हमने पिछले लेख में देखा सोम में निसर्गजात मादकता नहीं थी, जैसी मादक खनिजों, रसायनों और वनस्पतियों में होती है। सोमलता में या उसके रस में मादकता नहीं थी, इसके बाद भी, इसके रस को मादक बनाया जा सकता था, जो त्रिसंध्य या तिरोअह्न्य सोम से, [सर्गाँइव सृजतं सुष्टुतीरुप श्यावाश्वस्य सुन्वतो मदच्युता । सजोषासा उषसा सूर्येण चाश्विना तिरोअह्न्यम् ।। 8.35.20] प्रकट है। दुविधा हो तो पता लगाएँ कि रम, वाइन कैसे बनती हैं ।
वैदिक विवरणों की यह विशेषता है कि वे काव्यात्मक तो हैं परंतु तथ्यपरक भी हैं। उनको समझने के लिए उस युग की, यथासंभव, बैचारिक, संवेदनात्मक और कलात्मक पक्षों की पुनर्सर्जना करनी होगी, जो मेरे लिए भी संभव नहीं है।
सम, सिम,सोम, चन, चिन, सोन का अर्थ है जल। जल और जलेबी के नाते से समझ सकते हैं कि अधिकांश जलवाची शब्दों का प्रयोग रस और मधुरता के लिए किया गया है और प्यास से बेहाल हों तो इसके प्राणरक्षक रूप का भी पता चल जाएगा । सोम की नहीं, पय, पीयूष. अमृत, सुधा सभी का मूल अर्थ जल है। जल ही सबसे बड़ा धन है इसलिए धन के सभी पर्याय - अर्थ, द्रव्य, द्रविण, स्वर्ण, रजत, आदि - जलवाची हैं। जल में गतिशीलता के कारण चलने वाले एक प्राणी की संज्ञा को या गो है। जल के ही पर्यायों का प्रयोग ईश्वर के लिए किया गया है इसलिए को और गो का अर्थ देवता या ईश्वर भी है। तमिल का कोविल (देवालय) और कोपुरम् (गोपुरम्) में वही को/गो है जो बदले रूप में कावेरी और गोदावरी में है। यही अंग्रेजी के काऊ और संस्कृत के गो में।
ऋग्वेद के कवि जब कहते हैं उनकी उक्तियाँ नीहारमंडित हैं और इनकी व्याख्या करने से जिनकी जीविका चलती है वे भी इनके तरह तरह के अर्थ करते रहते हैं (नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति ।। 10.82.7) तो वे प्रयुक्त शब्दों की इसी अनेकार्थता का लाभ उठाते हुए अपनी रचना करते दिखाई देते हैं।
इस अनेकार्थ के कारण सोम जल का, उसके आदिम रूप का (रसो वै सः) जिससे समस्त सृष्टि हुई है उसका स्थान ले लेता है और तब हमारा सामना उसकी जिस महिमा से होती है उसे कोरी अतिरंजना मान लेते हैंः
परः दिवा पर एना पृथिव्या परः देवेभिरसुरैर्यदस्ति ।
कं स्विद्गर्भं प्रथमं दध्र आपः यत्र देवाः समपश्यन्त विश्वे ।। 10.82.5
तमिद् गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे ।
अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुः ।। 10.82.6
सोमेनादित्या बलिनो सोमेन पृथिवी मही ।
अथः नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितो ।। 10.85.2
सोमं मन्यते पपिवान् यत्संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणोविदुर्न तस्याश्नाति कश्चन ।। 10.85.3
पिता देवानां जनिता सुदक्षो विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्याः ।। 9.87.2
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः ।
जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः ।। 9.96.5
यह सोम बदल कर गो हो जाता है अश्व (अश् - जल, अश्नाति - पीता/खाता है) और ये सभी जिन आशयों में रूढ़ हैं, उनसे अलग, द्रव्य, खनिज पदार्थ के आशय में प्रयुक्त होने लगते हैं। जल पर सभी जीव, वनस्पतियाँ, मनुष्य, धन, भूमि की उपज निर्भर करती है, इसलिए वर्षक देवता इन्द्र के लिए जो प्रशस्तियँ हैं, वे भी इससे जुड़ जाती हैं। वैसे भी इन्दु और इन्द्र में निकटता है।
पवस्व गोजिदश्वजिद् विश्वजित्सोम रण्यजित् । प्रजावद्रत्नमा भर ।। 9.59.1
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः ।। 9.2.10
आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः ।। 9.41.4
परि णो अश्वमश्वविद् गोमदिन्दो हिरण्यवत् । क्षरा सहस्रिणीरिषः ।। 9.61.3
असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः ।। 9.64.4
सोमरस माधुर्य में सर्वोत्तम होने के कारण मधु और मधुमत्तम कहा जाता है। मधु संज्ञा अपनी मिठास के कारण महुए के फूल को भी मिली है और शहद के लिए भी इसका प्रयोग होता है। महुए और सोम रस का मादक पेय तैयार करने के लिए प्रयोग होता था इसलिए इसके विपाकों और विकारों को भी मधु की संज्ञा प्राप्त है।
बच्चों की लोरियों में चाँद को मामा के रूप में कल्पित किया जाता है और उनको दूध की कटोरी के साथ बुलाया जाता है। यह विश्वास बहुत प्राचीन है। वैदिक काल से पहले भी दो धारणाएं लोक विश्वास का अंग बन चुकी थी। एक चंद्रमा में अमृत भरा हुआ है । और देवता उसका पान करते हैं जिसके कारण चंद्रमा का आकार घटता चला जाता है परंतु चंद्रमा के पास अमृत है इसलिए वह पुनः जीवित हो जाता है और बढ़ते हुए पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
सोम लता की महिमा बखानने के लिए यह कथा गढ़ी गई कि पहले सोम आकाश में था (दिवि वै सोम आसीत्) । वहां से इसे कैसे धरती (कद्रू) ने गायत्री छंद (सुपर्णी) को एक पहेली समझने की चुनौती देकर पराजित करके धरती पर लाने को बाध्य किया, इसका आख्यान है। वाद (शास्त्रार्थ) में पराजित होने वाला जीतने वाले का दास बन जाता था और उऋण होने के लिए उसे विजेता की शर्त पूरी करनी होती थी। धरती ने गायत्री (सुपर्णी) से आकाश से सोम को लाने को कहा। गायत्री श्येनी/श्येन का रूप धारण करके उड़ी और अमावस्या की रात को सोम को, जो दो सुनहले प्यालों (कृष्ण चतुर्दशी की चंद्रलेखा और शुक्ल दूज की चंद्रलेखा) के बीच बंद होने के कारण किसी को दिखाई नहीं देता, जब सोम पर पहरा देने वाले गंधर्वों या सूर्य की किरणों का भी ध्यान उसकी ओर न था, चुरा कर ले भागी। बाद में जब गंधर्वों को चूक का पता चला तो उन्होंने गायत्री का पीछा किया, उन्होंने उस पर तीर चलाएं जिससे एक पंख कट कर नीचे गिर गया। वह सुपर्ण या पलाश बना इसलिए पलाश भी सोम के ही समान है (सोमो वै पर्णः, शत. 6.5.1.1; सोमो वो पलाशः, कौषी. 2.2.)। इस कथा का आभास ऋग्वेद से भी मिलता है इसलिए सोमलता की पहचान में इस कहानी की प्रतीकात्मकता को भी स्थान दिया जाना चाहिए:
इन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्ण आ यं ते श्येन उशते जभार ।
यस्य मदे च्यावयसि प्र कृष्टीर्यस्य मदे अप गोत्रा ववर्थ ।। 3.43.7
अथा भर श्येनभृत प्रयांसि रयिं तुंजानो अभि वाजमर्ष ।। 9.87.6
राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम् ।
अप्सु द्रप्सो वावृधे श्येनजूतो दुह ईं पितादुह ईं पितुर्जाम् ।। 9.89.2
जब हम सोम की पहचान करना चाहते हैं तो लोकप्रचलित आशय – सौम्य (शान्तचित्त) , ते. सोम्मु – धन, हिं, सोमी/सूम/सोमड़ा – कंजूस सभी को एक साथ रख कर विचार करना चाहिए।
एक रोचक पहलू यह भी है कि सोम जो इतना मूल्यवान पौधा था उसकी पहचान किसी को क्यों न रही। यदि सोम गन्ना था और इसकी खेती लंबे समय से होती आ रही है तो इसे सोम के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया गया। प्राचीन कृतियों में सोम के अभाव में कतिपय विकल्पों का विधान है। इसके दो अर्थ निकलते हैं। एक, वैदिक काल में समाज सोम से परिचित था। बाद में यह लुप्त हो गया। अब वैकल्पिक ओषधियों से काम लिया जाने लगा। आशय यह कि वेद के समय में सोमपायी समाज जिस भौगोलिक क्षेत्र में था, वह वहाँ से हट आया था। भारत में कई अंचलों में अन्य वनस्पतियों का सोम के रूप में प्रयोग किया जाता था। भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में सोमवल्ली के नाम से एक भिन्न पौधे का उल्लेख मिलता है, जो नाम से सोमवल्ली भले हो वेद में वर्णित सोम के लक्षणों से उसका मेल नहीं। सोम की पहचान जिन पादपों से की गई है इसकी बहुत अच्छी पड़ताल राजेश कोछड़ (Rajesh Kochhar, The Rgvedic Soma Plant, in 'Medicine and Life Sciences in India', published by Centre for Studies in Civilization, 2001, New Delhi) ने की है जो इंटरनेट पर सुलभ है और इस विषय में गहरी रुचि रखने वाले उसे देख सकते हैं और यह भी देख सकते हैं कि समय-समय पर इसकी पहचान किन पादपों से की गई है, और पहचान करने वाले सभी के विषय में इतने आश्वस्त रहे हैं कि किसी को खारिज नहीं किया गया क्योंकि पहचान करने वालों की रुचि इस प्रश्न को सुलझाने की जगह आर्यों के आदि देश की तरह उलझा कर रखने में और इसे सोमपायियों के भारत पर आक्रमण का प्रमाण बनाने में थी। जब हम सोम को गन्ना कहते हैं तो उसमें इन सभी का निराकरण होना आवश्यक है।
( क्रमशः )
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
भाग (1)
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