उनके रूप आकार के विषय में कुछ और बातों का उल्लेख जरूरी है। धान की तरह अनेक किस्में थी और उनका रंग भी लाल से लेकर भूरे तक हुआ करता था, फिर भी इसके रंग और चमक के विषय में कुछ प्रभाव चंद्रमा के रंग का भी है जिससे इसका निरंतर भेद-अभेद किया जाता रहा है (बभ्रवे नु स्वतवसे ऽरुणाय दिविस्पृशे)। इसका सामान्य रंग भूरा माना गया है। इसके ऊपरी सिरे पर पत्तियों का गुच्छ सा तना रहता था (सहस्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम् ।। 9.5.10), इसके तने की गाँठों पर आँखे होते थे जिनसे नए अंकुर निकलते थे। इनके कारण सोम को नृचक्षु (सहस्रधारे वितते पवित्र आ वाचं पुनन्ति कवयो मनीषिणः । रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुह स्पशः स्वञ्चः सुदृशो नृचक्षसः ।। 9.73.7) और सहस्राक्ष (प्र सोमाय व्यश्ववत्पवमानाय गायत । महे सहस्रचक्षसे ।। 9.65.7; प्र गायत्रेण गायत पवमानं विचर्षणिम् । इन्दुं सहस्रचक्षसम् ।। 9.60.1
) और इसलिए परम ज्ञानी (आ मन्द्रं आ वरेण्यं आ विप्रं आ मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम् ।। 9.65.29) । परन्तु जहाँ इस तरह की महिमा गान और श्रद्धा निवेदन, अर्चन आदि के प्रसंग हैं वहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यहाँ धरती से एक मधुपूरित पौधे की नहीं, चन्द्रमा की महिमा का गान किया जा रहा है। नशीले पोधे की खोज में लोगों का दिमाग एक दिशा में इस तरह चल गया कि यह जानते हुए कि ऋग्वेद में प्राकृतिक शक्तियों को काव्य का विषय बनाया गया है, सूर्य की लगभग आधा दर्जन नामों से आराधना की गई, चन्द्रमा जैसे महत्वपूर्ण आलोकित पिंड के ऊपर कोई सूक्त क्यों नहीं? यह तब और भी नासमझी भरा लगता है कि उन्हीं कृतियों में स्पष्ट लिखा है कि सोम चन्द्रमा है। इसकी गहराई से खोज की जानी चाहिए थी पर यह ऋग्वैदिक कूटविधान को समझे बिना संभव न था । चंद्रमा पानी के भीतर है और पंख लगा कर आकाश में दौड़ लगाता है (चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि )। यह भी अधूरी बात हुई, उसका वानस्पतिक रूप तो आया नहीं, दूसरे पक्ष भी छूट गए। वह आकाश में है, धरती पर है, ओषधियों में है, पर्वत पर है और जल में है (या ते धामानि दिवि या पृथिव्यां या ओषधीषु पर्वतेषु अप्सु, तेभिर्नो विश्वैः सुमना अहेळन् राजन्त्सोम प्रति हव्या गृभाय, ऋ.1.91.4)। मैं यह नहीं मान पाता कि वे पश्चिमी अध्येता वैदिक कृतियों को मुझसे कम जानते थे इसलिए वे दार्शनिक संकल्पना, भौतिक साद्श्य और कर्मकांडीय खींचतान से अनभिज्ञ थे इसलिए इस कूटविधान को समझ न पाए, जिसे मैं समझ और समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। मैं उनमें अगण्यों से भी अगण्य हूँ। जिन्होंने एक अजनवी भाषा को इतना गहन और विवेचनात्मक अध्ययन किया कि पहली बार हमारे वैदिक, प्राकृत, आधुनिक भाषाओं के व्याकरण लिखे, कोश तैयार किए, कृतियों का संपादन, संशोधन और अनुवाद किया, आधुनिक भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया. भले अपनी जरूरतों से ही सही ( मुहावरा बदल कर कहें तो जैसे भौतिक आधिपत्य कायम किया था वैसे ही ज्ञान-व्यवस्था पर एकाधिपत्य कायम किया), उनके अधिकृत ज्ञान के अंशभागी भारतीय विद्वानों के सामने भी अपने को अगण्य मानने वाला यह दुस्साहस कैसे कर सकता है। सच तो यह है कि वे उतने टुच्चे साबित न हुए जितने मार्क्सवादी इतिहास के नाम पर अनाड़ियों ने सब कुछ तहस-नहस करने वाले साबित हुए। बोडेन पीठ की स्थापना किन सरोकारों से हुई थी, इसे आप मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश की भूमिका में देख सकते हैं, यह इस पीठ पर विकीपीडिया के बोडेन चेयर के लेख में भी पा सकते हैं:
The position of Boden Professor of Sanskrit at the University of Oxford was established in 1832 with money bequeathed to the university by Lieutenant Colonel Joseph Boden, a retired soldier in the service of the East India Company. He wished the university to establish a Sanskrit professorship to assist in the conversion of the people of British India to Christianity, and his bequest was also used to fund scholarships in Sanskrit at Oxford.
वे जो कुछ जानते थे उसका उतना अंश ही सार्वजनिक करते थे जो ईसाइयत के प्रचार के लिए उपयोगी हो। वह कोश में हो, अनुवाद में हो, या विवेचन में हो। मेरी धृष्टता केवल इस सीमा तक है कि मैं, उन्होंने जो कुछ कहा है, उसे नहीं मानता पर उनके कहे के माध्यम से उन परतों को उभारने का प्रयत्न करते हुए जिस सत्य तक पहुँचता हूँ, उसे कहने का साहस रखता हूँ। साहस ज्ञान नहीं है, पर साहस के अभाव के कारण जो कुछ हम जानते, वह भी अज्ञान है। वह ईसाइयत के प्रचार में सहायक ज्ञान है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
सोम की पहचान (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/3_23.html
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