26 जनवरी को गणतंत्र दिवस का पर्व है। उस दिन किसानों ने तिरंगा फहराने और ट्रेक्टर रैली निकालने का निश्चय किया है। पर सरकार ने बजरिये अटॉर्नी जनरल सुप्रीम कोर्ट में यह बात रखी है कि इस पर रोक लगायी जाए।
हर नागरिक को गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने, संविधान की शपथ लेने, जुलूस आयोजित करने और सभा करने का अधिकार है। इस पर रोक लगाने की मांग, अदालत से करना हास्यास्पद है। हर घर, दुकान, प्रतिष्ठान पर तिरंगा फहराया जाता है। अगर शांति व्यवस्था की कोई अग्रिम अभिसूचना हो तो, सरकार को उससे निपटने के लिये पर्याप्त कानूनी अधिकार और शक्तियां प्राप्त भी हैं।
रघुवीर सहाय की एक कविता है,
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा
उनके
तमगे कौन लगाता है
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
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गणतंत्र दिवस के इस महान पर्व पर किसी को इस पर्व को मनाने से रोकने की याचिका अपने आप मे ही, लोकतंत्र विरोधी है। सरकार किसानों द्वारा गणतंत्र दिवस मनाने के लिये वैकल्पिक स्थान सुझा सकती है। शांतिपूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न हो, इसके लिए वह उचित आदेश निर्देश भी जारी कर सकती है। मौके पर पुलिस का ज़रूरी बंदोबस्त कर सकती है पर ऐसे आयोजनों पर रोक नहीं लगायी जा सकती है।
यह भी अजीब विडंबना है कि सरकार अब कानून व्यवस्था के मसले पर भी सुप्रीम कोर्ट से निर्देश लेने लगी है। सुप्रीम कोर्ट की भी प्रशासनिक मामलो में दखल देने की बढ़ती हुयी प्रवित्ति, न्यायपालिका के लिये शुभ संकेत नहीं है। यह काम सरकार और पुलिस का है कि वह ऐसे समारोह को कैसे रेगुलेट कराये और कैसे शांति बनाए रखे। इसमे अदालतो का कोई दखल होता भी नहीं है। क्या अदालत ऐसा कोई आदेश पारित कर सकती है कि गणतंत्र दिवस पर किसान कोई समारोह आयोजित न करें ? ऐसा संभव भी नहीं है और मुझे लगता है ऐसा कोई आदेश होगा भी नहीं। अधिक से अधिक, अदालत यह निर्देश जारी कर सकती है कि, जो भी आयोजन हो, वह शांतिपूर्ण हो। यह काम तो पुलिस बिना अदालत गए ही कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट या किसी भी अदालत को ऐसे मामलों में दखल देने की ज़रूरत ही नही है।
क्या कानून व्यवस्था बनाये रखने के कानूनी प्राविधान अब कमज़ोर पड़ने लगे हैं ? या सरकार कानून व्यवस्था बनाये रखने के मामलो में खुद को अक्षम पाने लगी है ? वर्तमान किसान आंदोलन 2020 के बारे में तमाम मत मतांतर के बावजूद इस एक बात पर सरकार सहित सभी मुतमइन हैं कि यह आंदोलन, 50 दिन बीतने, बेहद ठंड पड़ने, 65 किसानों की अकाल मृत्यु होने, खालिस्तानी, देशद्रोही, विभाजनकारी आदि शब्दो से गोहराये जाने के बाद भी, शांतिपूर्ण, व्यवस्थित और उच्च मनोबल से भरा हुआ है।
दरअसल सरकार जनता से मुंह चुरा रही है और आंदोलन से निपटने की यह कच्छप प्रवित्ति सरकार को आंदोलनकारियों के विपरीत खड़ा कर रही है। आंदोलन एक लोकतांत्रिक प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। आंदोलन के दौरान, शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिम्मेदार पुलिस की उन आंदोलनकारियों से कोई शत्रुता नहीं रहती है। आंदोलन भी हो, प्रतिरोध की अभिव्यक्ति भी हो जाय और शांति व्यवस्था बनी भी रहे, यही प्रशासन का दायित्व होता है। अगर आंदोलन, हिंसक हो जाता है तो, ऐसी समस्याओं से निपटने के लिये भी कानूनी प्राविधान हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट की ऐसे मामलों में दखल लेने और दखल देने की प्रवित्ति पर वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह ने, कुछ प्रमुख अखबारों की राय अपने फेसबुक वॉल पर संकलित की है। यह राय किसान आंदोलन से निपटने के लिये बनायी गयी चार सदस्यीय कमेटी के बारे में है। मैं संजय जी के उक्त लेख से कुछ अंश प्रस्तुत करता हूँ।
किसानों के साथ सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने जो किया वह जानने लायक है। गोदी मीडिया के दौर में यह बेहद मुश्किल है और इससे निपटने का तरीका है कि ज्यादा से ज्यादा अखबार देखे जाएं। शायद कहीं कुछ मिल जाए। आखिर उन्हें भी तो प्रतिस्पर्धा में रहना है। अंग्रेजी के चुनिन्दा मेरे पांच अखबारों में पहले पन्ने पर किसान आंदोलन से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जुड़ी खबरें और शीर्षक से बहुत कुछ पता चलता है।
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● इंडियन एक्सप्रेस
फ्लैग शीर्षक - अंतरिम आदेश, अगली सुनवाई आठ हफ्तों में
सीमा टटोलते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानून को स्टे किया, वार्ता के लिए पैनल के नामों की घोषणा की (मुख्य शीर्षक)
पैनल 10 दिनों में सुनवाई शुरू करेगा; एजी ने कहा कि विरोध प्रदर्शन में खालिस्तानियों ने घुसपैठ कर ली है (मुख्य खबर यानी लीड के ये तीन शीर्षक हैं) इसके साथ सिंघु बॉर्डर पर प्रेस कांफ्रेंस करते किसान नेताओं की एक तस्वीर तीन कॉलम में है।
लीड के साथ दो कॉलम की एक खबर है, सुप्रीमकोर्ट की कमेटी में ज्यादातर (सभी या चारो भी लिखा जा सकता था?) ने कृषि कानून का समर्थन किया है, विरोध प्रदर्शन को भ्रमित कहा है।
सिंगल कॉलम की एक और खबर का शीर्षक है, किसान यूनियनों ने स्टे का स्वागत किया पर पैनल को खारिज कर दिया : यह सरकार समर्थक है।
दो कॉलम में एक और खबर है, अदालत ने नए क्षेत्र में कदम रखा आधार, चुनावी बांड (के मामले में) अलग स्टैंड लिया था।
गौरतलब है कि लीड के शीर्षक में अंग्रेजी मुहावरा, ‘पुशिंग द एनवेलप’ का प्रयोग किया गया है। इसका उपयोग अक्सर अतिवादी आईडिया का उपयोग करने के लिए किया जाता है।
इंडियन एक्सप्रेस की इन खबरों के साथ एक और खासियत है कि सब बाईलाइन वाली हैं यानी इतने रिपोर्टर तो अखबार के लिए काम कर ही रहे हैं। अखबार ने पहले पन्ने पर यह भी बताया है कि संपादकीय पन्ने पर प्रताप भानु मेहता का आलेख, अ शेप शिफ्टिंग जस्टिस है। इसमें कहा गया है कि राजनीतिक विवाद में मध्यस्थता करना कोर्ट का काम नहीं है। अदालत का काम असंवैधानिकता या गैर कानूनी होना तय करना है। एक्सप्रेस के संपादकीय का शीर्षक है, आउट ऑफ कोर्ट (अदालत के बाहर)। इसके साथ हाईलाइट किया हुआ अंश है, नए कृषि कानून को लेकर सरकार और किसानों के बीच चल रहे विवाद को खत्म करने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिश अपनी समस्याएं खड़ी करेगी।
● हिन्दुस्तान टाइम्स
सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों को स्टे किया, सभी पक्षों को सुनने के लिए कमेटी बनाई (मुख्य शीर्षक है)। इससे संबंधित खास बातों की शीर्षक है, क्या सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से टकराव खत्म होगा? खास बातें के तहत चार बिन्दु हैं : (पहला) तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का लागू किया जाना अगले आदेश तक स्टे किया गया। (दूसरा) कानून बनाए जाने से पहले मौजूद रही एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की व्यवस्था बनी रहेगी। (तीसरा) किसानों की भूमि की रक्षा की जाएगी। (चौथा) चार सदस्यों का एक पैनल किसानों और सरकार को सुनेगा तथा सिफारिशें करेगा।
सरकार का रुख
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि कानून की आलोचना करने वाले किसानों ने एक भी ऐसे प्रावधान का उल्लेख नहीं किया है जो किसानों के लिए नुकसानदेह है। यह भी कहा कि किसानों के विरोध प्रदर्शन में खालिस्तानी घुसपैठ कर गए हैं और वे आईबी से आवश्यक जानकारी लेकर एक शपथपत्र दाखिल करेंगे।
किसान कहते हैं
किसानों ने स्टे का स्वागत किया है पर कानून वापस लिए जाने तक आंदोलन वापस नहीं लेंगे। गणतंत्र दिवस पर रैली - सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्टे देने की सरकार की अपील पर सुनवाई करने की सहमति दी। खंडपीठ ने एक नोटिस जारी किया है और निर्देश दिया है कि उसे किसान यूनियनों को दिया जाए। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट के हवाले से अखबार ने छापा है, भले ही हम शांति पूर्ण विरोध प्रदर्शन को नहीं रोक रहे हैं, हमारा मानना है कि कृषि कानून को लागू करना रोकने के इस असाधारण आदेश को कम से कम फिलहाल विरोध प्रदर्शन के उद्देश्य की प्राप्ति की तरह देखा जाएगा और कृषि संगठन इस बात के लिए प्रेरित होंगे कि अपने सदस्यों को यह यकीन दिलाएं कि वे वापस अपनी आजीविका चलाने में लगें ....।
● द टाइम्स ऑफ इंडिया
सुप्रीम कोर्ट ने नए कृषि कानूनों को टाल दिया, टकराव रोकने के लिए पैनल बनाया है (मुख्य शीर्षक)। इंट्रो है, (किसान) यूनियनों ने इस कदम को खारिज किया, सरकार के साथ वार्ता के लिए तैयार। इस मुख्य खबर के साथ तीन कॉलम के एक बॉक्स का शीर्षक है, समिति बनाने से विवाद की शुरुआत। इसमें एक कॉलम से कुछ ज्यादा में गाजीपुर बॉर्डर पर जमे किसानों की तस्वीर है। कैप्शन में लिखा है, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही थी तब भी किसान गाजीपुर सीमा पर डटे हैं। बॉक्स के शीर्षक के नीचे दो कॉलम से कुछ कम में सुप्रीम कोर्ट का कथन है, कोई भी ताकत हमें कमेटी बनाने से नहीं रोक सकती है। अच्छी समिति के संबंध में हम हर किसी की राय पूरी नहीं कर रहे हैं। अगर किसान अपनी समस्या का हल चाहते हैं तो वे समिति के समक्ष जाएंगे और अपने विचार रखेंगे। यह (कमेटी) न तो कोई आदेश जारी करेगी न आपको (किसानों को) सजा देगी। यह हमें अपनी रिपोर्ट देगी।
इसके साथ इस पर किसानों की प्रतिक्रिया है, किसान सरकार से चर्चा करना चाहते हैं न कि सुप्रीम कोर्ट से जहां किसान गए ही नहीं हैं। कमेटी के सदस्यों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे लिखते रहे हैं कि कैसे कृषि कानून किसानों के हक में हैं। हम अपना आंदोलन जारी रखेंगे। अखबार ने इसके साथ समिति के चारो सदस्यों का परिचय छापा है और बताया है कि चारो कृषि कानून का समर्थन कर चुके हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुख्य खबर के साथ सिंगल कॉलम की तीन खबरें छापी हैं और अंदर की खबरों का भी विवरण दिया है। पर शीर्षक सुप्रीम कोर्ट के आदेश से संबंधित नहीं लगता है इसलिए छोड़ रहा हूं।
● द हिन्दू
मुख्य खबर का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को लागू करना रोका। इंट्रो है, एक्सपर्ट पैनल किसानों की शिकायतें सुनेगी। इसके साथ दो कॉलम में एक खबर का शीर्षक है, किसान नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के पैनल को "सरकारी चाल" कहकर नामंजूर किया। अंदर और खबरें होने की सूचना है पर उनका शीर्षक नहीं है। पहले पन्ने की दोनों खबरें बाईलाइन वाली हैं।
● द टेलीग्राफ
सही या गलत, लोग यही कह रहे हैं, पैनल सरकार का और सरकार के लिए है। अखबार ने इसके साथ दो और खबरें छापी हैं। एक का शीर्षक चार लाइन में है। इसमें कहा गया है सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तानी घुसपैठ के दावे पर केंद्र से शपथपत्र छापा। एक सिंगल कॉलम की खबर का शीर्षक है, फोकस ट्रैक्टर रैली पर केंद्रित हुआ।
द टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर ही अपने नियमित कॉलम, 'क्वोट' में एक किसान, बलविन्दर सिंह का बयान छापा है, "कानून (को रोकने, टालने) पर स्टे देने का समय निकल चुका है। यह उसी समय कर दिया जाना चाहिए था जब हमने पंजाब और हरियाणा में अपना विरोध शुरू किया था।"
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आज लोहडी का पर्व है। यह पंजाब का सबसे लोकप्रिय पर्व है। आज दिल्ली सीमा पर यह उत्सव आंदोलनकारियों द्वारा उत्साह और धूमधाम से मनाया जा रहा है। जब यह पर्व मनाया जा सकता है तो यही किसान अपना राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस क्यों नहीं उत्साह और शांतिपूर्ण तरह से मना सकते हैं ?
अगर सरकार अपने नागरिकों को राष्ट्रीय पर्व मनाने के लिये उचित और सम्मानजनक व्यवस्था नहीं कर सकती तो ऐसी सरकार और चाहे और कुछ हो, लोकतंत्र के लिये समर्पित और प्रतिबद्ध सरकार तो नहीं ही कही जा सकती है। सरकार को तो चाहिए कि, कृषि कानूनो पर जो भी बातचीत किसान संगठनों से हो रही हो, वह उसे जारी रखे पर 26 जनवरी को किसानों के गणतंत्र दिवस समारोह के लिये अपने वार्ताकार मंत्रियों को भेजे और सरकार कम से कम इस आयोजन में तो गण के साथ नज़र आये।
( विजय शंकर सिंह )
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