तैम्ब्रैम, यानी तमिल ब्राह्मण। अमरीकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकतर भारतीय उनसे मिले होंगे। एक ग़ैर-ब्राह्मण तमिल मित्र से बातचीत को मैं यहाँ कुछ काल्पनिक विस्तार दे रहा हूँ। जब मैं उनसे तमिल जाति-व्यवस्था समझ रहा था, तो उन्होंने सभी जातियाँ गिनानी शुरू की।
मैंने पूछा- “और ब्राह्मण?”
उन्होंने तंज कर कहा- “तुम तो मनुष्य की जातियाँ पूछ रहे हो। तैम्ब्रैम इस पृथ्वी से कहीं ऊपर देवलोक में रहते हैं। वे हमें भाव नहीं देते। बाकी तमिल एक तरफ़, तैम्ब्रेम एक तरफ़”
“लेकिन, उत्तर भारत में तो सवर्ण जातियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सभी आ जाते हैं”
“उत्तर भारत तो आर्यावर्त है, जहाँ आर्य होते हैं। आर्यों में यह वर्ण विभाजन रहा है। मगर यह द्रविड़ों का क्षेत्र हैं।”
“कैसा आर्यावर्त? वैदिक कालीन? पिछले दो हज़ार वर्षों में तो कभी कोई आर्यावर्त नहीं रहा।”
“तभी तो आर्य थ्योरी पर उत्तर भारत के सवर्ण लपक पड़े”
“मतलब?”
“उन्हें लगा कि वे यूरोपीय नस्ल के समकक्ष कहलाएँगे। तुम्हें ऐसे ब्राह्मण मिल जाएँगे जो स्वयं को गर्व से आर्यपुत्र कहेंगे, और आर्यावर्त की कल्पना कर रहे होंगे”
“मगर यह आर्य नस्ल तो मैक्स-मूलर के दिमाग की उपज है”
“किसी ने विरोध किया? डिबेट तो यह है कि आर्य भारत में ही थे या कहीं और से भारत आए। आर्य नस्ल के न होने पर कोई चर्चा होती है?”
“यह संभव है कि हज़ार वर्षों से मुसलमान राज और फिर ब्रिटिश राज में रह कर इस ‘आर्य’ शब्द से उन हिंदुओं का कॉन्फिडेंस बढ़ गया हो।”
“बिल्कुल। बॉम्बे और कलकत्ता प्रेसिडेंसी के ब्राह्मणों ने तो इसका स्वागत किया। तिलक ने अपनी किताब में मैक्स-मूलर को दिल से आभार व्यक्त किया है, और उनका अनूदित ऋग्वेद संदर्भित किया है।”
“मगर अंग्रेज़ों ने स्वयं को भारतीयों के नस्ल के बराबर माना क्यों? पहले तो वे खुद को श्रेष्ठ मानते थे”
“यह 1857 संग्राम के ठीक बाद एक मास्टर-स्ट्रोक था। पहला यह कि भारत का शूद्र समाज आर्यों से भिन्न नस्ल हो गया। दूसरा यह कि दक्षिण का द्रविड़ समाज उनसे भिन्न हो गया। मुसलमान तो पहले से भिन्न थे ही। भारत चार फाँकों में बँट गया, फिर क्या लड़ता?”
“भारत तो बँटा ही हुआ था। ब्राह्मण तो शूद्र को पहले भी घर की चौखट पर नहीं बैठने देते”
“वह दोष यूरोप और अमेरिका में भी था। इंग्लैंड के वर्तमान राजपरिवार की कहानी तो सुनते ही रहते हैं। फिरंगियों से भी बड़ा नस्लभेदी दुनिया में कोई हुआ? बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. बीसी रॉय को अमरीका की एक गोरी वेट्रेस ने खाना सर्व करने से मना कर दिया था।”
“हम्म…उत्तर के ब्राह्मण स्वयं खुद को आर्य कहने लगे, तो तमिल ब्राह्मणों ने क्या किया?”
“वे क्या करते? वे तीन प्रतिशत थे। 97 प्रतिशत तो वहाँ द्रविड़ थे। अगर यह अंग्रेज़ों की आर्य-द्रविड़ थ्योरी न आयी होती, तो उनके लिए बेहतर होता। वे भारत के सर्वोत्तम बुद्धियों में से थे।”
“थे मतलब?”
“साठ के दशक तक कई तमिल ब्राह्मण चुप-चाप पलायित कर गए। द्रविड़ आंदोलन का मूल ही ब्राह्मणवाद का विरोध था। उस समय तो विद्यार्थी जनेऊ भी कपड़ों के अंदर छुपा कर रखते, अन्यथा स्कूल में कोई तोड़ देता।”
“मगर ब्राह्मणों ने इस आंदोलन में स्वयं क्यों नहीं भाग लिया?”
“कांग्रेस में तो कई ब्राह्मण थे ही। राजागोपालाचारी ब्राह्मण थे। ‘द हिंदू’ अखबार ब्राह्मणों का रहा। कई ब्राह्मण अपने जनेऊ तोड़ कर और उपनाम त्याग कर समाजवादी और वामपंथी हुए।”
“इंद्रा नूयी, सुंदर पिचाई, ये लोग तो तैम्ब्रैम ही हैं?”
“तीन विज्ञान नोबेल विजेता। गणितज्ञ रामानुजन। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस भी आधी तैम्ब्रैम।”
“यानी भारत के उत्तरी छोर कश्मीर और दक्षिणी छोर तमिलनाडु, दोनों स्थानों से ब्राह्मणों का पलायन हुआ। क्योंकि बाकी के 97 प्रतिशत से तारतम्य न बैठ सका?”
“तीन प्रतिशत को कभी कोई तारतम्य बिठाने की ज़रूरत नहीं होती। तुम आईने में देखो और सोचो कि तुम सो-कॉल्ड ‘आर्य’ इसके लिए कितने जिम्मेदार हो? अगर आर्य न होते, तो द्रविड़ भी नहीं होते”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (5)
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