किसी आन्दोलन का वर्ग-चरित्र कैसे निर्धारित होता है?
मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन का समर्थन करने वाले कई कम्युनिस्ट संगठन एक तर्क यह दे रहे हैं कि चूंकि इस आन्दोलन में ग़रीब और मंझोले किसानों की एक तादाद भी आ रही है, इसलिए यह ग़रीब और मंझोले किसानों का भी आन्दोलन है।
यह तर्क ग़लत है। क्यों? किसी आन्दोलन का चरित्र उसमें आने वाली भीड़ से तय नहीं होता है। जो यह नहीं समझता वह राजनीति और विचारधारा की भूमिका भूल चुका है और भोण्डी भौतिकवादी बात कर रहा है, जो उसी को सच मानता है जो दिखता है। लेकिन जैसा कि मार्क्स ने कहा था, अगर जो दिखता है वही सच होता तो विज्ञान की कोई ज़रूरत नहीं होती।
फिर सवाल यह उठता है कि किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र तय कैसे होता है? किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र सबसे पहले उसकी मांगों के चार्टर से तय होता है, जिसका अध्ययन आपको यह बताता है कि वह किन वर्ग हितों की नुमाइन्दगी कर रहा है, उसकी राजनीति क्या है, उसके नेतृत्व का चरित्र क्या है और उसकी विचारधारा क्या है। आन्दोलन में कौन-कौन से वर्गों के जनसमुदाय नुमाइन्दगी कर रहे हैं, ये उसके वर्ग चरित्र के विश्लेषण में उपरोक्त कारकों के निर्धारण के बाद केवल एक सहायक कारक हो सकता है, और अपने आप में वह किसी भी आन्दोलन के बारे में कुछ नहीं बताता। इसको कुछ मिसालों से समझें।
यदि किसी आन्दोलन का चरित्र उसमें आने वाली भीड़ से तय होता है, तो ग़रीब किसान, लम्पट सर्वहारा, यहां तक कि शहरी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा भी कारसेवा और राम मन्दिर आन्दोलन में भी जा रहा था। कारसेवकों की भीड़ में आपको कोई धनपति बिरले ही मिलता। अधिकांश लोग मेहनतकश वर्गों और टुटपुंजिया वर्ग के निचले संस्तरों से, जिन्हें हम अक्सर समाजशास्त्रीय भाषा में निम्न मध्य वर्ग कह देते हैं, आने वाले ही मिलते। तो क्या इसके आधार पर आप कह सकते हैं कि राम मन्दिर आन्दोलन मेहनतकश वर्गों का एक आन्दोलन था? नहीं! क्योंकि उस आन्दोलन की राजनीति और विचारधारा एक प्रतिक्रियावादी राजनीति और विचारधारा थी, और राजनीतिक वर्ग चेतना के अभाव में असुरक्षा, अनिश्चितता और बेरोज़गारी से श्रान्त-क्लान्त व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय साम्प्रदायिक फासीवादी प्रचार और उन्माद में बह रहा था। यह एक ऐसा आन्दोलन था जो कि बड़ी इजारेदार पूंजी और आम तौर पर संकट के दौर में पूंजीपति वर्ग की सेवा करता था, वर्ग संघर्ष की धार को कुन्द करता था, अस्मितावादी और साम्प्रदायिक राजनीति के ज़रिये असल मुद्दों को नेपथ्य में धकेलता था, व्यापक मेहनतकश आबादी के सामने एक नकली शत्रु पैदा करता था और इस रूप में पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग की हिफ़ाज़त करता था। इसलिए यह आन्दोलन बड़ी पूंजी के हितों की सेवा करने वाला टुटपुंजिया प्रतिक्रियावादी आन्दोलन था।
निश्चित तौर पर, मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन कोई साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आन्दोलन नहीं है, न ही यह कोई धुर दक्षिणपंथी आन्दोलन है। लेकिन यह आन्दोलन भी कोई मेहनतकश जनता के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करता है। सीधी-सी बात है: जो उजरती श्रम का शोषण कर मुनाफ़ा कमाते हैं और इसी पर उनकी अर्थव्यवस्था टिकी है, और वे जो अपना उजरती श्रम बेचते हैं, यानी ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा (छोटे और सीमान्त किसान), उनके हित एक समान नहीं हो सकते। लाभकारी मूल्य की मांग उनकी साझा मांग भी नहीं है क्योंकि ग़रीब और सीमान्त किसानों के पास आम तौर पर बेचने योग्य इतना बेशी उत्पाद बचता ही नहीं है कि वे खाद्यान्न के प्रमुख रूप से विक्रेता हों, बल्कि वे खाद्यान्न के प्रमुख रूप से ख़रीदार हैं। ये छोटे और सीमान्त किसान कुल किसान आबादी में 92 प्रतिशत हैं और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से उन्हें नुकसान होता है, फ़ायदा तो बहुत दूर की बात है। जो खेतिहर मज़दूर हैं जिनकी तादाद अब भारत के गांवों में किसानों से ज़्यादा हो चुकी हैं, उन्हें तो लाभकारी मूल्य बढ़ने का सीधे-सीधे नुकसान होता है। यानी, लाभकारी मूल्य का कुल फ़ायदा केवल 6 प्रतिशत धनी किसानों व कुलकों को मिलता है, जिनको राजकीय संरक्षण के तौर पर मिलने वाली इस कृत्रिम मुनाफा दर की कीमत पूरा मेहनतकश वर्ग चुकाता है और एक दूसरे अर्थ में बड़ा औद्योगिक-वित्तीय पूंजीपति वर्ग भी चुकाता है, जिसकी वजह से वह लाभकारी मूल्य को समाप्त करना चाहता है। मामला काफी-कुछ इंग्लैण्ड के मक्का कानूनों (corn laws) जैसा है।
सभी जानते हैं कि मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: लाभकारी मूल्य पर ही केन्द्रित है। शुरू में कुछ लोग इस तथ्य को नकार रहे थे, लेकिन छह दौर की वार्ताओं के बाद, उनके लिए भी यह दावा करना मुश्किल हो गया है। खैर, लाभकारी मूल्य की यह मांग मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न मंझोले किसानों और आम तौर पर मेहनतकश ग़रीब आबादी की मांग है ही नहीं। ये सभी जानते हैं, लेकिन साहस का अभाव तमाम कम्युनिस्टों को इस मुद्दे पर सही अवस्थिति अपनाने से रोक रहा है। कई लोग गोलमाल बात कर रहे हैं कि ''हां, ये मांग तो धनी किसानों की ही मांग है, लेकिन अभी मोदी सरकार को चुनौती मिल रही है इसलिए हमें इसका साथ देना चाहिए'' या ''एमएसपी तो ग़लत है लेकिन ज़रूरी है क्योंकि एमएसपी ख़त्म हो गया तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सरकारी ख़रीद ख़त्म हो जाएगी'' (इसका खण्डन हम इस श्रृंखला की अगली किश्त में आंकड़ों और तथ्यों के साथ करेंगे)। असल बात यह है कि क्रान्तिकारी साहस का अभाव और एक गहरा निराशाबोध और पराजयबोध है, जो किसी भी गुज़रती ट्रेन पर सवार हो जाने के लिए इन कम्युनिस्टों को मजबूर कर रहा है।
आखिरी में एक बेहद अहम सवाल: मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के समर्थन में पलक-पांवड़े बिछाने वाले तमाम कम्युनिस्ट उस समय चुप क्यों रहे जब ये ही ''क्रान्तिकारी'', ''फासीवाद-विरोधी'' कुलक और धनी किसान अभी तीन-चार महीने पहले ही खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर सीलिंग फिक्स कर रहे थे? यह परिघटना सभी की निगाह में थी। पंजाब के कम्युनिस्ट ग्रुपों की निगाह में भी थी। सभी जानते थे कि लॉकडाउन के समय श्रम आपूर्ति कम हो गयी थी, जिसके कारण औसत खेतिहर मज़दूरी बढ़ रही थी। उसके बढ़ने पर तो धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें और खापें बुलाकर सीलिंग लगाई ताकि खेतिहर मज़दूरों से कम मज़दूरी देकर काम कराया जा सके। लेकिन अपने उत्पाद के दाम पर वे एक सरकारी फ्लोर लेवल चाहते हैं! यानी, खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी जब आपूर्ति बढ़ने की वजह से घटे, तब किसान मुक्त बाज़ार के नियम के पुजारी बन जाते हैं, लेकिन अगर आपूर्ति के मांग से कम होने पर वह बढ़े तो वह उस पर सीलिंग लेवल फिक्स करते हैं, लेकिन अपने उत्पाद की कीमतों के लिए वे सरकार से एक फ्लोर लेवल चाहते हैं, और वह भी लागत का 150 प्रतिशत, यानी लागत के ऊपर 50 प्रतिशत का मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला फ्लोर लेवल! लेकिन अपने आपको मज़दूर वर्ग का हिरावल और समूची मेहनतकश जनता (मजदूर वर्ग, ग़रीब और निम्न मंझोले किसानों, निम्न मध्य वर्ग) का नेतृत्वकारी कोर बताने वाले हमारे नरोदवादी और कौमवादी कम्युनिस्ट ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों के साथ कुलकों व धनी किसानों द्वारा किये जाने वाले इस बर्ताव पर चुप रहते हैं। यह एक दक्षिणपंथी अवसरवाद नहीं तो और क्या है? ये कम्युनिस्ट ग्रुप लेनिन और स्तालिन की कार्यदिशा पर हैं, या फिर बुखारिन की दक्षिणपंथी अवसरवादी कार्यदिशा पर जिसने कुलकों को ''अमीर बनो!'' का नारा दिया था? यह तर्कशील पाठक स्वयं निर्णय करें।
आज कम्युनिस्ट शक्तियों का तो यह कार्यभार था कि वह ग़रीब, सीमान्त व निम्न मंझोले किसानों को यह बताते कि निश्चित तौर पर कारपोरेट पूंजी (जो और कुछ नहीं है बल्कि बड़ी इजारेदार पूंजी है) हमारी दुश्मन है, लेकिन ग्रामीण पूंजीपति वर्ग (धनी किसान व कुलक वर्ग) हमारा उससे कम दुश्मन नहीं है। सिवाय राजनीतिक जनवादी मांगों के धनी किसानों व कुलकों व उनके संगठनों के साथ, या आम तौर पर छोटे पूंजीपति वर्ग व उनके संगठनों के साथ, हमारा कोई मोर्चा नहीं बन सकता है। मिसाल के तौर पर, हम किसी भी रूप में राजकीय दमन के खिलाफ हैं, हम राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के हनन के खिलाफ हैं, हम सीएए-एनआसी के मुद्दे पर उनके साथ मोर्चे के पुरज़ोर समर्थक हैं। लेकिन लाभकारी मूल्य की मांग कोई जनवादी अधिकारों की मांग नहीं है, बल्कि ग्रामीण पूंजीपति वर्ग की आर्थिक मांग है, जो कि वह कुल विनियोजित बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए बड़े इजारेदार पूंजीपति वर्ग के समक्ष उठा रहा है। इस पर किसी भी प्रकार का मोर्चा नहीं बन सकता है। ग़रीब व निम्न मंझोले किसान तथा खेतिहर मज़दूर उजरती श्रम के बड़े और अपेक्षाकृत छोटे दोनों ही शोषकों के समक्ष अपनी वर्ग मांगों को पेश करेगा।
खेतिहर मज़दूरों की मांगों को समझना अपेक्षाकृत स्पष्ट और आसान है, लेकिन ग़रीब किसानों और निम्न मंझोले किसानों की मांगें क्या होंगी? इसी श्रृंखला की एक किश्त हम इसी प्रश्न पर पेश करेंगे: धनी किसानों-कुलकों की मांगों से अलग सीमान्त, छोटे और निम्न-मंझोले किसानों की मांगें क्या हैं?
(अगली किश्त में: क्या लाभकारी मूल्य का सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सरकारी ख़रीद से कोई कारणात्मक सम्बन्ध है?)
( अनुभव सिन्हा )
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