आप ही मेहरबाँ हुए ,
खफा भी हुए आप ही ,
इब्तेदा भी हुयी आप से ,
की इन्तेहा भी आप ने ,
उम्मीद जगा दी थी ,
मौसम बदल गया था ,
गुफ्तगू भी हुयी हम से ,
हाल -ए-दिल भी हुआ खूब ,
आया एक अजाब सा ,
हिल गए राब्ते सारे ,
जो न बनी थी अब तक ,,
दरक गयी बुनियाद वो ,
खामोश हम खड़े रहे ,
मिज़ाज -ए -मौसम देखा किये
घुमड़ उट्ठे , सैकड़ों सवाल ,
पा न सका उनके जवाब ,
हार कर मैं बैठ गया .
घेर लिया अँधेरे ने ,
अब न कहीं आफताब .
और न कहीं माहताब ,
अब न कोई रौशनी है ,
और न दर है कोई ,
नूर की एक किरण भी
कहीं दूर दूर तक नहीं ,
क्या खता हुयी हुज़ूर ?
कब ये सिलसिला हुआ ?
मुझको कुछ पता नहीं .
तुम ने कुछ कहा नहीं .
एक अजीब इज़तेराब है ,
न चैन है न होश है ,
दिल में कुछ कसक सी है ,
कैसे मैं बयान करूँ.
तुम न जाने हो कहाँ ,
न ली खबर, न दी खबर ,
आह यह सारी तोहमतें ,
उफ़ ये सारे इलज़ामात ,
कैसे कहूं अपनी बात ,
कैसे रखूँ अपना हक ,
कैसे सुनाये दास्ताँ ,
कैसे पाऊँ चैन मैं .
तुम न जाने हो कहाँ
तुम न जाने हो कहाँ .
© विजय शंकर सिंह
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