साल 2019 - 20 का बजट पेश किया जा चुका है। बजट किसी भी देश का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक दस्तावेज होता है। यह न केवल देश के आर्थिक स्वास्थ्य को बताता है बल्कि यह देश के आर्थिक सोच की दिशा को भी स्पष्ट करता है। यह भी पहली बार ही हुआ है कि बजट लाल कपड़े में लिपटा है। लाल और चटख रंग स्वभावतः खींचता बहुत है। पहले बजट के दिन वित्तमंत्री के हांथो में एक ब्रीफकेस लटकता रहता था, और मुस्कुराते हुये वित्तमंत्री संसद में तशरीफ़ ले जाने के लिये तत्पर रहते थे। इस बार लाल कपडे के ऊपर दमकता हुआ हमारा राजचिह्न है और मुस्कुराती हुयी वित्तमंत्री जी, कुछ उम्मीद बंधाती दिख रही हैं। कल जीन्यूज ने उन्हें लक्ष्मी के रूप में चित्रित किया था अब देखते हैं, कितनी कृपा करती हैं लक्ष्मी हम सब पर।
भारत में बजट पेश होने का इतिहास 150 साल से अधिक पुराना है। इतने बर्षो में बजट पेश किए जाने के समय से लेकर तौर तरीकों में बड़े स्तर पर बदलाव हुआ कई नई परंपराएं अस्तित्व में आई और कई कीर्तिमान भी स्थापित हुए। 7 अप्रैल 1860 को देश का पहला बजट ब्रिटिश सरकार के वित्त मंत्री जेम्स विल्सन ने पेश किया था। जबकि स्वतंत्रता के बाद देश का पहला बजट पहले वित्त मंत्री आर० के० षणमुखम चेट्टी ने 26 नवंबर 1947 को पेश किया इसमेँ 15 अगस्त 1947 से लेकर 31 मार्च 1948 के दौरान साढ़े सात महीनो को शामिल किया गया।
बजट शब्द का भी एक इतिहास है। बजट शब्द का आर्थिक लेखेजोखे से कोई सम्बंध नहीं है। जैसे आज लाल कपड़े में लपेट कर बजट भाषण लोकसभा में ले जाया जा रहा है, वैसे ही फ्रेंच क्रांति के बाद फ्रांस की नेशनल असेंबली में जो आय व्यय का लेखाजोखा पेश किया गया था वह चमड़े के एक थैले में रख कर असेंबली में लाया गया था। बजट लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है चमड़े का थैला। अब कागजों का पुलिंदा तो किसी न किसी थैले में ही रखकर लाया जाएगा, तो पहला बजट फ्रांस में उसी चमड़े के थैले में रखकर लाया गया जिसे लैटिन भाषा मे बजट कहते हैं। तभी से यह शब्द आयव्यय के लेखेजोखे के लिये रूढ़ हो गया।
सरकार जब भी बजट प्रस्तुत करती है तो उसमें आय और व्यय का तो व्योरा रहता ही है साथ ही, कुल प्राप्त राजस्व, कुल खर्च, फिस्कल डेफिसिट, राजस्व घाटा, आदि का उल्लेख रहता है। बजट के दूसरे दिन एक रुपये को प्रतीक मानकर किस मद में कितना पैसा व्यय होगा औऱ किस मद से कितना धन आयेगा इसका विवरण ग़ाफ़िक के साथ अखबार और मीडिया दिखाते रहे है। पर इस बार के बही खाते में यह महत्वपूर्ण बात गायब है। यह बजट जिस स्वरूप में पहले सदन में रखा जाता रहा है उस स्वरूप में नहीं है। सरकार को परंपरा बदलने और नयी परंपरा प्रारंभ करने का पूरा अधिकार है पर नयी परंपरा का नयापन जनहितकारी भी तो हो।
आय के जो साधन होते हैं वे राजस्व प्राप्तियां कहलाती हैं, और जनता के टैक्स, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही श्रोतों से प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त ऋण आदि भी होते हैं। इन्ही श्रोतों से प्राप्त धन से सरकार अपने खर्च की व्यवस्था भी करती है। व्यय में सबसे महत्वपूर्ण होता है सरकार की योजनाएं। ये योजनाएं ही कल्याणकारी राज्य और देश के विकास को दिशा देती है। विकास और जनकल्याणकारी योजनाएं सत्तारूढ़ दल के घोषणापत्र में जनता से किये वायदे के अनुसार होती हैं। बजट से ही यह पता चलता है कि सरकार अपने द्वारा किये गए वायदों के प्रति कितनी गंभीर है।
पर यह भी आश्चर्यजनक है कि, इसी बजट में मनरेगा, मिड डे मील, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर कितनी राशि आवंटित की गयी है और वह किस लक्ष्य के अनुरूप है उसका कोई खुलासा नहीं किया गया है। साथ ही, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, आदि पर किए जाने वाले व्यय का कोई स्पष्ट व्योरा नहीं दिया गया है। रक्षा और कृषि पर भी कुछ स्पष्ट नहीं लिखा गया है। ग्रामीण विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर, औऱ फूड सब्सिडी के बारे कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। बजट का अर्थ और उद्देश्य ही आय व्यय का व्योरा होता है, जिसे इस बजट में स्पष्ट नहीं किया गया है। बिना किसी स्पष्ट बजट प्राविधान के वित्तीय अनुशासन कैसे बनाये रखा जा सकेगा ?
सच तो यह है कि 2019 के लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने देशवासियों से कोई ठोस भौतिक वादे किये ही नहीं थे । यह चुनाव ही पुलवामा बालाकोट और उन्मादी राष्ट्रवाद पर हुआ था, इसीलिए यह केंद्रीय बजट सिर्फ देशी और विदेशी पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ा दिखता है। बजट की शुरुआती पंक्तियों में ही सरकार यह मानती है कि ‘इंडिया इंक’ यानि भारत की निजी बड़ी कंपनियां ‘रोजगार के सृजनकर्ता हैं’ और ‘राष्ट्र की संपदा के सृजनकर्ता हैं’ जिनके साथ मिल कर ‘आपसी विश्वास के साथ’ ‘उत्प्रेरक तीव्रगति’ से अर्थव्यवस्था का विकास किया जा सकता है। यह वाक्य ही इसे गिरोहबंद पूंजीवाद के समर्थन में खड़ा कर देता है।
कुछ मुख्य विंदु देखिये। ये विंदु बजट समीक्षकों के निष्कर्ष के आधार पर संकलित किये गए हैं।
* वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का यह पहला बजट बजट नहीं, भारत के सरकारी बैंकों और एनबीएफसी के लिये बेलआउट पैकेज है। बैंकों के पांच लाख करोड़ के एनपीए को बट्टे खाते में डालने के बाद सरकार कह रही है कि बैंकों के एनपीए में एक लाख करोड़ के क़रीब की कमी आई है। अर्थात् बैंकें पहले ही चार लाख करोड़ रुपये गंवा कर बैठी हुई हैं।
* भारत में पढ़ने के लिए विदेशी छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए वित्त मंत्री एक नई योजना स्टडी इन इंडिया के नाम से लायी हैं। वित्तमंत्री के अनुसार,
"भारत में उच्च शिक्षा का बड़ा केंद्र बनने की पूरी संभावना है. इसलिए मैं 'स्टडी इन इंडिया' कार्यक्रम का प्रस्ताव रखती हूं. ये कार्यक्रम विदेशी छात्रों को हमारे उच्च शिक्षा संस्थानो में पढ़ने के लिए आकर्षित करने पर ध्यान देगा। "
वित्त मंत्री की बात से ये जाहिर होता है कि 'स्टडी इन इंडिया' एक योजना है जिसे भविष्य में शुरू किया जाएगा। लेकिन 18 अप्रैल 2018 को सुषमा स्वराज ने एक वेबसाइट लॉन्च की थी और इसका नाम था 'स्टडी इन इंडिया पोर्टल'. पीआईबी की साइट पर यह प्रेस रिलीज मौजूद है. यह योजना मानव संसाधन मंत्रालय की है. इसे सुषमा स्वराज और पूर्व मानव संसाधन राज्य मंत्री सतपाल सिंह ने लॉन्च किया था। जो योजना एक साल पहले से चल रही है उसे यह कहना कि उसे अब शुरू किये जाने की योजना है, एक प्रकार की गलत बयानी है।
* बजट में 2018 को आधार वर्ष मानते हुये 2022 में किसानों की आय दुगुनी करने का जो लक्ष्य रखा गया है, उसका अर्थ हुआ चार सालों में कृषि विकास की औसत दर 18 % रहे, जो अभी केवल 2 % है। अतः यह लक्ष्य अभी एक सुनहरा सपना है।
* सरकार ने अपने पहले कार्यकाल ( 2014 -19 ) में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को जनआंदोलन मानते हुए आम बजट में इसपर विशेष ध्यान दिया था और, 2015 में स्वच्छ भारत सेस लगाया था। सरकार ने तीन साल के भीतर ही इस पर ₹ 6783 करोड़ बजट घटा दिया है।
* 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का इरादा सरकार का है। पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि सिंचाई के मद में सरकार ने 433 करोड़ रुपये की कटौती कर दी है।
* कृषि विशेषज्ञों ने बजट को निराशाजनक बताया है। भाकियू ने कहा है कि यह बजट किसानों की आशाओं के विपरीत है। बजट में किसानों के लिए विभिन्न योजनाओं का कोई जिक्र नहीं किया गया है। देश में किसानों को उम्मीद थी कि बजट में किसानों की आत्महत्याओं, फसलों की समर्थन मूल्य पर खरीद, मंडियों और भण्डारण की क्षमता को बढ़ाना, कृषि ऋण को दीर्घकालिक और ब्याज मुक्त किए जाने के लिए सरकार कदम उठाएगी। सरकार ने बजट में इन मुद्दों को छुआ तक नहीं। "
* वित्तमंत्री ने बजट भाषण में कहा है कि, 2024 तक सभी को पेयजल की सुविधा हर घर मे मिलेगी। लेकिन पेय जल की व्यवस्था करने वाले मंत्रालय का बजट 2017 - 18 की तुलना में 2019 - 20 में काफी कम कर दिया गया है।
* किताबों पर पहली बार 5 % कस्टम ड्यूटी लगायी गयी है ! अखबारी कागज़ पर भी टैक्स बढ़ाया गया है।
* शिक्षा, स्वास्थ्य, के बाद अब तेल यानी पेट्रोल डीज़ल पर सेस लगा दिया गया है। लेकिन सरकार ने कभी यह हिसाब नहीं दिया कि सालभर में किस मद में उसे कितना सेस मिला और वह सेस उस मद में कितना व्यय हुआ और उस सेस से उस मद की कितनी वृद्धि हुयी। सेस जनता दे रही है और उसका उपयोग कौन कर रहा है ?
* देनदारियों से भी कम बजट आवंटन की वजह से भारतीय वायुसेना और नौसेना के पास नए सौदों के लिए कोई पैसा नहीं है। पुरानी देनदारियां भी न चुका पाने का खतरा बढ़ गया है। वायुसेना को बजट आवंटन देनदारी से 8,111 करोड़ रूपया कम है, नौसेना का 2305 करोड़ कम है।
बजट की मुख्य बात है '5 ट्रिलियन डॉलर की इकनॉमी' । लेकिन यह बात 2025 के लिए कही जा रही है। अब मेक इन इंडिया, नमामि गंगे, स्टार्टअप इंडिया स्टैंडअप इंडिया, 100 स्मार्ट सिटी, जैसी योजनाओं का कोई उल्लेख ही नही है। बजट के एक समीक्षक ने इस वाक्य पर एक रोचक टिप्पणी लिखी है, उसे भी पढें। " फरवरी 2018 में इकनॉमिक टाइम्स अखबार ने ग्लोबल बिजनेस समिट (जीबीएस) आयोजित किया था प्रधानमंत्री मोदी भी वही मौजूद थे उस वक्त यस बैंक के एमडी और सीईओ राणा कपूर भी मंच पर मौजूद थे उन्होंने ही कहा था कि भारत जल्द ही 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने वाला है। ......"बीते कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था में काफी सुधार देखने को मिला है. प्रतिद्वंद्वियों को ही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था ने दिग्गज देशों को भी पीछे छोड़ा है. अब हम कमजोर अर्थव्यवस्था नहीं हैं. हम जल्द ही 5 ट्रिलियन डॉलर वाले क्लब का हिस्सा बनने वाले हैं."
बस यहीं से यह जुमला सरकार की ज़ुबान पर चढ़ गया।
यह भी उल्लेखनीय है कि " उस भाषण के कुछ समय बाद ही यस बैंक के एमडी और सीईओ राणा कपूर पर यस बैंक में भारी वित्तीय अनियमितता करने के आरोप लगे और उन्हें रिज़र्व बैंक ने डायरेक्टर के रूप में अगला एक्सटेंशन देने से इनकार कर दिया । कुछ महीने पहले ही रिजर्व बैंक बे राणा कपूर से उनको 2014-15 और 2015-16 में दिया गया 100 फीसदी प्रदर्शन बोनस वापस जमा करने को कहा है।"
अब ऐसे विवादों में घिरे आदमी की बातों से प्रेरणा लेकर सरकार यह नया सपना दिखा रही है जिसे 2025 में पूरा करने की बाते की जा रही है, जिसके लिए हर साल जीडीपी में 13 प्रतिशत की विकास दर चाहिए जबकि अगले साल 2019-20 की अनुमानित विकास दर स्वय सरकार ने ही, सिर्फ 7 प्रतिशत की रखी है ।
पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने एक लेख में बजट पर जो लिखा है, उसे भी पढें,
अक्तूबर 2018 में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के तेरह अर्थशास्त्रियों ने चौदह दस्तावेज तैयार किए थे जो 2019 में ‘वॉट द इकॉनोमी नीड्स नाउ’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। ये सभी अर्थशास्त्री, भारतीय या भारतीय मूल के हैं। इसके बाद डा. अभिजीत बनर्जी और डा. रघुराम राजन ने विचारों की बड़ी बारीकी से जांच और विश्लेषण करके ‘भारत के समक्ष आठ बड़ी चुनौतियां’ को सूचीबद्ध किया था। ये चुनौतियां हैं,
1. वित्तीय घाटा नियंत्रित करना ।
वित्तीय घाटा चार साल से 3.4 और 3.5 फीसदी पर बना रहा और 2019-20 के बजट में इसे 3.3 फीसदी तक लाने के वादे किए गए हैं। 2018-19 के आंकड़े संदेहास्पद हैं क्योंकि राजस्व का भारी नुकसान हुआ है और बजट से इतर उधारी बढ़ी है। इसलिए 2019-20 के लिए वित्तीय घाटे का अनुमान भी संदेहास्पद है।
2. दबावग्रस्त क्षेत्र (कृषि, बिजली, बैंकिंग) : कृषि क्षेत्र को संकट से उबारने के लिए बजट भाषण में किसी कदम का जिक्र नहीं किया गया है।
3. कारोबारी माहौल को ‘बेहतर’ बनाने के लिए कई तरह के विचार रखे गए हैं। अगर कारोबार उसी ढर्रे पर चलते रहे और वही काम उसी तरह से करते रहे तो कारोबार को आसान करने से फायदा क्या हुआ?
4. कम बोझिल कानून के लिये सबसे अच्छा समाधान तो विकेंद्रीकरण है। इसकी शुरुआत के लिए, स्कूली शिक्षा राज्यों को सौंप दी जानी चाहिए-जैसा कि मूल संविधान में कहा गया है- और ऐसे ही अन्य विषय भी समवर्ती सूची से राज्य सूची में हस्तांतरित कर दिए जाने चाहिए। आरबीआई, सेबी, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई), सीबीडीटी, सीबीआईसी आदि को नियंत्रकों में बदल दिया गया है और नियमों को ज्यादा, बोझिल बना दिया गया है।
5. ज्यादा नगदी हस्तांतरण के मोर्चे पर, सरकार ने डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के लिए कदम बढ़ाए हैं और बड़ी मात्रा में नकदी निकालने को निरुत्साहित किया है।
अर्थव्यवस्था को वैसे ही क्रांतिकारी सुधारों की जरूरत है जैसे 1991-96 में किए गए थे। सरकार को ऐसे सुधारों के लिए जनादेश मिला है। बेवजह सरकार ने आंकड़ों पर आधारित वृद्धि वाले सुधारों का रास्ता चुना है। तेरह अर्थशास्त्री जो सभी भारतीय या भारतीय मूल के हैं, इससे निराश होंगे। क्रांतिकारी सुधार की जड़ें तलाश रहे कई लोग भी निराश ही होंगे।
बजट या बही खाता की फाइल का लाल रंग, क्रांति का द्योतक है। बदलाव का द्योतक है। अब इस रंग में लिपटा हुआ, बजट देश की अर्थव्यवस्था को कितना बदलता है, किस ओर बदलता है, समाज के हित मे यह बदलाव होता है या समाज उस बदलाव से व्यथित होता है यह तो भविष्य में ही पता चल सकेगा। पर आशा यही करनी चाहिये कि यह बदलाव बेहतर होगा।
पर सरकारी तँत्र के लिये एक शब्द बहुत प्रचलित है, लालफीताशाही। यह शब्द भी फाइलों के ऊपर लगे लाल फीते जिससे फाइलें बांधी जाती हैं ताकि उनमे रखे कागज़ कहीं इधर उधर न हो जांय से निकला है। अक्सर सरकार में जब कोई फाइल बहुत उलझी हो तो उस पर निर्णय लेने में अफसर कतराता है। वह फाइल खोलता है, थोड़े पन्ने पलटता है और फिर उसे लालफीता से कस कर बांध देता है। इसी अनिर्णय की स्थिति को लालफीताशाही शब्द से सम्बोधित किया जाता है। अनिर्णय की यह स्थिति कभी कभी सरकार के हित मे होती है और कभी कभी आलस्य और प्रमाद भी इसका कारण होता है।
अब बजट पेश आ चुका है। लाल फाइल खुल चुकी है। यह लाल फाइल देश के अर्थतंत्र को नयी दिशा दे, बदलाव हो और हम सब जनसमृद्धि की ओर बढ़े, यही शुभकामना है।
© विजय शंकर सिंह
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