जेपी नड्डा, दूसरी बार बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष 'चुने" गए हैं। अब इन्हे चुना किसने है या किस प्रक्रिया से इनको अध्यक्ष पद के लिए चुना गया है, यह मुझे नहीं पता क्योंकि, उनके चुनाव के बारे में न तो सोशल मीडिया में कहीं कोई खबर उठी और न ही परंपरागत मीडिया ने ही इस बात की चर्चा की। पर इस तरह के चुनाव को, न तो अलोकतांत्रिक कहा जाएगा और न ही इस चुनाव पर कोई बहस ही छेड़ी जायेगी। जबकि यह सबको पता है कि जेपी नड्डा का इस पद दूसरा कार्यकाल मिलना, मोदी शाह युगल की पसंद का मामला है।
कांग्रेस अध्यक्ष कौन बन रहा है, राहुल बन रहे हैं या कोई और, गांधी परिवार का कोई वफादार बन रहा है या कोई ऐसा व्यक्ति जो गांधी परिवार को चुनौती दे सकता है, आदि तरह तरह के, किंतु परंतु के साथ, हर टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर बहस हो रही है और टिप्पणियां की जा रही है। यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का खुलापन है कि हम सब जो घट रहा है उससे रूबरू हो रहे हैं और अपनी अपनी बात और अपने अपने मशविरे दे रहे हैं।
हम सब, अधिकांश वे लोग हैं जो, न तो, कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में भाग लेने वाले हैं और न ही, उन्हे चुनने वाले। फिर भी मशविरे देकर, मोबाइल स्क्रीन स्क्रॉल कर के आगे बढ़ जा रहे है। हमें यह भी मालूम है कि यह सारे मशविरे यूं ही नेट पर पड़े रह जायेंगे, और इनमे से शायद ही किसी मशविरे को, कांग्रेस नेतृत्व, देखे या इन पर अमल करे। यह रुचि, मशविरा देने की उत्सुकता और लगातार होने वाली टीका टिप्पणी, इस बात का संकेत भी है कि, लोकतंत्र में जन विमर्श होते रहना चाहिए।
लेकिन, लोगों के, इतने उदार और खुले जन विमर्श की कृपापत्र, कांग्रेस पार्टी ही क्यों हो, लोगों की लोकतंत्र के प्रति इतनी चिंता, केवल एक ऐसी ही पार्टी के बारे में क्यों हो, जो कि आठ साल पहले सत्ता से बेदखल कर दी गई है? और आज की सबसे बड़ी पार्टी जो चाल, चरित्र, चेहरे में पार्टी विद द डिफरेंस का बोधवाक्य लिए, शासन कर रही है, पर लोगों की यह कृपा दृष्टि क्यों नही हो रही है? क्यों नही मीडिया में से किसी ने, इस विंदु पर डिबेट आयोजित की, कि जेपी नड्डा का अध्यक्ष पद पर चुनाव किसने, कब और कैसे कर लिया?
इन जिज्ञासाओं के, आप सबके अपने अपने उत्तर हो सकते हैं और होने भी चाहिए, लेकिन मेरा मानना है कि, लोग अब भी कांग्रेस को, लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार चलने वाली पार्टी के रूप में देखना चाहते है। यह अलग बात है कि, वह पार्टी, इन परंपराओं पर खुद को कितना दृढ़ रख पाती है। बीजेपी जिस वैचारिक स्रोत से आती है, उसमे लोकतंत्र के मूल्यों के लिए कभी, अनुराग और सम्मान रहा ही नही है। यह तो उनकी मजबूरी है कि, उन्हे, उस संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था दिखाना, गांधी पर माला चढ़ा कर, उन्हे प्रणाम करना, पटेल, सुभाष का गाहे ब गाहे नाम लेना, कभी कभी समाजवाद और गरीबों की बात भी कर लेना, सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने की, अनिवार्यता के कारण करना पड़ता है, अन्यथा इन सब महानुभावों और संवैधानिक परंपराओं पर इनकी कोई आस्था नहीं है, बल्कि यह कभी कभी इन सब पर, खीज भी उठते हैं। इन सब महानुभावों को वह कभी दशानन के दस शीश के रूप में मानते हुए अपने एक अखबार में कार्टून के रूप में दिखा भी चुके हैं।
राजनीति और लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी राजनैतिक दल हो, उसकी कोई भी गतिविधि, उस दल का आंतरिक मामला या गोपनीयता कह कर टाला नहीं जा सकता है। सभी राजनैतिक दलों की गतिविधियों से जनता प्रभावित होती है। यदि वह दल सत्ता में है तो उसकी नीतियों और गवर्नेंस का असर और वह दल विपक्ष में है तो उसकी निष्क्रियता का सीधा असर हम सब पर, पड़ता है। सत्तारूढ़ दल कितना भी मजबूत हो, पर विपक्ष का एक भी स्वर नज़र अंदाज नही किया जाना चाहिए, लोकतंत्र का यह अनिवार्य तत्व है।
लंबे समय से यह मानसिक अनुकूलन किया जा रहा है कि, विपक्ष नदारद है और नाकारा है, और यह मानसिक अनुकूलन, सत्तारूढ़ दल और गोदी मीडिया द्वारा लगातार बनाया जा रहा है। पर कभी भी गोदी मीडिया द्वारा सत्तारूढ़ दल के उन फैसलों पर सवाल नही उठाए गए, जिनमे संवैधानिक संस्थाओं को अप्रासंगिक करने, बड़ी और महत्वपूर्ण जांच एजेंसियों को केवल, सरकार गिराने और बनाने के एक औजार तक बना लेने के बेहद अलोकतांत्रिक फैसले भी शामिल हैं। ऑपरेशन लोटस अपने मूल चरित्र में ही, जनादेश विरोधी और अलोकतांत्रिक ऑपरेशन है, पर यह है क्या, इस पर बजाय सवाल उठाने, इसका अलोकतांत्रिक चरित्र उजागर करने के बजाय, तोड़फोड़ कर, इलेक्टोरल बांड से मिले धन से विधायको को खरीद कर, अपनी सरकार बना लेने को ही, कौशल से, हमने चाणक्य का नाम दे दिया। यह आचार्य चाणक्य का अपमान है।
यह मानसिक अनुकूलन उन सबको हाशिए पर ला देता है जो, राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुसार चलते हुए देखना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति, सत्ता को हमेशा रास आती है। इसीलिए बात बात पर, यह जुमला भी उछाला जाता है कि, अमुक बात पर, राजनीति नहीं होनी चाहिए। राजनीति को सीमित करने की यह एक फासिस्ट सोच है कि, राजनीति केवल हम करेंगे और आप सब बस, टैक्स भरिए और जो मिल रहा है, उसे प्रभुकृपा मान कर स्वीकार कीजिए, और हां कोई सवाल न करें और मैं कोई जवाब दूंगा भी नहीं। सवालों की उपेक्षा और जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्षरण का, एक प्रकार से प्रारंभ है।
विमर्श जारी रखिए। जब यह कहा जाने लगे कि, इन सब मशविरे को सुनता कौन है तो, यकीन मानिए आप की बात, उन तक पहुंच रही है, और उन्हे असहज भी कर रही है। एकाधिकार परस्त सत्ता की पूरी कोशिश रहती है जनता किसी भी तरह से राजनीतिक विमर्श, आंदोलन और जवाबतलबी से दूर हो जाय और वे अपना काम करते रहें। इसीलिए, बहस, आंदोलन, और सवाल को वे हतोत्साहित करते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं। पर ऐसा नहीं होने देना है।
(विजय शंकर सिंह)
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