ऋग्वेद में पौधे का नाम नहीं आया। न आम का, न बबूल का। यहां तक की एक स्थल पर संकेत पीपल का मिलता है, परंतु प्रयोग है पत्तियों गह-गह वृक्ष - यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः संपिबते यमः । अत्रा नो विश्पतिः पिता पुराणाननु वेनति ।। 10.135.1 [यह ऋचा यम सूक्त में है, इसलिए ऐसा आभासित होता है कि उस समय भी पीपल के पेड़ की डाल पर पितरों के पीने के लिए घड़े में पानी (घड़ीघंट) लटकाने का चलन था।] वृक्ष का कई बार उल्लेख हुआ है परंतु कौन सा वृक्ष इसका पता नहीं चलता। अनाजों में केवल यव का नाम आया है, परंतु मोटे तौर पर सभी अनाजों का प्रतीक है। कहा गया है कि हे इन्द्र तुम घोड़े, गोरू, अनाज, धन- धान्य सभी के स्वामी और दाता (द्वार या माध्यम) हो [दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः।], यद्यपि एक छंद के नामकरण यव के आकार का भी पता चलता है। यह छंद है यवमध्या महाबृहती। इसके तीन चरण होते हैं, पहला और अंतिम छोटा और बीच का बड़ा।
सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवो ।
मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो
वित्तं मे अस्य रोदसी ।। 1.105.8
यव का सीधा अर्थ है, खाद्यान्न, सुयवस का अर्थ है हरा-भरा [सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था], यवस का अर्थ है जानवरों का चारा या घास [राया वयं ससवांसः मदेम हव्येन देवा यवसेन गावः] धन-धान्य से हम उसी तरह प्रसन्न हों जैसे हवि से देवगण और घास से गोरू। यव और यवस का भेद वैसा ही है जैसा घास और वरुण प्रघास का। वरुण प्रघास का अर्थ है अनाज जिनमें धान और जव का नाम आया है, पर ये अपनी ऋतुओं के सभी अनाजों के प्रतीक है। ठीक इसी तरह यदि केवल धान्य या यव का प्रयोग हो तो यह सभी अनाजों का प्रतीक होगा। ऋग्वेद में 10+2+5 अनाजों का उल्लेख है (मन्दामहे दशतयस्य धासेर्द्वियत्पञ्च बिभ्रतो यन्त्यन्ना । 1.122.13] । इनमें से किसी का अलग से नाम नहीं आया है। कुछ सरल चित्त के विद्वान यह मान लेते हैं कि यव को छोड़कर ऋग्वेद में अनाज का उल्लेख नहीं है इसलिए वह जो के अतिरिक्त कोई दूसरा अनाज नहीं उगाते थे। उनके विषय में हम केवल यही कर सकते हैं की उन्हें प्राचीन ग्रंथों की भाषा की समझ नहीं है फिर भी इतिहास लिखने का भारी भरकम काम उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। बलिदान होने का एक रास्ता अज्ञान से भी हो कर गुजरता है।
जो भी हो यदि ऋग्वेद में इक्षु शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है तो चिन्तित नहीं होना चाहिए क्योंकि किसी अन्य का भी नहीं हुआ है। लाक्षणिक रूप में गन्ना- गांठों वाला, है तो सोम के यष्ठि में गाँठें होती थीं [ग्रन्थिं न वि ष्य ग्रथितं पुनान ऋजुं च गातुं वृजिनं च सोम । 9.97.18]। गन्ने के दो नाम है। हिन्दी में इसके लिए ईख प्रचलित है, जो संस्कृत इक्षु से निकला है और यह ; भोजपुरी में ऊख/ऊँखि प्रचलित है। पहली नजर में आपको लगेगा ऊख ईख का तद्भव है। इक्षु भी वैदिक इषं (रस) , इषं ऊर्जं (शक्तिदायक रस) का संस्करण है जिसका प्रयोग सोम के लिए होता था [नृचक्षसं त्वा वयं इन्द्रपीतं स्वर्विदम् । भक्षीमहि प्रजां इषम् ।। 9.8.9]। ऊख किंचित अधिक पुराना है और ऋग्वेद के ऊक्ष से निकला है या संभव है ऊक्ष ऊख का संस्करण हो। ऊख का अर्थ हुआ रसीला, रस से भरा हुआ और जैसे इन्द्र के साथ वृष्टिदाता होने के कारण वृषा, वृषभ, रेतःसेक करने वाला भाव जुड़ गया उसी तरह उक्ष के साथ भी हुआ । इस दृष्टि से ऋग्वेद के विविध स्थलों पर इससे जुड़े शब्दों का सायणाचार्य ने जो अर्थ किया है उस पर ध्यान देना लाभकर होगा [उक्षणः (1.64.2) सेक्तारः; उक्षण्यन्तः (8.26.9) धनादिसेक्तारावात्मन् इच्छन्; उक्षण्युः (8.23.16) धनानां सेक्तामात्मानमिच्छन्; उक्षन्त (2.34.3) सिंचन्ति; उक्षन्तं (1.114.7) सेक्तारं युवानं; उक्षभिः (1.139.10) सेचकैः सोमैः; उक्षभिः (2.7.5) सेक्तृभिर्वलीवर्दैः; उक्षमाणं (2.2.4) सर्वतः सिंचतं वृष्टिजलं; उक्षमाणाः (4.42.4) सिंचन्तीः; उक्षमाणाः (5.57.8) हवींषि सेविताः; उक्षयन्त (6.17.4) सेचयन्तु; उक्षितः (5.8.7) सिक्तः; उक्षितं (1.114.7) गर्भरूपेण स्त्रीषु निषिक्तं; (2.16.1) सोमेन सिंचितं; उक्षितासः (1.85.2) अभिषिक्ताः]
सोम को मूज प्रजाति में उत्पन्न (मुंजनेजन) पौधा है और (वर्षवृद्ध) एक साल तक चलता था। वर्षवृद्ध का यह अर्थ भी किया जा सकता है कि बरसात के दिनों में इसमें तेजी से बाढ़ आती थी तो भी यह गन्ने के अनुरूप ही है।
यह नैसर्गिक रूप में पूरब के पर्वतीय ढलालों पर घास की तरह उगता था [क्षरन्तः पर्वतावृधः ।। 9.46.1] , क्योंकि इसे पानी तो अधिक चाहिए था पर पानी का ठहराव चाय की तरह इसके अनुकूल न थी। इसलिए प्राकृतिक रूप में यह मैदानी भाग में नहीं उगता था। यदि पर्वतावृध का अर्थ पोर पोर करके बढ़ने वाला करें तो भी गन्ने के अनुकूल ही होगा।
कृषि को, नियंत्रित अन्न उत्पादन के अग्रणी इन्द्र माने गए, आरंभिक प्रयोगों में असुरों द्वारा प्रताड़ित कृषिव्रतीनों ने जब पूर्वोत्तर के पहाड़ी भाग में पाँव जमाया तब कम से कम फसल तैयार होने तक यह उनके जीवन का प्रमुख सहारा बना। परंतु जब संख्या बढ़ने के कारण नई भूमि की तलाश में वे नीचे उतरे और कछारों को कास- कुश जलाकर खेती आरंभ की तो उस लता और उसके रस के लिए तरसते रहे। इसे मधु की तरह वे उन क्षेत्रों के आदिम जनों के माध्यम से प्राप्त कर सकते थे। बाद में जब वे पश्चिम की ओर खिसक गए तब भी सोम की आपूर्ति पूर्व की दिशा से होती रही। सोम पूर्व की दिशा से खरीदा जाता है (प्राच्यां दिशि सोमं क्रीणीत।) और इस खरीद के मोलभाव का एक अलग ही आख्यान इससे जुड़ गया है जिसमें सोमक्रयणी गो के अंशों में मोल भाव होता है। माप के जितने भी नाम हैं, वे अपने वजन, या विस्तार, या आधान के स्थिर मानदंड हैं। सेर/शेर शेर नहीं पुराने गो का नामभेद है और जैसे आधासेर, पौआ, अधपौआ और छटांक (षष्टदशांक) का मतलब शेर के दो, चार, आठ, सोलह टुकड़े कर के लेन देन करना नहीं होता उसी तरह गाय या किसी गोरू के माध्यम से लेन देन नहीं होता था। यह संभव नहीं था। यह एक मानदंड था, जो वजन में ठीक सेर के बराबर पढ़ता था या नहीं यह हम नहीं कह सकते, परंतु था एक माप की इकाई ही, जिसके विभाग हो सकते थे, और महत्तर माप भी जैसे कलश, द्रोण, इस पर इन लोगों को ध्यान देने की आवश्यकता नहीं थी जो भारतीय संस्कृति का गर्हित चित्रण करने के लिए कटिबद्ध थे। जो लोग उन्हें महा ज्ञानी मानकर अपने को ज्ञानी सिद्ध करना चाहते थे, उनसे हमें कोई शिकायत नहीं। वे अपनी महत्वाकांक्षा के कारण भौतिक रूप में जितने गुलाम थे, उससे अधिक गुलाम मानसिक रूप में बन चुके थे। मैं नहीं जानता, उनकी स्थिति में मैं स्वयं होता ओ मैं अपनी बात इतनी स्पष्टता और निर्भीकता से रख पाता या नहीं। हम तो आज भी गुलाम की तरह सोचते हैं, जो हमें गुलाम बनाए रहे और आगे भी बनाए रखना चाहते हैं उनके फैसलों के आगे, उनके मूल्यांकन के समक्ष घुटने टेक देते हैं।
जो भी हो, सारस्वत क्षेत्र में पहुंचने के बाद भी सोम पूर्व दिशा से ही खरीदा जाता रहा। आपको इस बात का ध्यान न होगा इस सोम को वृत्र कहा गया है, कारण यह तीन आवरण में सुरक्षित था, (त्रिवृत वै सोम आसीत्) , पत्तियों के दंड भाग का खोल, छिल्का और भीतर का फुफ्फुस) इसलिए इसे मधुकैटभ नाम के एक असुर के रूप में कल्पित किया गया। यदि आप मऊ के पुराने नाम मधुनाथभंजन से परिचित हों तो भी शायद इस बात से परिचित न हों कि तराई की आधुनिक शुगर मिलों की स्थापना से पहले आजमगढ़ शर्करा के देसावर व्यापार का केन्द्र था।
भगवान सिंह
( Bhagwan singh )
सोम की पहचान (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/03/2_22.html
#vss
बहुत सुन्दर लिखा। सत्य और सत्य। तथकथित विद्वानों की आंखे खोल देने वाला 👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏🙏 डा अखिलेश त्रिपाठी गणित विभाग आई टी कालेज, लखनऊ।
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