आसान नहीं था तो भगत सिंह ही कौन साधारण शख्सियत थे ? भगत सिंह के अनन्य सहयोगी और साथी थे सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु। आज उनके साझे शहादत दिवस पर थोड़ी चर्चा सुखदेव और राजगुरु की भी हो जाय।

सुखदेव थापर

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सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को लुधियाना के नौघरा मोहल्ले में रामलाल थापर और रल्ली देवी के घर हुआ था। लेकिन सुखदेव के पिता का देहांत उनके बाल्यावस्था में ही हो गया था। सुखदेव को उनके पिता की मृत्यु के बाद उनके चाचा लाला अचिंतराम लाहौर स्थित अपने घर ले आये और उनका लालन पालन किया।

लाहौर के नेशनल कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करते समय सुखदेव कॉलेज में होने वाली नियमित गोष्ठियों में भाग लेने लगे । उन गोष्ठियों में अंग्रेज़ी हुक़ूमत और उसके ज्यादतियों की भी चर्चा होती थी। इन्ही गोष्ठियों में आज़ाद पसंद और रूस की समाजवादी क्रांति से प्रभावित प्रबुद्ध युवाओं का एक अलग गुट बन गया था। वहां क्रांतिकारी बातें भी होती थीं और वामपंथी स्टडी सर्किल भी था। यह कॉलेज पंजाब केसरी लाला लाजपतराय द्वारा संचालित और स्वाधीनता संघर्ष का एक प्रमुख केन्द्रविन्दु था। इन्ही क्रांतिकारी गोष्ठियों में सुखदेव की मुलाकात भगत सिंह और हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और क्रांतिकारी यशपाल से हुयी। समान विचारधारा पर आधारित यह मित्रता आगे जा कर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में एक मील का पत्थर बनी। यशपाल की आत्मकथा सिंहावलोकन में इस मुलाकात का उल्लेख है।

नेशनल कॉलेज का वातावरण आज़ादी के दीवानों से गुलजार था। रूस की क्रांति हो चुकी थी और और उस क्रांति ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ आंखों में बदलाव के सपने लिये युवाओं को अंदर तक जगा दिया था। लाला लाजपतराय, लाल बाल पाल ( लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक औऱ बिपिन चंद्र पाल ) की त्रयी के एक अंग थे। वे उस समय आज़ादी के लड़ाकों की सबसे अग्रिम पंक्ति थी। अभी गांधी नेपथ्य में थे। नेशनल कॉलेज के एक और शिक्षक भगत सिंह और साथियों के प्रेरणास्रोत बन गए थे। वे थे जय चंद विद्यालंकार। ये इतिहास के प्रोफेसर थे और रूसी क्रांति के दर्शन से प्रभावित थे।

इसी परिवेश में, इन्ही युवाओं ने एक संगठन, नौजवान सभा का गठन किया। यह संगठन वैज्ञानिक और तार्किक सोच रखने वाले युवाओं का समूह था जो उस समय की जटिल बीमारियां साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता के खिलाफ भी लड़ने की योजनाएं बना रहा था। नौजवान सभा के नौजवानों ने अपने कॉलेज और गोष्ठी में देश के राजनीतिक दलों के प्रबुद्ध लोगों को भी भाषण, व्याख्यान और वाद विवाद के लिये आमंत्रित किया और धीरे धीरे यह संगठन आज़ादी के योद्धाओं के विचार विनिमय का एक प्रमुख मंच बन गया।

बाद में भगत सिंह और उनके साथी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन ( HSRA एचएसआरए ) के साथ जुड़ गए। यह क्रांतिकारी यानी सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत थी। पंजाब में स्थान स्थान पर इसके छोटे छोटे केंद ब्रिटिश सरकार की उपनिवेशवादी नीतियों के खिलाफ लोगों को जाग्रत करने लगे। सुखदेव की प्रमुख भूमिका लाहौर षडयंत्र मामले में भी थीं। इसके बाद सुखदेव का जीवन काल भगत सिंह के साथ ही जुड़ गया था।

शिवराम राजगुरु

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शिवराम राजगुरु, जिन्हें राजगुरु के नाम से भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की त्रयी के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में जाना जाता है, का जन्म महाराष्ट्र के पुणे जिले के खेद नामक गांंव में हुआ था। राजगुरु के संबंध महाराष्ट्र के क्रांतिकारी संगठनों से हुआ और वे उसी माध्यम से चंद्रशेखर आजाद से जुड़े । आज़ाद के व्यक्तित्व ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। आज़ाद एचएसआरए के प्रमुख थे और आज़ाद से ही प्रभावित होने के कारण राजगुरु ने इस क्रांतिकारी संगठन की सदस्यता ग्रहण की और वे इस प्रकार भगत सिंह के करीब आये।

राजगुरु का परिवार लोकमान्य तिलक का समर्थक था। तिलक एक प्रखर और ओजस्वी व्यक्तित्व के नेता थे। अंग्रेज़ उन्हें फादर ऑफ द इंडियन अनरेस्ट कहते थे। आज़ादी के बारे में उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था। राजगुरु संस्कृत के परंपरागत मराठी विद्वानों के परिवार से थे। वे मल्ल विद्या में भी निपुण थे। महाराष्ट्र वैसे भी मल्ल प्रेमी क्षेत्र है। राजगुरु का परिवार इसका अपवाद नहीं था। राजगुरु, एचएसआरए में शामिल होते ही, भगत सिंह और सुखदेव के घनिष्ठ मित्र बन गए। यह त्रयी अपने संगठन में भी बहुत प्रसिद्ध हो गयी।

फरवरी 1928 में साइमन कमीशन का पंजाब दौरा हुआ। यह कमीशन भारत मे संवैधानिक सुधारों का जायजा लेने आया था। पर इसका असल उद्देश्य भारत के आज़ादी की मांग को किसी न किसी प्रकार भटकाना था। भारतीय नेतागण साइमन कमीशन की चाल समझ गए थे और उन्होंने इसके देशव्यापी विरोध का निर्णय लिया। साइमन कमीशन देश में, जहां जहां गया वहां वहां इसका विरोध हुआ। लोग दुःखी, नाराज़ और हताश थे। इसी प्रकार की एक प्रतिक्रिया लाहौर में भी हुयी। साइमन वापस जाओ के नारे के साथ इस कमीशन का विरोध किया गया। लाहौर में एक बहुत बड़ा जुलूस निकाला जिसका नेतृत्व लाला लाजपतराय कर रहे थे। तभी पुलिस ने बेहद निर्दयता से लाला लाजपतराय पर लाठियां बरसायी। लाजपतराय घायल हो गए और बाद में उन्ही लाठियों की घातक चोट से उनकी मृत्यु हो गयी। अपने पर हुए बर्बर लाठीचार्ज के विरोध में लाला लाजपतराय ने कहा था कि, ” मेरे ऊपर पड़ी लाठी की एक एक चोट ब्रिटिश राज के कफन की कील होगी। ” यह बात बाद में सच हुयी। 1930 में उसी लाहौर में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया और आज़ादी की लड़ाई की दिशा ही बदल गयी।

इसके बाद ही भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंका। हालांकि वह बम केवल धमाका था और उसका उद्देश्य भी धमाका करना ही था। जैसा कि भगत सिंह ने खुद ही कहा था कि वह धमाका बहरों को सुनाने के लिये था। बम और पर्चे फेंकने के बाद भी ये क्रांतिकारी वहां से भागे नहीं बल्कि वहीं गिरफ्तार किये गए और उन पर लाहौर षडयंत्र केस का मुकदमा चला। यह मुकदमा देश की लीगल हिस्ट्री में एक प्रमुख स्थान रखता है।

असेंबली बम कांड के बाद जब भगत सिंह और उनके साथी गिरफ्तार हुए तो फिर बाहर नहीं निकल पाए। उन्होंने अपना मुकदमा लड़ा। अदालत में रोज़ रोज़ पेशी में जाने का मक़सद मुकदमे से बरी होना नहीं था। वे यह जानते थे कि ब्रिटिश हुकूमत उन्हें छोड़ने वाली नहीं है। पर उनका उद्देश्य था अपने मकसद और विचारधारा को स्पष्ट कर के ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की बखिया उधेड़ कर उसकी पोल खोल देना। ब्रिटिश तंत्र को अपनी वैधानिकता और पाखंड भरी न्याय प्रियता पर बहुत दम्भ था। न दलील, न वकील और न अपील यह नारा इस मुक़दमे में बहुत प्रचलित हो गया था। अंत मे भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को अदालत ने फांसी की सज़ा दी। यह सज़ा 23 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल में दी गयी। लाहौर में अब वहां जेल नहीं एक चौराहा है जिसका नाम शादमान चौक है। पाकिस्तान में वहां पर भगत सिंह के समर्थकों के प्रयास से लाहौर हाईकोर्ट ने उक्त स्थान का नाम भगत सिंह चौक रखने का निर्णय दिया है। आज़ादी के आंदोलन में संभवतः भगत सिंह अकेले नायक हैं जो भारत और पाकिस्तान में समान भाव से सराहे जाते हैं। यह सम्मान महात्मा गांधी को भी प्राप्त नहीं है।

अपनी जेल यात्रा काल में भगत सिंह और उनके साथियों ने कारागार में व्याप्त दुरवस्था को भी उजागर किया। जेल में एक लंबा आमरण अनशन इन क्रांतिकारियों द्वारा किया गया। लाहौर के दैनिक द ट्रिब्यून की नियमित रिपोर्टिंग में इस अनशन और इसके असर को बहुत प्रमुखता से कवर किया गया था। आज भी नेट पर ट्रिब्यून के आर्काइव में यह दस्तावेज उपलब्ध है। जवाहरलाल नेहरु जब 1930 के कांग्रेस अधिवेशन की तैयारी में लाहौर गये थे तो उन्होंने इन अनशनकारी क्रांतिकारियों से जेल में। मुलाक़ात की थी। ट्रिब्यून ने उक्त मुलाकात का विवरण भी प्रकाशित किया था। अखबारों की व्यापक कवरेज से देश भर के युवा इन क्रांतिकारियों के दीवाने हो गए। 23 मार्च 1931 को जब फांसी के बाद हुसैनीवाला में उनके शव के अंतिम संस्कार किये गए तो देश भर में जगह जगह पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये गए। फांसी के समय भगत सिंह और सुखदेव की उम्र 23 और राजगुरु की केवल 22 वर्ष थी।

भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास पर बहुत अधिक नहीं लिखा गया है। मन्मथनाथ गुप्त ने अलग से क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास पर एक अलग पुस्तक लिखी है। यशपाल ने भी झूठा सच और सिंहावलोकन में क्रांतिकारी गतिविधियों पर अपने संस्मरण के रूप में काफी कुछ लिखा है। पर सामग्री का अभाव इस विषय पर इतिहास लेखन न होने का एक बड़ा कारण है। अधिकतर क्रांतिकारी गतिविधियां गोपनीय और क्षद्म रूप में होती थी। यह उनकी मजबूरी थी। दस्तावेज या पत्र आदि अपने गंतव्य तक पहुंचने के बाद नष्ट कर दिए जाते थे। क्योंकि इससे ऐसे आंदोलन के भेद खुलने और क्रांतिकारियों के पकड़े जाने की संभावना रहती थी। आज़ादी के बाद इस आंदोलन के शेष बचे क्रांतिकारियों ने ज़रूर अपने संस्मरण लिखे और आज़ादी के संघर्ष के इस अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष को भी उजागर किया है।

भगत सिंह केवल रूमानी और भावुक क्रांतिकारी नहीं थे। वे एक समृद्ध वैचारिक परम्परा से प्रभावित थे। सशस्त्र क्रांति के समर्थक होने के बावजूद वे यह मानते थे कि,

” केवल बम और पिस्तौल से क्रांतियां नहीं होती हैं। क्रांति के तलवार की धार विचारधारा के पत्थर पर रगड़ने से ही धारदार बनती है। ”

( Bombs and pistols do not make revolution. The sword of revolution is sharpened on the whetting stone of ideas.)

भगत सिंह की बात बिल्कुल सच है। दुनिया भर में होने वाली सारी क्रांतियां ठोस वैचारिक धरातल से ही शुरू हुयी है। बदलाव की बात बिना वैचारिक स्पष्टता के संभव ही नहीं है। थोड़ी सी भी वैचारिक धुंधता जिसे अंग्रेज़ी में पोलेमिक्स कहते हैं क्रांति या बदलाव के संघर्ष को अपने लक्ष्य से भटका देगी। ऐसा भटकाव क्रांति या बदलाव को अराजकता में बदल देता है।

© विजय शंकर सिंह

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