कौन कहे समय से ,
कौन पकडे लगाम वक़्त की ,
अरे यार , ज़रा आहिस्ता चल ,
यार ज़रा चल धीरे धीरे !
न हो मिलन की आस, तो ,
हों , विरह के गीत ही ,
कुछ धुंध रहे , भरम रहे ,
जो कुछ भी रहे , ज़रा देर रहे !!
आदत है , सपनों में जीने की ,
सपनों के अंतराल में ,
झूठ और सच के बिखरे भ्रम में ,
तब तक , जब तक, हम हैं,
जीते ही रहते हैं, बस !
टूटा यह भ्रम तो,
बिखर जायेंगे ,सारे मंज़र ,
कभी घनी अंधेरी रात ,
कभी सूरज का उपहार ,
अजीब धूप छाँव है !
उम्मीद
और नाउम्मीदी के बीच ,
उसे जोड़ता एक पुल, सपनों का,
रंग भरे कितने कलैडियोस्कोप ,
न रहे ख्वाब, न बचे उम्मीद तो ,
कुछ भी न रहे ! कुछ भी न बचे !
थक चुका पथिक अब ,
श्रांत
,क्लांत , आतुर - विश्राम,
अब कौन कहे , समय से ,
अरे यार, ज़रा आहिस्ता चल !!
यार ज़रा चल धीरे धीरे !!!
( विजय शंकर सिंह )
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