4. राक्षस और असुर में तात्विक भेद नहीं है। पहले में उत्पादन के निषेध का भाव है और दूसरे में पर्यावरण की रक्षा का।
5. यातुधान में आए यातु के लिए हम जादू का प्रयोग करते है और यह आदिम समाज के ओझा और सोखा थे। ये अलौकिक सिद्धि का दावा करते हुए सब कुछ जानने, इच्छित परिणाम अपनी सिद्धि के बल पर प्राप्त करने का दावा करते थे। योग, तंत्र, टोना ही नहीं, पुरोहिती यज्ञ, शैव, शाक्त, जैन तथा बौध मत के विकास में भी इनकी सीधी या तिर्यक भूमिका है, ऐसा हमारा विचार है। अपने प्राकृतिक स्रोत से वंचित किए जाने के बाद खेतिहर समाज में इस दावे के साथ उनके प्रवेश के बाद कि वे हारी-बीमारी, सूखे से अपने मंत्र के बल पर मुक्ति दिला सकते हैं, यज्ञ का नया रूप आया जिसमें खेती की नहीं जाती, उसका अभिनय करके उपज बढ़ाई जा सकती है और वृष्टि कराई जा सकती है, प्रजावृद्धि कराई (पुत्रेष्टि), शत्रु का नाश किया और राज्य/क्षेत्र-विस्तार किया और अपनी सुरक्षा खी जा सकती है।
6. दिति, अदिति और आदित्य -
दिति- उदार दानशीला प्रकृति, जो अपना सब कुछ देती है। अदिति - खेती के लिए साफ की गई धरती जो स्वतः कुछ नहीं देती, उल्टे जोताई , बीज,पानी, खाद की माँग करती है। उससे जो कुछ पाना है, अपने प्रयत्न से उत्पादित करना होता है। यह देवमाता है। आदित्य - खेती में बोआई के सही ऋतुकाल का ज्ञान होना जरूरी था। इसमें चूक होने पर कुछ नहीं मिलता था इसलिए कई बार खेती अपना चुके कुछ लोगों को निराशा में पिछली अवस्था में लौटना पड़ा। इन असफलताओं से चांद्र मास से अलग सौर वर्ष और मास का निर्धारण और ज्योतिर्विज्ञान का आरंभ हुआ इसे ही अदिति के द्वादश पुत्रों या सौर मासों की उत्पत्ति हुई। इसे ही कथा की भाषा में अदिति पुत्रों आदित्यों के रूप में रखा गया।
7. दानव, दैत्य, दनुज–
यदि आप दिति की दानशीलता वाले भाव को दानवी और उसके पुत्रों को दानशील अर्थात् दानव, दैत्य, दनुज कहें तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। असुर, राक्षस, दानव कृषिकर्मियों को डरावने लगते थे न कि इन शब्दों में ऐसा कोई भाव था। यह प्रचारके साधनों का कमाल है कि प्रकृति के साथ किसी तरह का हस्तक्षेप सहन न करने वालों को और इसके लिए किसी सीमा तक जाने वालों को, जो सच कहें तो आज के पर्यावरणवादियों के पूर्वज थे, इतने अमानुषिक रूप में चित्रित किया गया जितना सभ्यताद्रोही आतंकवादियों को भी नहीं किया जाता और आज के पर्यावरणवादियों को अनेक बार इसी रूप में चित्रित किया जाता है। दानव, दैत्य प्रशासन के लिए समस्या पैदा करने वाले आज के आंदोलनों, संगठनों और विचारधाराओं को जिनके मानवीय सरोकार से इन्कार नहीं किया जा सकता, सत्ता ओर उसके पीछे काम करने वाली शक्तियों के प्रचार के माध्यम से देखना और समझना चाहें तो वे राक्षसों जैसे लगेंगे भी और राक्षस (परिरक्षणवादी) हैं भी।
उनका दोष यह हे कि वे पर्यावरणवादी, समतावादी तो हैं पर इसके साथ ही, यथास्थितिवादी भी हैं। उनकी चलती तो मनुष्य पशुऔ के बीच एक पशु प्रजाति बना रह जाता। देव आरंभ से ही स्वार्थी थे यह कहना गलत होगा, परन्तु वे यथास्थितिवाद के विरोधी थे। यह एक मात्र गुण सभ्यता की सबसे संक्षिप्त परिभाषा है, इसे बहुत देर से पहचाना गया और गलत या तात्कालिक संदर्भ में ही समझा गया। शुंपीटर के सर्जनात्मक विध्वंश के मुहावरे से हम परिचित हैं वह पूँजीवाद के संदर्भ में मार्क्स की टिप्पणी पर आधारित थी, पर मार्क्स ने भी इसको उस गहराई से न समझा, जिससे भारत की मूल कृतियों से परिचित होने पर अपनी निजी व्याख्या से समझते। तब उन्हें पता चलता कि सर्जनात्मक विध्वंश मानव सभ्यता का अनिवार्य लक्षण है और यह मानवीयता की कसौटी पर भले खरा न उतरे, प्रगति की एकमात्र शर्त है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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