क्या लाभकारी मूल्य के बिना सार्वजनिक वितरण प्रणाली सम्भव नहीं है? क्या लाभकारी मूल्य के बिना खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ेंगी? क्या लाभकारी मूल्य के बिना उत्पादकता घटेगी?
धनी किसान-कुलक आन्दोलन के पीछे घिसट रहे कई नरोदवादी कम्युनिस्ट और कौमवादी ''मार्क्सवादी'' लाभकारी मूल्य की मांग को जायज़ ठहराने के लिए यह दावा कर रहे हैं कि लाभकारी मूल्य को बचाना ज़रूरी है क्योंकि उसके बिना सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं बचेगी। कुछ का कहना है कि लाभकारी मूल्य से खाद्यान्न की कीमतें नीची और स्थिर रहती हैं। कुछ अन्य का दावा है कि लाभकारी मूल्य के कारण खेती में उत्पादकता में बढ़ोत्तरी को बढ़ावा मिलता है। क्या ये दावे सही हैं ? आइये तर्कों और तथ्यों के आधार पर इनकी पड़ताल करते हैं।
सबसे पहली बात: लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान औपनिवेशिक अंग्रेज़ सरकार द्वारा की गयी थी, हालांकि तब इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं कहा जाता था। यह एक प्रकार की फूड राशनिंग की व्यवस्था थी। आज़ादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना यानी कि 1951 से 1956 के दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम से इस व्यवस्था को चलाया और बढ़ाया गया। याद रहे, इस समय लाभकारी मूल्य का कोई तंत्र मौजूद नहीं था। इस दौर में इसकी पहुंच गांवों व शहरों के ग़रीबों तक बनाने का लक्ष्य रखा गया। यह उस समय पूंजीपति वर्ग की भी आवश्यकता थी क्योंकि उस समय उसे एक स्वस्थ और कुशल कार्यशक्ति की भी आवश्यकता थी। यही कारण था कि इसी दौर में तमाम तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों की भी स्थापना की गयी।
खाद्य सुरक्षा एक बड़ा मसला था। लेकिन खेती में सामन्ती अवशेष और साथ ही छोटी किसान अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन और निम्न उत्पादकता के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थी और उसे खाद्यान्न का आयात तक करना पड़ रहा था। यह स्थिति औद्योगिक विकास को भी अवरुद्ध कर रही थी। यही कारण था कि 1960 के दशक में 'हरित क्रान्ति' की शुरुआत की गयी और उसकी प्रारंभिक प्रयोग भूमि पंजाब को बनाया गया। इसमें पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना की एक अहम भूमिका थी। अभी तक लाभकारी मूल्य की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था की शुरुआत होती है 1966-67 में। इसके ज़रिये धनी किसानों और कुलकों के नये उभरते पूरे वर्ग को भौतिक प्रोत्साहन दिया जाता है। उस समय एक दौर में यह भौतिक प्रोत्साहन खेती में पूंजीवादी विकास और पूंजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी था। लेकिन हर ऐसे कदम की अपनी स्वतंत्र गति बन जाती है। 1970 के दशक में ही धनी किसानों व कुलकों के वर्ग की बढ़ती आर्थिक शक्तिमत्ता राजनीतिक जगत में उनकी बढ़ती दख़ल के रूप में अभिव्यक्त होना शुरू हो चुकी थी। चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और शरद जोशी जैसे नेता उभर रहे थे और राष्ट्रीय पैमाने पर पूंजीवादी राजनीति में उनकी आहट महसूस की जा रही थी। 1980 का दशक आते-आते यह ग्रामीण बुर्जुआजी (धनी पूंजीवादी भूस्वामी, पूंजीवादी फार्मर, पूंजीवादी काश्तकार, कुलक) पूंजीपति वर्ग का एक शक्तिशाली धड़ा बन चुकी थी। निश्चित तौर पर, यह औद्योगिक-वित्तीय पूंजीपति वर्ग की बराबरी नहीं कर सकता था, लेकिन यह इतना शक्तिशाली हो चुका था कि देशव्यापी पैमाने पर कुल विनियोजित अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए सौदेबाज़ी और राजनीतिक दबाव पैदा कर सके। इस खेतिहर बुर्जुआजी के पास यह क्षमता इसलिए भी मौजूद थी क्योंकि यह एक मज़बूत वोट बैंक था। वजह यह थी कि गांवों में ग़रीब और निम्न मंझोले किसान भी इन धनी किसानों-कुलकों का ही अनुसरण करते थे और आज भी उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा करता है। इसकी कई वजहें हैं, जिन पर हम पहले लिख चुके हैं।
ग्रामीण बुर्जुआजी की बढ़ती आर्थिक व राजनीतिक शक्तिमत्ता के साथ 1980 के दशक से एक प्रक्रिया शुरू हुई। कृषि सब्सिडी का बड़ा हिस्सा जो कि अब तक नीतिगत तौर पर कृषि अवसंरचना मसलन नहरों आदि के नेटवर्क के निर्माण पर ख़र्च किया जाता था, वह लाभकारी मूल्य को सुनिश्चित करने पर ख़र्च किया जाने लगा। 1992 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के व्यवस्थित ध्वंस की शुरुआत की गयी। पहले सार्वभौमिक पीडीएस को बदलकर रीवैम्प्ड पीडीएस बनाया गया, जिसका लक्ष्य था कुछ विशेष इलाकों में सार्वजनिक वितरण करना, जैसे दूर-दराज़ के पहाड़ी इलाके, ग्रामीण पिछड़े इलाके, इत्यादि। 1997 में ढांचागत समायोजन के कार्यक्रम को अपनाए जाने के बाद इस आरपीडीएस को टार्गेडेटेड पीडीएस में बदल दिया गया जिसके अनुसार ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए सार्वजनिक वितरण को पीडीएस का लक्ष्य बना दिया गया। तब से ग़रीबी को परिभाषित करने की एक पूरी नयी राजनीति की भी शुरुआत हुई। तब से पीडीएस को हर नयी सरकार निष्प्रभावी बनाने के एजेण्डा पर लगातार काम कर रही है, चाहे वे वाजपेयी सरकार रही हो, मनमोहन सिंह सरकार के दो कार्यकाल और विशेष तौर पर दूसरा कार्यकाल रहा हो, या फिर मोदी सरकार का कार्यकाल हो। लेकिन लाभकारी मूल्य में इनमें से ज़्यादातर सरकारों के कार्यकाल में निरन्तर कभी धीमी तो कभी तेज़ बढ़ोत्तरी होती रही है। मोदी सरकार ने भी 2019 तक लाभकारी मूल्य में लगातार बढ़ोत्तरी की थी। यदि लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कोई कारणात्मक सम्बन्ध होता तो इस पूरे दौर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली मज़बूत हुई होती, न कि कमज़ोर।
वास्तव में, पीडीएस लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से पहले से मौजूद था और उसके बाद भी मौजूद रह सकता है। पीडीएस को सरकार अलग कारणों से ख़त्म और निष्प्रभावी बना रही है क्योंकि यह मज़दूर वर्ग की मोलभाव की क्षमता को कम करेगा और संकटकाल में पूंजीपति वर्ग को मदद पहुंचाएगा। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को पूंजीपति वर्ग अलग वजहों से ख़त्म करना चाहता है, क्योंकि यह औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है और लम्बी दूरी में मुनाफे की दर में गिरावट का कारण बन सकता है। लेकिन यह भी सच है कि लाभकारी मूल्य का मज़दूर वर्ग और ग़रीब व निम्न मंझोले किसान वर्ग को भी नुकसान होता है। अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली लाभकारी मूल्य के वजह से मज़बूत होती तो उसे 1992 से लेकर 2019 के बीच मज़बूत होते जाना चाहिए था, लेकिन यही वह दौर है जब एमएसपी बढ़ता रहा है और पीडीएस तबाह होता रहा है।
तीसरी बात, सरकारी ख़रीद के लिए लाभकारी मूल्य की व्यवस्था कोई पूर्वशर्त नहीं है। दुनिया के लगभग हर पूंजीवादी देश में किसी न किसी प्रकार की फूड राशनिंग या पीडीएस की प्रणाली है, चाहे वह सार्वभौमिक हो या टार्गेटेड। लेकिन इनमें से अधिकांश देशों में एमएसपी की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार अपने खाद्य रिज़र्व के लिए या तो बिडिंग जैसी कोई प्रक्रिया करती है, या बाज़ार से ख़रीद करती है।
अब भारत के ठोस उदाहरण से भी इसे समझ लेते हैं।
बिहार में 2006 में एमएसपी की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अगर सरकारी ख़रीद की पूर्वशर्त एमएसपी है, तो बिहार में सरकारी ख़रीद को और कम हो जाना चाहिए था। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है? नहीं! उल्टे यदि दर की बात करें तो बिहार में खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद पंजाब और हरियाणा से कहीं तेज़ गति से बढ़ी है। 2005 से 2015 के बीच बिहार से गेहूं की सरकारी ख़रीद 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 11.28 प्रतिशत हो गयी, जबकि इसी दौर में पंजाब से गेहूं की ख़रीद 66.79 प्रतिशत से कम होकर 63.84 प्रतिशत पर और हरियाणा में 62.58 प्रतिशत से घटकर 58.38 प्रतिशत पर आ गयी। इसी दौर में बिहार में धान की सरकारी ख़रीद 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 21.4 प्रतिशत हो गयी, जबकि पंजाब में धान की सरकारी ख़रीद 82.7 प्रतिशत से 76.1 प्रतिशत रह गयी। निश्चित तौर पर, अभी भी सरकारी ख़रीद निरपेक्ष तौर पर पंजाब और हरियाणा में अन्य किसी भी राज्य से कहीं ज़्यादा है और उसके ठोस राजनीतिक कारण और कुछ आर्थिक कारण भी हैं। लेकिन यदि एमएसपी ख़त्म होने से सरकारी ख़रीद का कोई कारणात्मक रिश्ता होता तो बिहार में सरकारी ख़रीद घटनी चाहिए थी और पंजाब व हरियाणा में बढ़नी चाहिए थी। लेकिन तथ्य कुछ और दिखला रहे हैं।
स्पष्ट है कि सरकारी ख़रीद और पीडीएस का एमएसपी से कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है। यह कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास वे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कर रहे हैं, जो जानते हैं कि एमएसपी की मांग ग़रीब-विरोधी मांग है लेकिन वे मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का आलोचनात्मक विश्लेषण करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, या फिर धूर्त किस्म के कौमवादी ''मार्क्सवादी'' कर रहे हैं, जिन्हें मार्क्सवाद का 'क ख ग' भी नहीं आता और अब वे पंजाब में उन्हीं नवनरोदवादियों व कौमवादियों की गोद में बैठने को तैयार हैं, जिनका पिछले 15 वर्षों से वे विरोध करते आ रहे थे। उनके आश्चर्यजनक यू-टर्न के सदमे से इन अनपढ़ कौमवादी ''मार्क्सवादियों'' के कार्यकर्तागण ही अभी ठीक से नहीं उबर पाए हैं।
अब आते हैं इस तर्क पर कि लाभकारी मूल्य से खाद्यान्न की कीमतें निम्न और स्थिर रहती हैं। यह तर्क भी हमारे कौमवादी अनपढ़ ''मार्क्सवादी'' आजकल काफी दे रहे हैं। यह भी तथ्यत: ग़लत है। सच यह है कि लाभकारी मूल्य के कारण खाद्यान्न की कीमतों पर एक बेहद ऊंचा फ्लोर लेवल तय हो जाता है, जिस पर वे अपेक्षाकृत रूप से स्थिर रहती हैं, इस रूप में कि कीमतें उस फ्लोर लेवल से नीचे आ ही नहीं सकती हैं। ये अनपढ़ ''मार्क्सवादी'' कहते हैं कि आलू-प्याज़ पर भी लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए और फिर उनकी कीमतें स्थिर हो जाएंगी। बिल्कुल! लेकिन बेहद ऊंचे स्तर पर जिससे नीचे वे आ ही नहीं पाएंगी। अभी निश्चित तौर पर आलू, प्याज़ आदि की जमाखोरी और सट्टेबाज़ी के कारण बीच-बीच में उनकी कीमतें ज़्यादा बढ़ती हैं, लेकिन उसकी वजह एमएसपी की गैर-मौजूदगी नहीं है। अगर ऐसा होता तो चावल और गेहूं की कीमतें व्यापक जनता के लिए बिहार में पंजाब के मुकाबले ज़्यादा होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है।
बिहार में सितम्बर 2017 में चावल की कीमत 10.460 रु/किलो थी। जून 2014 में यह कीमत सर्वाधिक ऊपर 17.620 रु/किलो थी और वहीं जनवरी 1996 में यह सर्वाधिक नीचे 7.4 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान बिहार में खेतिहर मज़दूरों के लिए चावल की औसत उपभोक्ता कीमत 10.455 रु/किलो रही। पंजाब में सितम्बर 2017 में चावल की कीमत 32.38 रु/किलो रही है। जून 2017 में यह कीमत सर्वाधिक ऊपर 32.42 रु/किलो थी और नवम्बर 1995 यह सर्वाधिक नीचे 8.39 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान पंजाब में खेतिहर मज़दूरों के लिए चावल की औसत उपभोक्ता कीमत 14.02 रु/किलो रही। अब खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की उपभोक्ता कीमतों के आंकडें देख लेते हैं।
बिहार में सितम्बर 2017 में आटे की कीमत 20.04 रु/किलो थी। जनवरी 2017 में यह कीमत सर्वाधिक ऊपर 21.7 रु/किलो थी और वहीं मई 1996 में यह सर्वाधिक नीचे 5.75 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान बिहार में खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की औसत उपभोक्ता कीमत 12.335 रु/किलो रही। वहीं पंजाब में सितम्बर 2017 में आटे की कीमत 21.95 रु/किलो रही है। जनवरी 2017 में यह कीमत सर्वाधिक ऊपर 23.62 रु/किलो थी और मई 1996 यह सर्वाधिक नीचे 4.98 रु/किलो थी। नवम्बर 1995 से सितम्बर 2017 के दौरान पंजाब में खेतिहर मज़दूरों के लिए आटे की औसत उपभोक्ता कीमत 11.31 रु/किलो रही। नवीनतम बाज़ार कीमतों को देखें तो स्पष्ट है कि एपीएमसी मण्डी खत्म होने के बावजूद बिहार में आटे की बाज़ार कीमत पंजाब के मुकाबले कम है।
हम देख सकते हैं कि एमएसपी की व्यवस्था का कोई सीधा रिश्ता कीमतों को नीचे रखने से नहीं है। उल्टे यदि कोई रिश्ता है, तो वह यह हैं कि एमएसपी अधिक होने से व्यापक ग़रीब मेहनतकश आबादी, जिसमें कि ग़रीब किसान भी शामिल हैं, के लिए खाने-पीने की चीज़ें और उनके नियमित आहार जैसे कि चावल व गेहूं महंगे हो जाते हैं।
इसके अलावा, महंगाई को बढ़ाने वाले अन्य कारक भी होते हैं। मिसाल के लिए जमाखोरी के ज़रिये भी बाज़ार कीमतों को प्रभावित किया जाता है। विशेषकर सब्जि़यों व फलों जैसेअपेक्षाकृतजल्दी नष्ट होने वाले कृषि उत्पाद, जिनका भण्डारण मंहगा पड़ता है, उनकी जमाखोरी बड़े व्यापारियों द्वारा की जाती है और इस वजह से भी इनकी कीमतें काफी अस्थिर रहती हैं। एमएसपी की व्यवस्था से बस यह होता है कि उन कृषि उत्पादों की कीमतें कमोबेश स्थिर होती हैं, जिनपर आमतौर पर यह मिलता है, लेकिन यह कीमतें कृत्रिम रूप से काफी ऊंचे स्तर पर स्थिर रहती हैं। इसके अलावा दलहन की खरीद भी एमएसपी पर होती है लेकिन पिछले 14-15 वर्षों में इनकी बाज़ार कीमतों में भी काफी अस्थिरता देखी गयी है।
इसके अलावा, सरकार के पास गेहूं व चावल के सैंकड़ों टन का रिज़र्व होने के बावजूद सरकार उसे सड़ा देना या कम्पनियों को बेच देना पसन्द करती है, क्योंकि लाभकारी मूल्य पर होने वाली ख़रीद के बाद उसे इस ख़र्च की पूर्ति भी करनी होती है। यही वजह है कि खाद्यान्न के भारी रिज़र्व के बावजूद भारत में खाद्य असुरक्षा दुनिया के बेहद ग़रीब देशों से भी कहीं ज़्यादा है। इसकी वजह भी ग्रामीण बुर्जुआजी को एमएसपी के रूप में दी जा रही कृत्रिम रूप से ऊंची मुनाफ़ा दर है। एमएसपी व्यापक लागत के ऊपर दी जाने वाली 40 से 50 प्रतिशत की शुद्ध मुनाफा दर को सुनिश्चित करती है। कृषि क्षेत्र में न सिर्फ उसमें पैदा होने वाला कुल मूल्य रुकता है, बल्कि एमएसपी के कारण अन्य क्षेत्रों से मूल्य खेतिहर बुर्जुआजी को स्थानान्तरित होता है। यही वजह है कि एमएसपी के कारण खेती उत्पादों की कीमतें कृत्रिम रूप से ऊंचे स्तर पर फिक्स हो जाती हैं।
लुब्बेलुबाब यह कि एमएसपी के कारण खाद्यान्न सुरक्षा नहीं बढ़ती, बल्कि खाद्यान्न असुरक्षा बढ़ती है, ग़रीबों के लिए खाद्यान्न की कीमतें बढ़ती हैं, और उनका जीवन स्तर नीचे जाता है क्योंकि उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च हो जाता है।
अब आखिरी (कु)तर्क पर आते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लाभकारी मूल्य के कारण उत्पादकता बढ़ती है। यह तर्क भी किसी तथ्य पर आधारित नहीं है बल्कि लाभकारी मूल्य की मांग का समर्थन करके धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठने की आतुरता से पैदा हुआ तर्क है। हम फिर से उन दो राज्यों की तुलना करते हैं जहां लाभकारी मूल्य की सबसे सुचारू व्यवस्था है और जहां लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। 2004 से 2015 के बीच पंजाब में खेती के क्षेत्र की कुल वृद्धि दर रही 1.61 प्रतिशत जबकि इसी दौर में बिहार में खेती के क्षेत्र की कुल वृद्धि दर रही 4.7 प्रतिशत। यानी तीन गुना ज़्यादा वृद्धि दर। यही दौर है जबकि बिहार में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था समाप्त होने के असर स्पष्ट तौर पर दिखलाई देने लगे थे। यह सच है कि निरपेक्ष अर्थों में अभी भी बिहार में खेती में उत्पादकता पंजाब और हरियाणा के मुकाबले बहुत पीछे है लेकिन तुलना किसी भी दिये गये दौर में दरों की ही हो सकती है और वही रुझान की सही तस्वीर बता सकता है। बहुत-से लोग अवसरवादी तरीके से बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन के पूरे इतिहास पर मिट्टी डालकर कह रहे हैं कि ऐसा इसीलिए है क्योंकि वहां एमएसपी की व्यवस्था खत्म हो गयी! एमएसपी की व्यवस्था तो 2006 में खत्म हुई है, उसके पहले क्या बिहार की खेती की विकास दर की कोई तुलना पंजाब या हरियाणा से हो सकती थी? सच यह है कि बिहार में खेती और आम तौर पर अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन के दीर्घकालिक ऐतिहासिक कारण हैं। इन सारे कारणों के विश्लेषण व व्याख्या की बजाय समूचे मामले को लाभकारी मूल्य में अपचयित कर देना या तो बौद्धिक बेईमानी से पैदा हो सकता है, या फिर मूर्खता के कारण। एक दौर में पूंजीवादी धनी फार्मरों के वर्ग को भौतिक प्रोत्साहन के तौर पर लाभकारी मूल्य देना और उत्पादकता बढ़ाने के लिए, मशीनीकरण के लिए और पूंजी-सघन खेती के लिए प्रेरित करने की पूंजीवादी अर्थों में एक भूमिका और प्रासंगिकता थी। यह प्रासंगिकता 1970 के दशक के अन्त से पहले से समाप्त हो चुकी थी। आज ऐसे तर्क का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है कि लाभकारी मूल्य से ही उत्पादकता बढ़ेगी, जैसा कि बिहार का उदाहरण साफ़ तौर पर दिखलाता है। उत्पादकता बढ़ने के लिए पूंजीवादी विकास होना आवश्यक है और यह पूंजीवादी विकास लाभकारी मूल्य के बिना भी हो सकता है और हुआ भी है। उल्टे आज लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पूंजीवादी विकास को ही बाधित कर रही है, ताकि डेढ़-दो करोड़ धनी व उच्च मध्यम किसानों को कृत्रिम रूप से ऊंची लाभ दर मुहैया कराई जा सके।
इसलिए ये तीनों ही दावे, कि एमएसपी के बिना पीडीएस नहीं बचेगा, एमएसपी के बिना खाद्यान्नों की कीमतें ऊंची हो जाएंगी, और एमएसपी के बिना उत्पादकता नहीं बढ़ेंगी, तथ्यों के सामने ढेर हो जाते हैं। वास्तव में, ये धनी किसानों-कुलकों की एक ग़रीब-विरोधी मांग, यानी लाभकारी मूल्य की मांग, के लिए हो रहे आन्दोलन के नेतृत्व की गोद में बैठने, या उस शामिल-बाजे में शामिल होने के लिए उन कम्युनिस्टों द्वारा और कौमवादी ''मार्क्सवादियों'' द्वारा गढ़े जा रहे कुतर्क हैं, जो साहस के साथ एक सर्वहारा वर्गीय अवस्थिति नहीं अपना पा रहे हैं और जो अन्दर-ही-अन्दर जानते हैं कि ये मांग व्यापक ग़रीब मेहनतकश आबादी के खिलाफ़ जाती है। अब वे इसका समर्थन कैसे करें? इसी के लिए ये सारे कुतर्क गढ़े जा रहे हैं।
(श्रृंखला की अगली कड़ी: क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन फासीवाद-विरोधी आन्दोलन है?)
( अनुभव सिन्हा )
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