अंग्रेज़ों ने दलितों के लिए 71 आरक्षित सीटें दी थी, पूना समझौते में इसकी दोगुनी से अधिक 147 दलित सीटें दी गयी। लेकिन, यह हिंदुओं का निर्णय था, अंग्रेज़ों का नहीं। गांधी उस समय इसे लिखित संविधान का हिस्सा न बना कर, इसे हिंदू समाज द्वारा नैतिक निर्णय तक सीमित रखना चाहते थे।
तकनीकी रूप से यह दलित सीट थी ही नहीं। यह हिंदू सीट थी, जिस पर दलितों को खड़ा कर दिया गया था। अम्बेडकर का कहना था कि पहले दस साल दलितों को सवर्णों से अलग रखा जाए। सिर्फ़ उनके मत और उनके प्रतिनिधि हों, जिसमें सवर्णों का कोई हस्तक्षेप न हो। अन्यथा सवर्णों के मत पाने के फेर में वे दलित भ्रष्ट हो जाएँगे और सवर्णों के कठपुतली बन जाएँगे।
उस समय लंबे विमर्श के बाद अम्बेडकर इन 147 सीटों के लिए तैयार हो गए, किंतु वह दस वर्ष बाद एक जनमत-संग्रह पर अड़े थे। वह गांधी से मिलने अगले दिन फिर से यरवदा जेल पहुँचे।
यह गांधी के व्रत का पाँचवा दिन था, लेकिन गांधी काफ़ी बेहतर लग रहे थे, और वहीं जेल में टहल रहे थे। अम्बेडकर, राजाजी और सोलंकी को साथ आते देख गांधी ने हँसते हुए उनका स्वागत किया। अम्बेडकर अब भी गंभीर मुद्रा में थे।
अम्बेडकर ने कहा, “मैंने आपकी शर्तें तो मान ली है, लेकिन दस वर्ष के बाद ही जनमत-संग्रह हो।”
गांधी अब उस रूप में आए, जिसके विषय में अम्बेडकर ने बाद में कहा कि गांधी का ‘असली चेहरा’ मैंने उस दिन देख लिया।
गांधी ने कहा, “डॉक्टर! आपके तर्क अकाट्य हैं लेकिन, जनमत-संग्रह पाँच वर्ष के बाद ही हो। पाँच वर्ष यह जानने के लिए काफ़ी है कि सवर्ण हिंदू आपके प्रति अपना व्यवहार बदलना चाहते हैं या नहीं। अगर आप यह अवधि बढ़ाते रहे तो मैं यह समझूँगा कि आप सवर्णों को हृदय परिवर्तन का मौका नहीं देना चाहते, बल्कि दलितों को उनके ख़िलाफ़ एकजुट करना चाहते हैं।
मैं फिर से याद दिलाना चाहूँगा कि बारह वर्ष की अवस्था से मैं अछूत-प्रथा के ख़िलाफ़ हूँ। यौवन में मुझे स्वयं अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। मल ढोने का कार्य करने के लिए मुझसे मेरी पत्नी कुपित हो गयी। मैं बारम्बार कहता हूँ कि मैं कर्मों से एक भंगी हूँ और अछूतों के साथ रहने और उनके कार्य करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं आज से अपनी आखिरी साँस तक अछूतों के अधिकार के लिए लड़ता रहूँगा।
आपको पूर्ण अधिकार है कि आप अपनी जाति के लिए संवैधानिक सुरक्षा माँगें, लेकिन मैं आपसे भीख माँगता हूँ कि इसे जिद न बनाएँ। इस समय सवर्ण हिंदुओं में बदलाव की झलक दिखने लगी है। वे आपके लिए अधिक से अधिक सीटें छोड़ने को तैयार हैं। यह वे किसी संविधान से नहीं, अपने हृदय से कर रहे हैं। अगर आप इसके बीच संविधान ले आएँगे, तो यह आत्म-शुद्धि की प्रक्रिया रुक जाएगी। दोनों वर्गों के मध्य द्वंद्व होगा और दूरी बढ़ती चली जाएगी।
दलितों को अस्थायी रूप से एक अधिकार तो मिल जाएगा, किंतु हिंदू धर्म पर लगा दाग़ तो नहीं मिटेगा। मैं यह बात दावे के साथ कहूँगा कि अगर हिंदू अपने हृदय से अछूत-प्रथा नहीं त्यागते तो कोई भी संविधान इसे नहीं खत्म कर सकता। यह अधिक जहरीले रूप में लौटेगा।
मैं आपसे विनती करता हूँ कि आज जब हिंदू धर्म स्वेच्छा से इस बदलाव के लिए तैयार हो रहा है, तो हमें मौका दें। मुझे सवर्णों के साथ इस दिशा में काम करने का अवसर दें। अगर आप दस-पंद्रह साल माँगेंगे, तो यह कभी संभव नहीं होगा। हिंदुओं को पाँच वर्ष में सुधार लाना होगा, अन्यथा यह प्रथा कभी नहीं मिटेगी।
मेरे लिए ये पाँच वर्ष एक लक्ष्य है जिसमें मैं मनोयोग से लग जाऊँगा। आप अपने मित्रों से कह सकते हैं कि मैं अड़ियल हूँ, लेकिन मैं इस बात पर दृढ़ हूँ। मैं एक घृणा के लायक व्यक्ति हो सकता हूँ, किंतु जब मैं किसी बात को ठान लेता हूँ तो आप मुझसे जीत भी नहीं सकते। यह मेरा व्रत भी तभी टूटेगा जब लक्ष्य की प्राप्ति होगी।
आप चुन लें। पाँच वर्ष या मेरा जीवन।”
यह एक लंबा भाषण था। गांधी बोलते-बोलते थकने लगे थे। अम्बेडकर उन्हें चुप-चाप सुन रहे थे। प्यारेलाल ने लिखा - ‘आखिर इस भाषण ने अम्बेडकर रूपी चट्टान को पिघला दिया’
अम्बेडकर ने कहा, “मैं अब भी दस वर्ष के बाद जनमत-संग्रह के पक्ष में हूँ। लेकिन इसके पीछे तर्क पर मैं भी स्पष्ट नहीं हूँ। आपने अपने जीवन और पाँच साल में विकल्प चुनने कहा है, तो मेरे पास आखिर विकल्प क्या है? मैं आपकी मृत्यु का भागी तो नहीं बनना चाहूँगा।”
अम्बेडकर पिघलने या टूटने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने अपनी दृढ़ता से ही इतनी सीटें और जनमत-संग्रह की बात मनवायी थी। उस दिन 1, रामकृष्ण भंडारकर रोड, पुणे में इस समझौते पर सभी पक्षों ने हस्ताक्षर किए। मदन मोहन मालवीय, एम सी राजा, बालू पलवणकर, राजाजी, और जितने भी अन्य नेता थे, सबने किए। हालाँकि गांधी के हस्ताक्षर नहीं थे।
गांधी ने तब तक व्रत तोड़ने से मना कर दिया, जब तक ब्रिटिश सरकार बिना किसी बदलाव के इसको सत्यापित नहीं करती। यह बात ब्रिटिश प्रधानमंत्री तक पहुँचायी गयी, और उन्हें एक शोकसभा से हड़बड़ी में निकल कर हस्ताक्षर करने पड़े ताकि गांधी व्रत तोड़ें, और यह झंझट खत्म हो। उसके बाद भी गांधी ने कहा कि एक बार वह पूरा मसौदा खुद पढ़ेंगे। आखिर जब वह संतुष्ट हो गए कि दलित कहीं हिंदुओं से अलग नहीं हो रहे, तब जाकर उन्होंने व्रत तोड़ा।
यह वाकई दो चट्टानों के मध्य ही एक समझौता था, जिसमें दोनों पक्ष के लोगों को आभास हुआ कि एक पिघल गया। जबकि चट्टान का पिघलना तो एक मिथक है। दोनों में कोई नहीं पिघला।
उस घटना के बाद गांधी का जीवन एक नयी पत्रिका ‘हरिजन’ के लेखों द्वारा स्वयं को किसी भी अम्बेडकर या पेरियार से बड़ा दलित-चिंतक सिद्ध करने में बीता। वहीं, अम्बेडकर भी एक समय कांग्रेस और गांधी-विरोध की पराकाष्ठा तक पहुँचे।
द्रविड़ इतिहास में ‘पूना पैक्ट’ घुसेड़ने का एक कारण तो यह था कि दलित राजनीति का यह महत्वपूर्ण बिंदु है। दूसरा कारण यह था कि भविष्य में कांग्रेस और गांधी के तीन धुर-विरोधियों के हाथ मिलाने की घटना को समझना कुछ आसान होगा- पहले अम्बेडकर, दूसरे पेरियार, और तीसरे तो सर्वज्ञात हैं ही।
मोहम्मद अली जिन्ना!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास - दो (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/8_15.html
#vss
No comments:
Post a Comment