Wednesday, 13 January 2021

शब्दवेध (69) ऐंगर

क्रोध में आग बबूला होने,  लाल पीला होने,  भड़क उठने, आपा खोने के मुहावरे हम प्रायः सुनते रहते हैं।  अंग्रेजी में भी ऐसा देखने को मिले, यह स्वाभाविक ही है। 

एंगर को निम्न रूप में परिभाषित किया गया है, anger (O.N. angre)- hot displeasure, often involving a desire for retaliation: wrath, inflamation. हमें इसके अर्थ से भी और इसकी ध्वनि से  भी धातुविद्या के जनक, ‘आग से पैदा होने वाले’ (आगरिया) जनों का स्मरण हो आता है ।  अग्नि स्वयं अंगिरा है. - त्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् ।) अन्यत्र हम यह निवेदन कर चुके हैं कि अंगिरा धातुविद्या के आविष्कारकों के प्रतीक हैं जिनका वैदिक सभ्यता में असाधारण माहात्म्य था।  धातु विद्या  के साथ पहली बार ऐसा हुआ कि टूटी हुई चीज को पिघलाकर या तपा कर पुनः वह चीज बनाई जा सकती थी। एक से कई चीजें बनाई जा सकती थीं जो पुराने उपादानों  के साथ संभव न था।  लकड़ी,  पत्थर  और मिट्टी के बर्तन एक बार टूट गए तो टूट गए। पत्तल फट गया तो फट गया।  इसके कारण धातु कर्म को आश्चर्यजनक उपलब्धि माना जाता था और धातुकर्मियों को चमत्कारी, जादुई शक्ति से संपन्न  समझा जाता था।  अथर्ववेद  का नाम इसीलिए अथर्व आंगिरस से जुड़ गया।  उसमें तंत्र मंत्र पर अनेक सूक्त हैं। ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद के अपने अनुवाद में केवल ऐसे ही सूक्तों को चुना था जिससे सिद्ध किया जा सके कि भारतीय अध्यात्म जादू-टोने  का ही दूसरा नाम था।

भारतीय सूत्रों के अनुसार इनका  प्रव्रजन ईरान की ओर हुआ था और वहां से आगे की ओर जिसकी पुष्टि ईरानी स्रोतों (अवेस्ता) से भी होती है।  हमारे अपने सूत्रों के अनुसार धातु विद्या के आविष्कार और प्रसार का यही इतिहास है  जिसे झुठलाने की कोशिश भी लगातार की जाती रही है। इसका सबसे ताजा उदाहरण “कमिंग ऑफ आइरन (इर्फान और 2003) रहा है।  परन्तु यह कोई नई बात नहीं थी। जब सभी यह मानने को बाध्य हो गए कि ‘आर्य’ बाहर से नहीं आए थे, तो डूबते के तिनके की तरह उन्हें यही सहारा बच रहा। इसमें जो ध्वनित था वह यह कि जब लोहा - धातुविज्ञान बाहर से आया था, तो आर्य भी आए थे।  ऐसा ही एक दूसरा लंगड़ा तर्क यह दिया जाता रहा है कि पहिए का सबसे पुराना साक्ष्य काकेशस क्षेत्र से मिला है, इसका आविष्कार आर्यों ने किया था क्योंकि पहिया, रथ और अश्व से संबंधित समूची शब्दावली भारतीय आर्य भाषा की है इसलिए आर्य यूरोप से बरास्ता मध्येशिया भारत आए होंगे (विटजेल). 

इनका सूचना संकलन कमाल का है पर भारतीय स्रोतों की जानकारी नदारद, या अधूरी और ऊटपटांग है। पौराणिक और नृतात्विक जानकारी का उपयोग तभी करते हैं जब उनसे इरादे पूरे होते हों, इसलिए उनका ज्ञान भार में और वे उस खूटे में बदल जाते हैं जिस पर ज्ञान का वह थैला लटका हुआ है,  “स्थाणुः अयं भारहारः किलाभूत अधीत्य वेदं अविजानाति योर्थः।  सचाई निम्न प्रकार है:

आर्यों ने कृषि कर्म की दिशा में पहल करने और उसके हिंसक विरोध के बाद भी इससे विचलित न होने, कृषिविद्या की समस्याओं का हल निकालने - खाद, पानी, बोआई का सही समय तय करने, पकाने और सुरक्षित रखने और अपने श्रम से तैयार की गई भूसंपदा और फिर दूसरी संपदाओं पर एकाधिकार करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। इससे सैद्धान्तिक विज्ञानों - गणित, ज्योतिष. रसायन, चिकित्सा और साहित्य का जन्म हुआ जिस पर उनका अधिकार बना रहा।  आदिम कृषि को छोड़ कर बाद का उनका सारा श्रमभार और उद्योग असुरों या कृषि का विरोध करने वालों पर रहा जो स्वयं कृषि करना तो पाप समझते थे पर कृषि उत्पाद पाने के लिए उन्हें तकनीकी सेवाएँ देने को तैयार थे। परिस्थितियों के दबाव में इनमें से कुछ को कृषिश्रम भी करना पड़ा।

जो काम करते हैं वे ही अपनी समस्याओं के समाधान का उपाय करते थे जिन्हें हम आविष्कार कहते हैं। भारतीय समाज के समस्त आविष्कार असुरों ने किया। पहिए और रथ का आविष्कार तीन समुदायों ने किया। एक की छाप इसके विकास के विविध चरणों पर आज भी बना हुआ है- रोड़ा, लोढ़ा, लढ़ा. लढ़िया, , रेढ़ा, रेढ़ू।  दूसर् की पह, पाहन और पहिया में और तीसरे का चर्क/शर्क, शर्करा, चक्र।  एक चौथा समुदाय था जो पत्थर के  उन्हीं घिसे गोलाकार  पिंडों को बट कहता था। ये पहिए का विकास नहीे कर सके पर अमूर्त संकल्पनाओं के विकास में - वृत, वृत्त, वर्तुल, वर्तमान, परिवर्तमान, बर्तन, वंटन, बाट आदि में इनका योगदान रोचक है। 

सबसे मजेदार बात यह कि जिस भाषाई समुदाय ने चक्के आविष्कार किया उसने रथ का आविष्कार नहीं किया, पर दोनों में से कोई उस बोली से संबंधित नहीं था जिसे आदिम भारोपीय या आर्यभाषा कहा जा सके । इसके विस्तार में न जाएँगे।  इतना ही पर्याप्त है कि इसका श्रेय भृगओं को दिया गया है जो असुर थे, कृषि कर्म से और य़ज्ञ के कर्मकांडीय रूप का, इन्द्र का तिरस्कार करने का साहस रखते थे।   

लोहे के आविष्कार के विषय में असुरों का मौखिक इतिहास (असुर कहानी), उत्कृष्ट लोहे के उत्पादन में उनकी दक्षता, और ऋग्वेद अवेस्ता (और अब इसमें ऐंगर शब्द के निर्वचन को भी जोड़ सकते हैं, कि धातुविद्या के जनक भारतीय असुर हैं जो वैदिक समाज के  पूज्य होने के स्तर तक समादृत उपजीवी थे। सभी स्रोत एक स्वर से इस तथ्य को रेखांकित करते है और धातुविद्या का प्रसार, जिसमें आगे चल कर लोहा भी शामिल हो गया, भारत से वैदिक समाज की व्यापारिक गतिविधियों क विस्तार के कारण हुआ। 

 लोहे का आविष्कार 1500 डिग्री सेंटीग्रेड का ताप पैदा करने की युक्ति से अधिक और धातु से कम संबंध रखता है। खनिज कोयले से पहले यह क्षमता इमली और बबूल के अंगारों में थी जिनकी सुलभता भारत में थी। यह अकारण नहीं है कि अंगिरस्तम के रूप में  औद्योगिक गतिविधियों में प्रयुक्त अग्नि को स्मरण किया गया है।

लेकिन सबसे विस्मय की बात यह कि जिस वाणी पर एकाधिकार ब्राह्मणों ने किया,  उसके अंकन या लेखन की युक्तियों का आविष्कार तक असुरों ने किया। भाषा को गो कहा गया है। ऋभुगण के आश्चर्यजनक कारनामों मे एक यह है कि उन्होंने माता (मात्रा चिह्न) सहित निश्चर्म गो का निर्माण किया। विश्वामित्र ने विधाता की सृष्टि के समानान्तर हर एक चीज की रचना की। ससर्परी वाक (कर्सिव राइटिंग) का ज्ञान उन्हें जमदग्नि ने दी (ससर्परी या जमदग्नि दत्ता)।  सभी संकेत एक ही यथार्थ को प्रस्तुत करते है। 

विकास के इस तनावपूर्ण रेखा की द्वन्द्वात्मकता को समझे बिना न तो भारतीय इतिहास को समझा जा सकता है न ही समाजरचना को न आज की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। राजनीतिक जहर अवश्य फैलाया जा सकता है।  यह सवाल रह जाता है कि जब वे उनकी श्रद्धाविभोर हो कर प्रशंसा करते थे तो समानता का व्यवहार क्यों नहीं करते। उन्हें यजीय और सोमपान का अधिकारी क्यों न मानते थे।  इसका संतोषजनक उत्तर तो नहीं दे सकता क्योंकि आर्थिक लाभ और भागीदारी का पक्ष मेरे सामने बहुत धुँधला है। परन्तु यज्ञ की भर्त्सना (हता मखं न भृगवः, वैदिक देव समाज की निंदा, इन्द्र की अवज्ञा (न इंद्रं देवं अमंसत) तो वे स्वयं करते हैं । विश्वास की भिन्नता स्थायी कलह और दुराव का कारण बना रहा।    

हम विषय से बहक अवश्य गए, पर इस समस्या पर आधिकारिक सूचना से बाबा साहब भी वंचित रह गए थे। आज के दलितों में अध्ययन का एक ही मानक रह गया है। जो वह जानते थे उसे जान लेना, मानते थे उसे मान लेना, जिसकी उन्हें जानकारी न थी वह था ही नहीं।  ऐसे मे इसका कोई लाभ होगा इसकी आशा नहीं पर पर जो मेरी जानकारी में है उसे अभिलिखित करना जरूरी था।

अब हम ऐंगर और अंगिरा पर आएँ। भारत में अंगराओं का असाधारण सम्मान है पर ईरान में देवों की तरह ये भी दुष्ट रूप में चित्रित किए गए।  
‘Which man does the Angra Manyu govern; or which is as eveil as that chief himself?’... why is this sinner, that cheif who opposes me as  Angra Mainyu opposed Ahur Mazda?’  Why must we abide the sight of these oppressors representing their lie demons and goddess?” SBES, Zendavesta    part III, p.110.

कारण यह है कि देवों और उनके खनिकर्मियाो के माध्यम ईरान के खनिज भंडारों का दोहन किया जा रहा था ।  इनमें बहुतों का स्थानीय समाज में समायोजन हो गया। सच किसी एक कोने मे रखा नहीं होता।  झूठ और फरेब के कोने अँतरे होते हैं।  सच जर्रे जर्रे में व्याप्त होता है। ए्क शब्द की मीमांसा में जाएँ, पूरा इतिहास आँखों के सामने आ जाएगा।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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