‘आर्य’ और ‘द्रविड़’ शब्द पहले से मौजूद थे। लेकिन क्या अंग्रेज़ों से पहले भारत में इनका उपयोग एक सामूहिक नस्ल के लिए था? आर्य बनाम द्रविड़ प्रश्न की ‘टाइमिंग’ पर एक बार ध्यान देना चाहिए।
1835 में लॉर्ड मकाले ने वह भाषण दिया (रिनैशाँ’ पुस्तक में अनूदित कर सम्मिलित)। 1856 में पादरी रॉबर्ट काल्डवेल द्वारा द्रविड़ व्याकरण लिखा गया, और एक द्रविड़ नस्ल की बात की गयी। उस समय तक आर्य नस्ल रडार पर नहीं था। 1857 में भारत में क्रांति हुई। 1861 में पहली बार लंदन में मैक्समूलर नामक भाषाविद ने एक वाक्य कहा, “आर्य नस्ल के पूर्वज कृषक खानाबदोश थे”। उसके बाद वह उसी भाषण में आर्य भाषाओं पर चर्चा करने लगे।
सिर्फ़ एक दशक में इन दो नस्ल-सूचक शब्दों का अचानक उभर आना क्या एक इत्तिफ़ाक़ या मैक्समूलर का ‘स्लिप ऑफ टंग’ कहा जाए? मामला इतना सुलझा हुआ नहीं है।
जो लोग ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को ग़लत या सही ठहराते हैं, क्या वह मूल लिखित रूप में यह सिद्धांत दिखा सकते हैं? मैक्समूलर की किताबें तो खुले रूप से ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं। क्या वहाँ ऐसा कोई सिद्धांत मौजूद है? अगर नहीं तो इस शिगूफे की शुरुआत कब हुई, और कैसे यह सिद्धांत रूप में स्थापित हो गया?
मैं अब तमिलनाडु से उठ कर पुन: यूरोप इतिहास में थोड़ी देर लौट रहा हूँ। उस देश में, जहाँ यह आर्य शब्द भविष्य में विस्फोटक सिद्ध हुआ।
मैक्समूलर की पैदाइश जर्मनी की थी, जो उस समय एक छोटे देश प्रशिया रूप में था। उस देश में एक स्वप्न पल रहा था कि जर्मन नस्ल का एक एकीकृत बड़ा देश बने। उन्होंने विश्व के ग्रंथों में कुछ तार ढूँढने शुरू किए, जिसमें भारतीय ग्रंथ भी आए। मैक्समूलर से पहले ही जर्मनी में कुछ उपनिषदों, भगवद्गीता और कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के अनुवाद हो चुके थे। श्लेगल यूरोप के पहले संस्कृत प्रोफेसर बने थे। आर्य शब्द ढूँढ लिया गया था, और कम से कम दो भाषा-वैज्ञानिकों ने यह तर्क दिया कि भारत से सभ्यता के तार जुड़े हो सकते हैं। यह शब्द पारसी ग्रंथ ‘अवेस्ता’ में नस्ल रूप में अधिक स्पष्ट था, जहाँ ‘आर्यनम वेज:’ को ईरानी पूर्वजों का स्थल बताया गया।
जब मैक्समूलर ने भाषाओं का साम्य दिखा कर एक आर्य समूह की भाषाओं की बात कही, यह शब्द लपक लिया गया। न सिर्फ़ जर्मनों ने, बल्कि भारतीयों ने भी लपक लिया। भारतीय सवर्ण इसे नस्लीय श्रेष्ठता से जोड़ने लगे, और दलित स्वयं को आर्य-आक्रमण से पीड़ित मूल निवासी कहने लगे। जो इसका विरोध कर रहे थे, वे एक ऐसे सिद्धांत का विरोध कर रहे थे जो दिया ही नहीं गया था!
दयानंद सरस्वती ने आर्यों को भारतीय-तिब्बती मूल का बताया, वहीं बाल गंगाधर तिलक सीधे स्कैंडिनैविया से तार जोड़ने लगे, और ज्योतिबा फुले ने निचली जातियों को मूल निवासी मानने पर बल दिया। ब्रह्म-समाज के बुद्धिजीवियों जैसे केशवचंद्र सेन और रामतनु लाहिरी आदि और ईसाई मिशनरियों ने इस आर्य आक्रमण सिद्धांत को स्थापित करने में सहयोग दिया।
जब जर्मनी एक एकीकृत देश बन गया, और वहाँ का नस्लीय राष्ट्रवाद उफान मारने लगा तो मैक्समूलर को अपनी ग़लती माननी पड़ी। उन्होंने जर्मनी में स्ट्रासबर्ग स्थित कैसर विलियम विश्वविद्यालय उद्घाटन अवसर पर कहा,
“अगर कोई व्यक्ति आर्य नस्ल, आर्य रक्त, आर्य केश, आर्य आँखों की बात करे तो वह बहुत बड़ा पाप कर रहा है। वह भाषा विज्ञान को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है (dolicocephalic dictionary and brachycephalic grammar)। काले से काला हिंदू भी एक गोरे स्कैंडिनैवियाई की अपेक्षा भाषा विकास-क्रम में पूर्वज है।”
अब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। भले आर्य नामक नस्ल स्वयं मैक्समूलर के शब्दों में निराधार थी; लेकिन, भारत में आर्य-द्रविड़, आर्य-शूद्र नस्लीय द्वंद्व अनंत काल तक चलता रहेगा। भारत-विशेषज्ञ मैक्समूलर कभी भारत नहीं आए, मगर यह आग तो लगा गए। यह और बात है कि इस आग की जद में उनकी जर्मनी पहले खाक हो गयी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
दक्षिण भारत का इतिहास (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/12/4.html
#vss
No comments:
Post a Comment